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Bhasha अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर चंद बातें।‌मातृभाषा प्रेम का अर्थ किसी जेल में रहना नहीं है!।

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अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर चंद बातें

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मातृभाषा प्रेम का अर्थ किसी जेल में रहना नहीं है!

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क्या हिंदी हमारी मातृभाषा नहीं है? बंगाली की तो बांग्ला है, पजाबी की पंजाबी और मराठी की मराठी। फिर हिंदी बोलने वालों की हिंदी क्यों नहीं है? मेरी मातृभाषा हिंदी है।

यह कहने की जरूरत है कि अवधी, भोजपुरी, ब्रज, मैथिली, उर्दू, छत्तीसगढ़ी, बुंदेलखंडी आदि 49 भाषाएं–बोलियां वस्तुत: हिंदी की 49 माएं हैं! ये भाषाएं ही हिंदी की जननी हैं, संस्कृत नहीं। हिंदी एक साझी निर्मिति है। संस्कृत हिंदी की दादी– परदादी हो सकती है, जननी नहीं है। दरअसल इस दौर में सबसे ज्यादा जरूरी हिंदी के व्यापक आंतरिक संकट को समझने और एलीट वर्गों द्वारा अंग्रेजी के औजार से हिंदी को हाशिए पर लाने के प्रयत्नों का सामना करने की है। अंग्रेजी का अध्ययन जरूरी है, पर अंग्रेजी एक महामारी की तरह फैलाई जा रही है। ऊपरी हिंदी प्रेम के भीतर पूर्णतः अंग्रेजी निर्भर बनाया जा रहा है।

निजीकरण ने राजभाषा को भी हाशिए पर ठेल दिया है, यहां सिर्फ खोखला गर्व है और पैसे के बल पर आतिशबाजी है!

 

हिंदी हमारी मातृभाषा है, जिसके बहुतरफा विकास की चिंता करनी होगी, अन्यथा यह सिर्फ धार्मिक नारों और फेसबुक की भाषा होकर रह जाएगी! इसलिए कुछ ये सवाल हैं?

 

पहला सवाल है, हम हिंदी की जड़ों को, अर्थात अवधी, ब्रज, भोजपुरी आदि की उदार सांस्कृतिक जड़ों को, जो भक्ति साहित्य से लेकर हाल तक की हैं, उन्हें बचाने के लिए क्या कर रहे हैं? क्या हिंदी का नाम जपने वाले हिंदी क्षेत्र की 49 भाषाओं का एक विस्तृत परियोजना के अंतर्गत शब्दकोश बना पाए हैं? वे लोक भाषाओं के विलुप्त हो रहे शब्दों को, जिनमें अनोखी अर्थ ध्वनियां और शब्द ध्वनियां हैं, बचाने के लिए क्या कर रहे हैं?

 

दूसरा सवाल है, लोक भाषा, लोक साहित्य और लोक संस्कृति के संरक्षण का अर्थ लोकबुद्धि और लोक संवेदना का संरक्षण करना है या इनमें रोपे गए अंधविश्वासों और बाजार की फूहड़ता का संरक्षण करना?

 

तीसरा सवाल है, आज भी हिंदी राज्यों के मातृभाषा के सरकारी स्कूलों में कक्षा 3 या 4 के विद्यार्थी हिंदी के वाक्य शुद्ध पढ़ नहीं पाते हैं और एम ए के 90 प्रतिशत विद्यार्थी हिंदी शुद्ध लिख नहीं पाते हैं। इसकी चिंता कितने हिंदी प्रेमियों और विद्वान शिक्षकों को है?

 

चौथा सवाल है, कोई भाषा इंसान की शत्रु नहीं है और हर भाषा एक खुली जगह है, साथ ही भाषा और धर्म के बीच संबंध नहीं होता है और आज कोई भी विकसित भाषा किसी खास जातीयता तक सीमित नहीं है तो फिर हिन्दी में इधर शुद्धिकरण के नाम पर दूसरी भाषाओं के शब्दों को बेरहमी से बाहर निकालने की मुहिम ( मतरुकात) कभी– कभी क्यों तेज हो जाती है! इस मामले में बौद्धिक खुलेपन की कितनी जरूरत महसूस की जा रही है? वही भाषा विकसित होती है, जो अपनी बुनियादी प्रकृति और सहज प्रवाह की रक्षा करते हुए अपने दरवाजे खुले रखती है। मातृभाषा प्रेम का अर्थ किसी जेल में रहना नहीं है!

 

पांचवां सवाल है, बीच– बीच में हिंदी वर्चस्व या हिंदी उन्माद जगाकर ’हिंदी हिंदू हिंदुस्तान’ का भाव प्रदर्शित किया जाता है। इससे कई बार हिंदीतर राज्यों में अनावश्यक गलतफहमियां फैलती हैं और जातीय विद्वेष फैलाने वालों को मौका मिलता है। कुसंस्कार से भरी इस महत्वाकांक्षा से मुक्ति कब मिलेगी? सारी भारतीय भाषाओं को सम्मान देते हुए हमें हिंदी के दंभ से बाहर निकलना चाहिए, क्योंकि सारी भाषाओं को बराबर का सम्मान देना उनके बोलने वालों को सम्मान देना है। इसमें क्या बाधा है?

