Badala बदला । प्रेमकुमार मणि, पटना 

बदला । प्रेमकुमार मणि, पटना

सिद्धार्थ जब कपिलवस्तु से चल कर राजगृह आए, तब वह कोई तीस साल के युवा थे. इस उम्र के युवा प्रायः जिज्ञासु होते हैं. लोगों से मिलने-जुलने उनके भावों-विचारों को जानने की उनमें उत्कंठा होती है. और सिद्धार्थ तो परम-जिज्ञासु थे. संसार का घाल-मेल उनकी समझ में न आ रहा था. राजगृह में उन दिनों विचारकों का मेला लगा रहता था. कुछ यही सोच कर हिमालय की नीरव तराई से सिद्धार्थ मगध के कोलाहल भरे इस धाम में आए थे.

सिद्धार्थ ने मक्खलि गोसाल की ख्याति सुनी थी. वह जीवन और जगत को अपनी ही तरह से समझते-समझाते थे. किसी तय पंथ, शास्त्र या महापुरुष पर उनका यकीन नहीं था. उनके जीवनानुभव ही उनके लिए सब कुछ था और इतने से उनका काम चल जाता था.

एक सुबह सिद्धार्थ उनसे मिलने उनके ठिकाने पर पहुंचे,तब वह अपने बनाए कच्चे घड़ों को घाम में सुखाने का उपक्रम कर रहे थे. उनका सहज-सरल जीवन था. सिद्धार्थ ने देखा. पहले से तीन लोग उनके पास जमे हुए थे. सिद्धार्थ को देखते ही मक्खलि ने जान लिया कि यही वह राजकुमार है,जिसकी चर्चा इन दिनों गृद्धकूट में है कि कोई कोमल जिज्ञासु कुमार गुरु और ज्ञान की खोज में भटक रहा है.

सिद्धार्थ ने जब मक्खलि का अभिवादन किया तब वह झंकृत हुए. ठीक ही सुना था. बहुत सुकुमार है यह तो. मानो शुभ्र आकाश में भटका कोई मेघ !

अभिवादन स्वीकार कर उन्होंने सिद्धार्थ को बैठने केलिए एक पीढ़ा दिया. सिद्धार्थ चुपचाप बैठ गए. पहले से बैठे तीन लोगों के साथ भी शिष्टाचार की पहल हुई और फिर मक्खलि ने हाथ-पैर पोंछ उनके साथ ही बैठ गए.

कोई प्रसंग पहले से ही चल रहा था.

मक्खलि बता रहे थे,क्रोध और बदले के भाव से बचो.

वह एक कथा सुना रहे थे.

किसी ज़माने में किसी गाँव में किसी जातक के घर कुछ अतिथि आ गए. उस जातक ने अतिथियों के लिए भोजन पकाए. लेकिन उन्हें परोसने केलिए पर्याप्त थाल उसके घर नहीं था. अतएव उसने पड़ोस के घर से कुछ थाल मंगवाए और अपने अतिथियों का सत्कार किया. फिर जैसा कि होता है,थाल धो -धा कर पड़ोसी के घर दे आया.

लेकिन पड़ोसी को मालूम हुआ उसकी थाल में उसके पड़ोसी ने अतिथियों को मांस परोस कर खिलाए थे. इस से वह आग-बबूला हो गया. उसका अपना घर शुद्ध शाकाहारी था. उसके तो सारे थाल अपवित्र हो गए. क्रोध पर काबू कर पड़ोसी ने बदला लेने का निश्चय किया.

कुछ रोज बाद वह भी किसी बहाने पड़ोस के घर से थाल उधार मांग लाया. चूकि वह मांसाहारी नहीं था, इसलिए मांस खा कर उसकी थाली को अपवित्र नहीं कर सकता था. और फिर यह भी कि एक माँसाहारी के थाल को मांसाहार से क्या दिक्कत हो सकती थी.

पड़ोसी गुस्से में उबल रहा था. उसे बदला लेना ही लेना था. अचानक उसके मन में कुछ सूझा और वह इत्मीनान हुआ. ऐसा अपवित्र करूँगा पड़ोसी की थाल को कि वह भी जानेगा.

उसने तय किया कि पड़ोसी की थाल में वह विष्ठा खाएगा. इस तरह उसकी थाली जो अपवित्र होगी, उसे हजार बार धो कर भी वह पवित्र नहीं कर पाएगा.

पड़ोसी ने यही किया.

कथा सुना कर मक्खलि चुप लगा गए. उन्होंने शांत चित्त सिद्धार्थ के चेहरे को घूरा. वह बहुत हौले मुस्कुरा रहे थे. खूब सुन्दर घड़े-सा उनका मुखड़ा सचमुच आकर्षक था.