Philosophy। मार्क्सवाद/ प्रेमकुमार मणि

आज कार्ल मार्क्स का जन्मदिन है. इस आलेख द्वारा उनका स्मरण *
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मार्क्सवाद

प्रेमकुमार मणि

दार्शनिकों ने विभिन्न विधियों से विश्व की केवल व्याख्या ही की है ,लेकिन प्रश्न विश्व को बदलने का हैया-
‘थीसिस ऑन फायरबाख ‘ में मार्क्स

कार्ल हेनरिख मार्क्स (1818-1883) के जीवनकाल में ही दुनिया दो हिस्सों में बँट गयी थी . एक हिस्सा उनके समर्थकों का था और दूसरा उनके विरोधियों का ; लेकिन मार्क्स ने स्वयं के बारे में बातचीत के क्रम में एक बार कहा था -‘ मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ .’ इसी से मिलती -जुलती बात बुद्ध ने भी कही थी कि सब कुछ मैंने ही नहीं बतला दिए हैं .

कोई भी वैज्ञानिक या दार्शनिक अपने निष्कर्षों के प्रति भी इतना इत्मीनान नहीं होता ,जितना एक मूर्ख व्यक्ति . कट्टरता मूर्खों की आत्मा होती है , यही उनका केन्द्रक होता है . इसलिए मार्क्सवाद से प्रभावित कोई भी ईमानदार व्यक्ति उसे अंतिम सत्य मानने की जिद नहीं करता . मार्क्सवाद एक विज्ञान है और उसके जड़ होने की कोई गुंजायश नहीं है .

मार्क्स जड़ नहीं थे .किसी भी बात पर आँख मूँद कर उन्होंने कभी यकीन नहीं किया . वह तत्वान्वेषी थे . उन्होंने अपने विवेक से दुनिया को समझा और फिर उसे लेखनी द्वारा प्रकट किया . उन्होंने काफी लिखा है . इन लेखों में उनके विचारों का प्रकटीकरण हुआ है . उनके द्वारा व्यक्त विचारों के सारांश को मार्क्सवाद के नाम से अभिहित किया जाता है .

हम संक्षेप में मार्क्सवाद की चर्चा करेंगे . मेरी कोशिश नौजवान मित्रों को मार्क्सवाद के प्रति जिज्ञासु अथवा उत्सुक बनाना है . यह मार्क्सवाद की एक चर्चा है ,कोई आधिकारिक व्याख्या नहीं . जिन साथियों को प्रतीत हो कि कुछ अनर्गल है ,वे मेरा ध्यान दिलाने की कृपा करेंगे . .

मोटे तौर पर मार्क्सवाद के तीन हिस्से या प्रभाग बनते हैं –
1 , द्वंद्वात्मक ऐतिहासिक भौतिकवाद
2 , राजनीतिक अर्थशास्त्र
3 , वैज्ञानिक समाजवाद .

इन तीनो के अलग -अलग महत्त्व अथवा वैशिष्ट्य हैं . लेकिन इसमें सबसे महत्वपूर्ण है द्वंद्वात्मक ऐतिहासिक भौतिकवाद के सूत्र ,जिसका प्रतिपादन मार्क्स ने पहली बार किया . राजनीतिक अर्थशास्त्र -जिसका प्रतिपादन मार्क्स ने अपनी प्रसिद्ध और कई ज़िल्दों वाली भारी -भरकम किताब ‘ कैपिटल ‘ में किया है ,या फिर सरप्लस वैल्यू अर्थात अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत ,जिसके द्वारा पूंजीवादी शोषण चक्र की गुत्थी उन्होंने सुलझाई ; मुख्य रूप से अर्थशास्त्र से सम्बंधित कार्य है ,और यह उन्हें एक अर्थशास्त्री के रूप में प्रतिष्ठापित करते हैं ; वहीं वैज्ञानिक समाजवाद बहुत अंशों में एक यूटोपिया है ,जिसे प्राप्त करने केलिए विभिन्न देशों में कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट पार्टियां बनीं . हर दार्शनिक का एक यूटोपिया होता है ,जैसे बुद्ध का निर्वाण ,कबीर का अमरदेस ,रैदास का बेगमपुरा और तुलसीदास और गाँधी का रामराज . मार्क्स का यूटोपिया वैज्ञानिक समाजवाद है .