 

छठा और आखिरी प्रश्न है, हिंदी प्रेम की बात करते हुए भी हिंदी वाले अपने भारतेंदु, प्रेमचंद, प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा, अज्ञेय, मुक्तिबोध से कितना प्रेम रखते हैं? क्या वे किसी भी प्राचीन कवि को उतनी इज्जत दे पाते हैं, जितनी दक्षिण भारत के तिरुवल्लुवर को प्राप्त है? क्या हिंदी क्षेत्र के लोग एक भी ऐसे साहित्यकार को उतना सम्मान देते हैं, जितना बंगाल में रवींद्रनाथ को मिलता है? क्या हिंदी क्षेत्र के किसी भी पार्टी के राजनेता पहले के राजनीतिज्ञों की तरह साहित्य पढ़ते हैं, साहित्यकारों से संवाद करते हैं और उन्हें सम्मान देते हैं?

 

यह कुंभकर्णी नींद आगे चलकर काफी महंगी साबित होगी!

 

हर भाषा का साहित्य उस भाषा का वैभव है, क्या साहित्य पढ़े बिना, उससे एक रिश्ता रखे बिना किसी भी मातृभाषा के गौरव की रक्षा संभव है?

-शंभूनाथ, वरिष्ठ साहित्यकार

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बिहार के लाल कमलेश कमल आईटीबीपी में पदोन्नत, हिंदी के क्षेत्र में भी राष्ट्रीय पहचान अर्धसैनिक बल भारत -तिब्बत सीमा पुलिस (ITBP) में कार्यरत बिहार के कमलेश कमल को सेकंड-इन-कमांड पद पर पदोन्नति मिली है। अभी वे आईटीबीपी के राष्ट्रीय जनसंपर्क अधिकारी हैं। साथ ही ITBP प्रकाशन विभाग की भी जिम्मेदारी है। पूर्णिया के सरसी गांव निवासी कमलेश कमल हिंदी भाषा-विज्ञान और व्याकरण के प्रतिष्ठित विद्वान हैं। उनके पिता श्री लंबोदर झा, राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित शिक्षक हैं और उनकी धर्मपत्नी दीप्ति झा केंद्रीय विद्यालय में हिंदी की शिक्षिका हैं। कमलेश कमल को मुख्यतः हिंदी भाषा -विज्ञान, व्याकरण और साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए देश भर में जाना जाता है। वे भारतीय शिक्षा बोर्ड के भी भाषा सलाहकार हैं। हिंदी के विभिन्न शब्दकोशों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके हैं। उनकी पुस्तकों ‘भाषा संशय-शोधन’, ‘शब्द-संधान’ और ‘ऑपरेशन बस्तर: प्रेम और जंग’ ने राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की है। गृह मंत्रालय ने ‘भाषा संशय-शोधन’ को अपने अधीनस्थ कार्यालयों में उपयोग के लिए अनुशंसित किया है। उनकी अद्यतन कृति शब्द-संधान को भी देशभर के हिंदी प्रेमियों का भरपूर प्यार मिल रहा है। यूपीएससी 2007 बैच के अधिकारी कमलेश कमल की साहित्यिक एवं भाषाई विशेषज्ञता को देखते हुए टायकून इंटरनेशनल ने उन्हें देश के 25 चर्चित ब्यूरोक्रेट्स में शामिल किया था। वे दैनिक जागरण में ‘भाषा की पाठशाला’ लोकप्रिय स्तंभ लिखते हैं। बीते 15 वर्षों से शब्दों की व्युत्पत्ति एवं शुद्ध-प्रयोग पर शोधपूर्ण लेखन कर रहे हैं। सम्मान एवं योगदान : गोस्वामी तुलसीदास सम्मान (2023) विष्णु प्रभाकर राष्ट्रीय साहित्य सम्मान (2023) 2000 से अधिक आलेख, कविताएँ, कहानियाँ, संपादकीय, समीक्षाएँ प्रकाशित देशभर के विश्वविद्यालयों में ‘भाषा संवाद: कमलेश कमल के साथ’ कार्यक्रम का संचालन यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए हिंदी एवं निबंध की निःशुल्क कक्षाओं का संचालन उनका फेसबुक पेज ‘कमल की कलम’ हर महीने 6-7 लाख पाठकों द्वारा पढ़ा जाता है, जिससे वे भाषा और साहित्य के प्रति जागरूकता बढ़ाने का कार्य कर रहे हैं। बिहार के लिए गर्व का विषय : आईटीबीपी में उनकी इस उपलब्धि और हिंदी के प्रति उनके योगदान पर पूर्णिया सहित बिहारवासियों में हर्ष का माहौल है। उनकी इस सफलता ने यह साबित कर दिया है कि बिहार की प्रतिभाएँ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छाप छोड़ रही हैं। वरिष्ठ पत्रकार स्वयं प्रकाश के फेसबुक वॉल से साभार।

भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली द्वारा प्रायोजित दिनाँक 2 से 12 फरवरी, 2025 तक भोगीलाल लहेरचंद इंस्टीट्यूट ऑफ इंडोलॉजी, दिल्ली में “जैन परम्परा में सर्वमान्य ग्रन्थ-तत्त्वार्थसूत्र” विषयक दस दिवसीय कार्यशाला का सुभारम्भ।

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