BNMU। 31 दिसंबर के बहाने…

31 दिसंबर के बहाने…

वर्ष की सभी तारीखें अपने आपमें मूल्यविहीन होती हैं, अर्थात् उनका कोई अपना मूल्य नहीं होता है। हम उसमें मूल्य डालते हैं- उसके साथ कुछ बातों को आरोपित कर। हमने ही किसी दिन को मदर्स डे, किसी को फादर्स-डे, कैसी को फ्रैंडशिप-डे एवं किसी को वेलेंटाइन-डे बनाया है, तो किसी दिवस को स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस या पर्यावरण दिवस बनाया है। यह सब कुछ हमारे द्वारा निर्मित है और सबकुछ इस बात पर निर्भर है कि हम इसे किस तरह लेते हैं।

यह बात 31 दिसंबर (साल का आखिरी दिन) और एक जनवरी (वर्ष का पहला) पर भी लागू होती है। हम सभी इसे अपने-अपने ढंग से देखते हैं और उसी तरह व्यवहार करते हैं। कोई इस दिन के लिए वर्षभर प्रतीक्षा करता है, तो कोई दिनकर की तरह कहता है कि यह नववर्ष हमें स्वीकार नहीं, अपना यह त्यौहार नहीं।

खैर, मैं इन दोनों विचारधाराओं से अलग 31 दिसंबर और एक जनवरी को एक सामान्य रूप में लेता हूँ। मैं सामाजिक रूप से इस दिन की बधाई देने की औपचारिकताएँ पूरी करता हूँ, लेकिन कोई भी व्यक्तिगत जश्न नहीं मनाता हूँ।

बचपन में मैं नए वर्ष के दिन की शुरूआत अपने दरवाजे पर जमीन में बोरा-चट्टी बिछाकर पढ़ाई करने से करता था और दोपहर में अपने भाई-बहनों के ‘पूसभत्ते’ में शामिल हो जाता था। मेरा यह सिलसिला मैट्रिक-इंटर तक बना रहा।

आगे जब स्नातक की पढ़ाई के लिए भागलपुर आया, तो इसमें कुछ बदलाव आया। हम 31 दिसंबर को सामाजिक संगठनों द्वारा आयोजित वर्षांत कार्यक्रम में भाषण, कविता आदि करते और एक जनवरी को जयप्रकाश उद्यान में आयोजित नववर्ष सांस्कृतिक मेले में भाग लेते थे।

यह नववर्ष सांस्कृतिक मेला लगभग 28 वर्षों से अपसंस्कृति के खिलाफ जनसंस्कृति के संरक्षण के उद्देश्यों से आयोजित की जा रही है। इसमें परिचर्चा, नाटक, कविता पाठ, पुस्तक प्रदर्शनी और कई तरह की प्रतियोगिताएँ आयोजित होती हैं। इसमें सफाली युवा क्लब, गाँधी शांति प्रतिष्ठान, युवा भारत और दर्शना पब्लिकेशन आदि की तरफ से मेरी सक्रिय भागीदारी रहती थीं। सफाली क्लब की ओर से अध्यक्ष प्रोफेसर डॉ. फारूक अली के नेतृत्व में हम बच्चों के लिए कई प्रतियोगिताएँ आयोजित करते थे और दर्शना पब्लिकेशन की ओर से पुस्तक प्रदर्शनी लगाई जाती थीं। विभिन्न छात्र संगठनों की पुस्तक प्रदर्शनियों से मैं प्रायः सभी किताबों की एक-एक प्रति खरीद लेता था।

इस तरह यह मेला मेरे लिए वर्षभर की बौद्धिक खुराकी जुटाने और सभी सामाजकर्मियों एवं जनसारोकार से जुड़े प्राध्यापकों से मिलने-जुलने का भी एक अवसर होता था। गत वर्ष मैं नववर्ष के दिन नई दिल्ली में था और एक-दो दिन पूर्व ही मेरी अत्यंत प्रिय बड़ी बहन के आकस्मिक निधन की खबर से बुरी तरह टूटा-बुझा था। ऐसे में नववर्ष नहीं मनाया, लेकिन दूसरों को वाट्सप आदि पर बधाई दे दिया था, ताकि उनके उत्सव में मेरी ओर से कोई कमी न हो।

