बात-बात पर खफ़ा हो जाना…!!
बेरूत अब्र में समा महताब का नजरों से जुदा हो जाना…!!
मत पूछो अब ‘प्रियमित’ दिल ने देखे क्या-क्या हादसात…!!
इन्सां का पत्थर होना औ’ पत्थर का खुदा हो जाना…!!
जिन्हें गुरेज थी हर रिश्तों की अहमियत से बारहाँ…!!
इश्क़ सीखा गयी उनको इक नजर पे ही फ़ना हो जाना…!!
वो दौर गुजर गया, जब आह निकल जाती थी खरोंच से…!!
अबके रकीबों ने भी देखा जख़्म का मेरी हुनर से ऱेजा-ऱेजा हो जाना…!!
फूल, तितली, भौरें, शबनम, हवा और घटाओं का अंजुमन…!!
एक तेरे होने से होता था, ख्वाबों का क्या-क्या हो जाना…!!
हिज्रें-यार में अपनी ही धड़कनों का जिस्ते-आज़ार लगना…!!
काश लौट आये तू औ’ तेरी नजरों का दवा हो जाना…!!!
डॉ. कुमारी प्रियंका, इतिहास विभाग, जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा, बिहार