मैं मार्क्सवाद के तीन प्रमुख अवयवों की चर्चा कर रहा था . और पहला अवयव ही हमने द्वंद्वात्मक ऐतिहासिक भौतिकवाद बतलाया है . मार्क्सवादी विचारों का यही वह हिस्सा है जहाँ मार्क्स एक दार्शनिक -वैज्ञानिक के रूप में प्रकट होते हैं . इसीलिए मेरी दृष्टि में मार्क्स की किसी अन्य रचना से अधिक महत्वपूर्ण मुझे उनकी छोटी- सी ; आधी -अधूरी लिखी गई रचना ‘ जर्मन आइडियोलॉजी ‘ प्रतीत होती है ,जिसमे उन्होंने बीज रूप में ऐतिहासिक द्वंद्ववाद की व्याख्या की है . यह लेख थीसिस ऑन फायरबाख का एक हिस्सा है .

थीसिस ऑन फायरबाख की रचना नवंबर 1845 और अगस्त 1846 के बीच की गई . तब मार्क्स की उम्र लगभग सत्ताईस साल की थी और वह ब्रसेल्स में रह रहे थे .इसके पूर्व एंगेल्स से उनकी मित्रता हो चुकी थी . निबंध की रचना में एंगेल्स की भी भूमिका थी ,जो उन्ही के शब्दों में सेकेंडरी थी . अर्थात यह मुख्य रूप से मार्क्स की रचना है . ताज्जुब तो यह है कि यह लेख मार्क्स की मृत्यु ,यहाँ तक कि बोल्शेविक क्रांति के संपन्न होने और लेनिन की मृत्यु के उपरांत ही प्रकाशित हो सकी . रूसी में इसका प्रकाशन पहली बार 1924 में हुआ . पूरी दुनिया के समक्ष आने में तो कुछ और समय लगा .

हम कुछ समय केलिए मार्क्स के ज़माने में चलें . मैं पहले ही बतला चुका हूँ कि युवा मार्क्स की दिलचस्पी दर्शनशात्र में थी . वह अपने जमाने के प्रतिनिधि दो दार्शनिकों से प्रभावित थे . एक थे हेगेल (1770 -1831 ) और दूसरे थे फायरबाख . हेगेल का तब बहुत नाम था और जर्मन दार्शनिकों के बीच उनकी तूती बोलती थी . मार्क्स यदि कुछ समय पूर्व उच्च अध्ययन केलिए बर्लिन पहुंचे होते तो हेगेल से साक्षात् मिलने की सम्भावना होती . इसका अफ़सोस मार्क्स को रहा होगा. हेगेल का मुख्य कार्य दुनिया की द्वंद्ववादी व्याख्या है . लेकिन हेगेल के द्वंद्ववाद का आधारतत्व आईडिया है और यह बौद्धों के योगाचार दर्शन से मिलता -जुलता है . मार्क्स आईडिया को मूल मानने से इंकार करते हैं . इसी समय प्रसिद्ध भौतिकवादी फायरबाख से भी वह प्रभावित थे ,जिनके विचारों का कई सोशलिस्टों का भी समर्थन प्राप्त था . लेकिन फायरबाख की दरिद्रता दार्शनिक स्तर पर यह थी कि वह द्वन्द्वात्मकता की अवधारणा की भौतकवादी व्याख्या नहीं कर पाए थे . मार्क्स ने अपने फायरबाख विषयक निबंध में इसकी आलोचना की है . मार्क्स ने अपने नोट के ग्यारह बिंदु बनाये हैं . किसी नारे की तरह लोकप्रिय मार्क्स की उक्ति कि दार्शनिकों ने विभिन्न विधियों से दुनिया की केवल व्याख्या की है , लेकिन प्रश्न दुनिया को बदलने का है ‘ इसी नोट का ग्यारहवां बिंदु है . मार्क्स ने इसके तीसरे बिंदु में बतलाया है ” यह भौतिवादी सिद्धांत कि मनुष्य परिस्थितियों तथा शिक्षा -दीक्षा की उपज है ,और इसलिए परिवर्तित मनुष्य भिन्न परिस्थितियों एवं भिन्न शिक्षा -दीक्षा की उपज है ,इस बात को भुला देता है कि परिस्थितियों को मनुष्य ही बदलते हैं और स्वयं शिक्षक को शिक्षा ग्रहण करने की आवश्यकता होती है .अतः यह सिद्धांत अनिवार्यतः समाज को दो भागों में विभक्त कर देने के निष्कर्ष पर पहुँचता है ,जिन में से एक भाग समाज से ऊपर होता है . परिस्थितियों के परिवर्तन तथा मानवीय क्रियाकलाप का संयोग केवल क्रान्तिकारी व्यवहार के रूप में ही विचारा तथा तर्कबुद्धि द्वारा समझा जा सकता है .”