बहरहाल इस बार कुछ विशेष कार्यालयी जिम्मेदारियों के कारण भागलपुर नहीं जा पाया और मधेपुरा में ही वर्ष 2020 का आखिरी दिन गुजर रहा है। आज दिनभर विश्वविद्यालय के कार्य से कम्यूटर में आँख गड़ाए रहा और बीच में समय निकालकर हमने ‘प्रांगण रंगमंच’ के रक्तदानियों से मिलकर उनकी सेवा भावना को नमन किया।

देर शाम माननीय कुलपति महोदय के कार्यालयी कक्ष में एक पत्रकार साथी द्वारा मेरे बारे में की गई अनावश्यक टिप्पणी और गलतबयानी से काफी आहत हुआ। उन्हें कुलपति महोदय के सामने ही हल्का जवाब दिया, लेकिन मेरा गुस्सा शांत नहीं हुआ। फिर मैंने उनका नंबर ब्लाक कर दिया। लेकिन करीब आठ बजे रात्रि जब मैं कार्यालय से अपने आवास पहुँचा, तो मेरा गुस्सा खत्म हो गया। मेरे मन में बात आई कि पत्रकार साथी ने तो कुलपति महोदय के पास अपनी ‘इमेज’ बनाने के लिए वैसा किया, इसमें उनकी कोई ग़लती नहीं है। इसलिए मैंने उनका नंबर पुनः ‘अनब्लाॅक’ कर दिया।

फिर मेरे मन में यह बात आई कि जिस तरह मुझे किसी की कुछ-कुछ बातें जाने-अनजाने आहत कर देती हैं, वैसे ही मेरी भी बातों से अन्य लोग आहत होते होंगे। इसलिए मुझे भी हमेशा सोच-समझ कर बोलना चाहिए। इसके साथ ही वर्ष 2020 में जिनको भी मुझसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दुख पहुँचा है, उनसे मुझे माफी माँगनी चाहिए। तत्काल मैंने विश्वविद्यालय के पूर्व प्रति कुलपति प्रोफेसर डॉ. फारूक अली और पूर्व कुलपति प्रोफेसर डॉ. अवध किशोर राय को फोन किया। दोनों का आशीर्वाद लिया। इससे मेरा मन बहुत हल्का लग रहा है। वर्ष 2020 में किसी अन्य को भी मेरे किसी भी कार्य-व्यवहार से किसी भी प्रकार का दुख पहुँचा है, तो क्षमाप्रार्थी हूँ।

अंत में मुझे स्कूली दिनों में पढ़ी डाॅ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की एक कविता याद आ रही है। आप भी इसे पढ़कर लाभ उठाएं, “जिस-जिससे पथ पर स्नेह मिला/ उस-उस राही को धन्यवाद!

जीवन अस्थिर अनजाने ही हो जाता पथ पर मेल कहीं/ सीमित पग-डग लम्बी मन्ज़िल/ तय कर लेना कुछ खेल नहीं। दाएं-बाएं सुख-दुख चलते/ सम्मुख चलता पथ का प्रमाद/ जिस-जिससे पथ पर स्नेह मिला / उस-उस राही को धन्यवाद।

साँसों पर अवलम्बित काया जब चलते चलते चूर हुई/ दो स्नेह शब्द मिल गए, मिली नव-स्फूर्ति, थकावट दूर हुई/ पथ के पहचाने छूट गए/ पर साथ-साथ चल रही याद/ जिस-जिससे पथ पर स्नेह मिला उस-उस रही को धन्यवाद।

जो साथ न मेरा दे पाए/ उनसे कब सूनी हुई डगर/ मैं भी न चलूँ यदि तो भी क्या राही मर लेकिन राह अमर।

इस पथ पर वे ही चलते हैं/ जो चलने का पा गए स्वाद/ जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला उस-उस रही को धन्यवाद।

कैसे चल पाता यदि न मिला होता मुझको आकुल-अन्तर/ कैसे चल पाता यदि मिलते/ चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर। आभारी हूँ मैं उन सबका/ दे गए व्यथा का जो प्रसाद। जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला/ उस उस राही को धन्यवाद।”

बहुत-बहुत धन्यवाद, आभार एवं नमस्कार।

शुभविदा-2020
सुस्वागतम्-2021