BNMU नाथपंथ में महत्वपूर्ण है योग की अवधारणा : प्रति कुलपति

नाथपंथ में योग की विचारधारा मुख्यतः हठयोग पर आधारित है। इसमें योग साधना का मुख्य उद्देश्य कुंडलिनी शक्ति का जागरण है। जब व्यक्ति कुंडलिनी का जागरण कर लेता है, तभी उसका ही जीवन सही मायने में सार्थक होता है। यह बात प्रति कुलपति प्रोफेसर डॉ. आभा सिंह ने कहीं। वे शनिवार को नाथ पंथ का वैश्विक प्रदेय विषयक अन्तराष्ट्रीय वेबिनार-सह-संगोष्ठी में नाथपंथ में योग की अवधारणा विषय पर बोल रही थीं। कार्यक्रम का आयोजन दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्विद्यालय, गोरखपुर के तत्वावधान में किया गया था।

उन्होंने कहा कि आमतौर पर पूरी दुनिया में महर्षि पतंजलि का योग दर्शन ही प्रचलित है। लेकिन योग के आदि प्रणेता योगेश्वर भगवान शिव हैं। नाथ संप्रदाय भी शिव को ही आराध्य मानती है। इस संप्रदाय में कई महान योगी हुए हैं, जिनमें गुरू गोरखनाथ का महत्वपूर्ण स्थान है।

उन्होंने कहा कि नाथ संप्रदाय का मानना है कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड की सृष्टि शिव आदिनाथ की उर्जा से हुई है, जिसे शक्ति की संज्ञा दी गई है। इसी शक्ति के सबसे छोटे भाग को कुंडलिनी की संज्ञा दी गई है और यह माना गया है कि यह शक्ति मानव में सुप्त रूप में विद्यमान है।

उन्होंने बताया कि आमतौर पर योग के आठ अंग माने गए हैं। लेकिन नाथपंथ में प्रारंभिक दो अंग यम एवं नियम को विशेष महत्व नहीं दिया गया है। इसकी मान्यता है कि यदि व्यक्ति ध्यान की क्रिया में दक्षता प्राप्त कर लेता है, तो वह स्वतः यम एवं नियम का पालन करने लगता है। इस पंथ के अनुसार योग के छः अंग हैं- शारीरिक मुद्रा, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि।

उन्होंने कहा कि नाथपंथ में योग की अवधारणा काफी बहुआयामी है। इसमें हठयोग, कुंडलिनी योग, मंत्र योग एवं भक्ति योग आदि समाविष्ट है। साथ ही इसके परिणाम भी अपेक्षाकृत तीव्र गति से प्राप्त होता है।इसमें योग का उद्देश्य शक्ति का शिव से मिलन है, जो मोक्ष की अवस्था है। यही भारतीय दर्शन के अनुसार मानव जीवन का चरम पुरुषार्थ भी है।

कार्यक्रम में भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद् के अध्यक्ष प्रोफेसर डॉ. रमेशचन्द्र सिन्हा सहित कई गणमान्य व्यक्तियों ने अपने विचार व्यक्त किए।