मार्क्स बतलाते हैं – ” फायरबाख धार्मिक आत्मनियोजन अर्थात जगत के दो प्रतिरूपों ,एक काल्पनिक -धार्मिक दुनिया और दूसरी वास्तविक दुनिया में विभाजन के तथ्य से अपनी बात शुरू करते है . …. फायरबाख यह नहीं देख पाते कि धार्मिक भावना स्वयं ही एक सामाजिक उपज है तथा जिस अमूर्त व्यक्ति (ईसा) का उन्होंने विश्लेषण किया है ,वह समाज की एक विशेष अवस्था का प्राणी है . ”

मार्क्स के जमाने के भौतिकवादी चिंतक भारतीय चार्वाक के अंदाज़ में धर्म और धार्मिकता की आलोचना करते थे . मार्क्स का मानना था कि धर्म और उसके विचारों ,यहाँ तक की उसकी पौराणिक अवधारणाओं तक की व्युत्पत्ति समाज से ही होती है . धर्म स्वयं समाज की एक विशेष परिस्थिति की उपज हैं . उन परिस्थियों में परिवर्तन कर हम परिणामों में परिवर्तन संभव कर सकते है . अर्थात सब कुछ मनुष्य और समाज – यानि भौतिक परिस्थितियों के हाथ है . वह मनुष्य को महत्वपूर्ण मानते हैं . निबंध के आरम्भ यानि पहले बिंदु में ही वह कहते हैं – ” अब तक के तमाम भौतिकवादियों ,इनमे फायरबाख भी हैं , की त्रुटि है कि वस्तु ,वास्तविकता और ऐंद्रियता को केवल विषय के रूप में कल्पित किया जाता है ,न कि मानव के इन्द्रियगत क्रियाकलाप व व्यवहार के रूप में . इसका परिणाम हुआ क्रियाशील पक्ष भौतिकवाद द्वारा नहीं ,भाववाद द्वारा विकसित किया गया . .. फायरबाख विचार वस्तुओं से वास्तव में विभेदित इन्द्रियगत वस्तुओं को चाहते हैं ,लेकिन वह स्वयं मानव क्रियाकलाप को वस्तुनिष्ठ क्रियाकलाप के रूप में नहीं देखते . यही कारण है कि अपनी किताब ‘ ईसाई धर्म का सार ‘ में वह सैद्धांतिक पक्ष को ही मानवीय मानते हैं .. वह क्रान्तिकारी आलोचना के क्रियात्मक महत्त्व को नहीं समझ पाते ..”

