व्यक्तिगत स्वार्थ का परिणाम है भाषाई विवाद : डॉ. बंदना

हिंदी हमारी मातृभाषा है। यह सामाजिक अस्मिता का यथार्थ है। भारतीय समाज की सच्चाई है।

यह बात असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, पूर्णियाँ विश्वविद्यालय, पूर्णियाँ (बिहार) डाॅ.बंदना भारती ने कही। वे रविवार को बासी भात में खुदा का साझा : हिन्दी-उर्दू विवाद विषय पर ऑनलाइन व्याख्यान दे रही थीं। कार्यक्रम का आयोजन बीएनएमयू संवाद व्याख्यानमाला के अंतर्गत किया गया।

उन्होंने कहा कि पहले हिन्दी एवं उर्दू का विवाद नहीं था। पूरा भाषाई विवाद हमारी व्यक्तिगत स्वार्थ एवं खोखले चिंतन का परिणाम है।

उन्होंने बताया कि 1836 में कंपनी सरकार की आज्ञा से संयुक्त प्रांत में हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया। इसके कारण आर्थिक एवं सामाजिक थे। बिहार फिर संयुक्त प्रांत में हिंदी को उर्दू के बराबर जगह दे दी गई। इससे मुसलमान नेताओं के जेहन में यह बात बैठ गई कि इस्लाम खतरे में है।

उन्होंने बताया कि बिहार में उर्दू को द्वितीय भाषा का दर्जा 1981 में ही मिल गया। दूसरी राजभाषा बनाने का मसला सबसे पहले बिहार में उठा और 1968 में रांची का सबसे भयानक एवं सांप्रदायिक दंगा हुआ। 1967 का इस दृष्टि से भी उल्लेखनीय है कि उस पर संसद में संशोधित राजभाषा अधिनियम पारित किया और सरकार की ओर से हिंदी भाषा राज्यों को आश्वासन दिया कि उनकी इच्छा के विरुद्ध काम नहीं किया जाएगा। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में उर्दू को दूसरी राजभाषा का सवाल उठाया गया।

उन्होंने कहा कि मुख्य सवाल हिंदी को उसका वाजिव हक दिलाने का है। अंग्रेजी को हटाने का है। उल्टे हिंदी को जो थोड़ी बहुत सुविधा मिली है, उस पर हंगामा करना ठीक नहीं है।