मार्क्स के विचार उनके कम्युनिस्ट घोषणापत्र तैयार करने के पूर्व पुष्ट हो चुके थे . इसी वैचारिकता के आधार पर उन ने जर्मन आइडियोलॉजी पर प्रश्न उठाये ,जिसकी धाक पूरे यूरोप पर पसरी पड़ी थी और हेगेल जिसके शीर्ष चिंतक थे . अब हम इसी प्रश्न पर विचार करेंगे .

(2)

“जीवन चेतना द्वारा निर्धारित नहीं होता अपितु चेतना जीवन द्वारा निर्धारित होती है . “- मार्क्स

जर्मनी सहित पूरी दुनिया के दार्शनिकों का मत था कि यह दृश्य जगत महत्वपूर्ण नहीं है ,महत्वपूर्ण है वह चेतना ,जो दृश्य जगत को अनुभव करने की योग्यता हमें देता है . यह चेतना ही है जिसके कारण हम जगत का अनुभव कर पाते हैं . इसके अभाव में इस जगत के अस्तित्व का कोई अर्थ नहीं है , वह मिथ्या है . भारतीय वेदान्तिक शंकराचार्य ने इसी भाव को व्यक्त करते हुए जगत को मिथ्या और ब्रह्म यानि चेतना को सत्य कहा था . जर्मनी में भी विचार दर्शन की मिलती -जुलती ऐसी परम्परा थी . इसका प्रतिनिधित्व कांट करते थे . इसे आगे बढ़ाते हुए ,हेगेल ने अपनी डायलेक्टिक की बात सामने लाई. उनके विचारों ने तहलका मचा दिया था .उनकी अवधारणा थी कि यह दुनिया द्वंद्वात्मक प्रक्रिया से संचालित है और कोई स्पिरिट इसे सक्रिय रखता है . यह एक अधिभौतिक विचार है और तबतक के विचारों में अधिक तर्कपूर्ण और संश्लिष्ट . पूरे यूरोप में हेगेल की धाक थी . युवाओं में वह अधिक लोकप्रिय थे . उनसे प्रभावित नौजवानों को यंग हेगेलियन कहा जाता था . युवा मार्क्स भी इन में से एक थे. लेकिन स्पिरिट को लेकर उन के मन में आलोचना के भाव थे . उनका कहना था इस द्वंद्वात्मकता को ‘स्पिरिट ‘ नहीं ‘ मैटर ‘ -भौतिक तत्व संचालित रखते हैं . अपने निबंध जर्मन विचारधारा में उन्होंने इसे स्पष्ट किया है . यह लेख स्वतन्त्र रूप से भले बाद में प्रकाशित हुआ हो ,मार्क्स की पूरी समझदारी इसी पर केंद्रित रही . इसी की रौशनी में उन्होंने अर्थ और समाज विज्ञान को परिभाषित किया . इसीलिए इसे मैंने प्रमुखता से लिया है .

मार्क्स इस बात पर जोर देते है ” चेतना सचेत अस्तित्व के अलावे और कुछ हो ही नहीं सकती ,और मनुष्यों का अस्तित्व उनकी वास्तविक जीवन प्रक्रिया होता है . .. मनुष्य अपने भौतिक उत्पादन तथा अपने -अपने भौतिक संघर्ष का विकास करते हुए इस वास्तविक अस्तित्व के साथ अपने चिंतन तथा चिंतन के परिणामों को भी बदलते हैं . जीवन चेतना द्वारा निर्धारित नहीं होता अपितु चेतना जीवन द्वारा निर्धारित होती है . ”

मार्क्स मानते हैं कि चेतना हमेशा ही समाज द्वारा निर्मित होती है और वह तब तक बनी रहती है जब तक मनुष्य का अस्तित्व बना रहता है . मनुष्य या जगत से निरपेक्ष चेतना का न ही कोई अर्थ है ,न अस्तित्व . चेतना के विविध रूप वह चाहे धर्म हो ,या दर्शनशास्त्र या कि साहित्य या कलाएं सब समाज द्वारा निर्मित हैं ,वे स्वर्ग या किसी परलोक से कूद कर नहीं आ गयी हैं . यह मनुष्य में रचने और उत्पादन करने की क्षमता का प्रकटीकृत रूप है .

मार्क्स ने इसी लेख में इतिहास की भौतिकवादी द्वंद्वात्मकता को रेखांकित किया है जिससे मानव समाज विकास के विभिन्न चरण स्पष्ट होते हैं . मनुष्य अपनी उत्पादन क्षमता से सामाजिक परिस्थियों को परिवर्तित कर देते है . परिवर्तन की यह प्रक्रिया यूँ तो निरंतर चलती है ,लेकिन कभी -कभी उत्पादन के औजारों के अचानक अथवा क्रांतिकारी रूपांतरण से उत्पादन क्षमता बढ़ जाती है . अधिशेष अथवा सरप्लस पर कब्ज़ा करने केलिए समाज में होड़ होती है और फलस्वरूप श्रेणी विकसित हो जाती है; और इससे समाज का एक पहले से भिन्न रूप सामने आता है . अर्थात नई सामाजिक स्थितियां और सम्बन्ध विकसित हो जाते हैं . इसे इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या कहा जाता है . इसी प्रक्रिया में आदिम साम्यवादी समाज के बीच से दास विकसित हुए और फिर सामंत . औद्योगिक क्रांति ने उत्पादन के औजारों में तकनीकी क्रांति द्वारा विकसित स्थितियों से एक नए पूंजीवादी दौर का विकास किया, जिसके शीर्ष पर पूंजीपति और आधार रूप में सर्वहारा औद्योगिक मजदूर आये .

मार्क्स की एक बड़ी कमजोरी यह हुई कि उसने सब कुछ यूरोप के इस नए दौर को ध्यान में रख कर किया . उसने पूंजीपति और सर्वहारा के संबंधों के अध्ययन में ही स्वयं को खपा दिया . उसकी मृत्यु पर बोलते हुए एंगेल्स ने उसकी तुलना डार्विन से की . निश्चय ही यह जायज तुलना है ,लेकिन डार्विन ने जीवों के क्रमिक विकास के अध्ययन केलिए लम्बी यात्रा की थी .कई द्वीपों में वह गए . वहां जीवों की भिन्न प्रजातियों और पुराने जीवों के जीवाश्म का अध्ययन किया .तब जाकर वह एक निष्कर्ष पर आये और उन्होंने विकासवाद को परिभाषित किया . जीवों के क्रमिक विकास के कतिपय प्राकृतिक नियमों को ढूंढा . मार्क्स ने ऐसा नहीं किया . उन्होंने जल्दीबाजी दिखाई . जर्मन आइडियोलॉजी में अपने विचारों को रखना बिलकुल सही था . उनके महत्व असंदिग्ध हैं . लेकिन बाद में जिस ऐतिहासिक भौतिकवाद को उन्होंने दुनिया के समक्ष रखा ,वह एकांगी अथवा अधूरा बन कर रह गया . स्वयं मार्क्स को इसका आभास था . यही कारण था कि अपने जीवन के आखिरी समय में वह रूसी किसानों के जीवन और वहां की कृषि व्यवस्था का अध्ययन कर रहे थे . यहां तक कि वह रूसी भाषा भी सीख़ रहे थे . इससे पता चलता है की इसे लेकर भीतर से वह कितना व्यग्र और जिज्ञासु थे . वह एक मौलिक चिंतक थे ,इसलिए संभव है उनके भीतर अपराधबोध हो .

बेहतर होगा पूरे प्रसंग को देखें .उन्नीसवीं सदी में रूसी किसानों का एक आंदोलन हुआ ,जिसे नरोदनाया वोल्या कहा जाता है . रूसी समाज में चूकि औद्योगिक क्रांति नहीं हुई थी ,अतएव पूंजीवाद विकसित नहीं हुआ था . हाँ , वहां किसानों के कम्यून थे . किसान नेताओं ने जिज्ञासा की कि क्या पूंजीवाद के चरण को छलांग कर समाजवादी दौर में पहुंचा जा सकता है ? मशहूर मार्क्सवादी नेता प्लेखानोव ,जिसका लेनिन बार -बार जिक्र करते हैं , इसी किसान आंदोलन से जुड़े थे . प्लेखानोव की दृढ़ राय थी कि पूंजीवाद के दौर को छलांग कर समाजवाद के दौर में नहीं पहुंचा जा सकता . एक दूसरे किसान नेता वेरा जासुलिच ने सीधे मार्क्स को खत लिखा और सलाह मांगी . मार्क्स इतने पसोपेश में थे कि उन्होंने अपने पत्र के चार मसविदे बनाये . लेकिन भेजा किसी को नहीं . इसी बीच मार्क्स की मृत्यु हो गई . कहते हैं उनकी मृत्यु के बाद एंगेल्स ने ,मार्क्स के आखिरी मसविदे को निर्णायक मसविदा मानते हुए जासुलिच को भेज दिया . मार्क्स ने जासुलिच के प्रश्न को सकारात्मक मानते हुए स्वीकृति दी थी . लेकिन अब तक मार्क्सवाद का एक महायान विकसित हो गया था . वह पत्र दबा दिया गया . पूरे बोल्शेविक आंदोलन में उसे दबाये रखा गया . शायद इसलिए कि रूसी कम्युनिस्ट पार्टी में किसान नेताओं को महत्व न देना पड़ जाय . 1923 में एक मेंशेविक निकोलाएव्स्की ने इसे प्रकाशित कर दिया . अब बोल्शेविकों को इसे स्वीकारना मज़बूरी थी . महान बोल्शेविक नेताओं ने मंजे सत्ताधारियों की तरह टिप्पणी की कि मार्क्स के अंतिम समय का यह पत्र है .इसे लिखते समय तक उन्होंने अपनी बौद्धिक क्षमताएं खो दी थीं . किसी भी दार्शनिक -विचारक से हुकूमत का ऐसा ही सलूक होता है , चाहे वह उसके विचारों की ही हुकूमत क्यों न हो .

उन्नीसवीं सदी में कई मार्क्सवादी विचारकों ने जड़ मार्क्सवाद से पृथक अपनी व्याख्या प्रस्तुत की और उसे व्यापक स्वीकृति भी मिली . इटली के मार्क्सवादी विचारक अंतोनियो ग्राम्शी ( 1891- 1937) ने वर्चस्व की एक पृथक व्याख्या की . यह रूढ़ मार्क्सवादी लाइन से तनिक भिन्न है . चीन में माओ च तुंग ने तो इस थियरी को ही त्याग दिया कि केवल सर्वहारा मज़दूर वर्ग ही समाजवादी क्रांति कर सकता है . किसानों के बूते एक क्रांति को उन्होंने संभव बनाया . उन्होंने मार्क्सवादी चिंतन में यह भी जोड़ा कि समाजवादी सरकार बना लेने के बाद भी क्रांति की ज़रूरत होगी ,अन्यथा पार्टी का ही एक तबका सरकार पर हावी हो जायेगा और हेजेमनी स्थापित कर लेगा .सतत क्रांति की बातें भारतीय समाजवादी नेताओं ने भी की है . यह सब मार्क्सवाद की अपनी द्वंद्वात्मकता है, जिसपर कम ही विचार हुआ है …।

कार्ल मार्क्स के जन्मदिन (05 मई, 2021) पर इस आलेख द्वारा उनका स्मरण *
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