BNMU। सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्र निर्माण। डॉ. नरेश कुमार

परिवर्तन एक बहुत बड़ी अवधारणा है और यह जैविक, भौतिक तथा सामाजिक तीनों जगत में पाई जाती है। किंतु जब परिवर्तन समाज में होता है, तो यह सामाजिक परिवर्तन कहा जाता है तो निश्चित हीं उसका अर्थ सीमित हो जाता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। संसार में कोई भी पदार्थ नहीं जो स्थिर रहता है। उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन सदैव होता रहता है। स्थिर समाज की कल्पना करना आज के युग में संभव नहीं है। समाज एक परिवर्तनशील व्यवस्था है। प्रत्येक समाज में चाहे-अनचाहे रूप से परिवर्तन की प्रक्रिया चलती रहती है। विश्व में ऐसा कोई समाज नहीं है जो परिवर्तन से अछूता रहा हो। इसके कारण से उस समाज के द्वारा निर्मित राष्ट्र के दशा और दिशा पर प्रभाव पड़ता है अर्थात सामाजिक परिवर्तन, राष्ट्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

यह समाज के आन्तरिक तथा बाहरी या संरचनात्मक दोनों पक्षों में हो सकता है। किसी युग के आदर्शों एवं मूल्यों में यदि पिछले युग के मुकाबले कुछ नयापन या परिवर्तन दिखाई पड़े तो उसे आंतरिक परिवर्तन कहेंगे और अगर किसी सामाजिक अंग जैसे परिवार, वर्ग, जातीय हैसियत, समूहों के स्वरूपों एवं आधारों में परिवर्तन परिलक्षित हो तो उसे संरचनात्मक परिवर्तन कहेंगे।

जो परिवर्तन होता है, वह इसके बाह्य स्वरूप तथा आंतरिक अंतर्वस्तु में होता है। व्यापक दृष्टि से देखें तो पता चलेगा कि समाज की प्रत्येक संरचना, संगठन एवं सामाजिक संबंध में निरंतर परिवर्तन होता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते, हमारा प्रत्यक्ष संबंध सामाजिक संबंधों से होता है और उसमें आए हुए परिवर्तन को हम सामाजिक परिवर्तन कहेंगे। एचएम जॉनसन ने कहा- बुनियादी अर्थ में सामाजिक परिवर्तन से अभिप्राय सामाजिक संरचना में परिवर्तन से है।

अतः स्पष्ट है कि परिवर्तन एक व्यापक प्रक्रिया है, किसी राष्ट्र के समाज में, किसी भी क्षेत्र में विचलन को सामाजिक परिवर्तन कहा जा सकता है। विचलन का अर्थ यहां खराब या असामाजिक नहीं है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, नैतिक, भौतिक आदि सभी क्षेत्रों में होने वाले किसी भी प्रकार के परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन कहा जा सकता है। यह विचलन स्वयं प्रकृति के द्वारा या मानव समाज द्वारा योजनाबद्ध रूप में हो सकता है।
राष्ट्र शब्द को अगर बहुत मोटे शब्दों में समझाना चाहें, तो कहा जा सकता है की एक निश्चित भौगोलिक सीमा के भीतर रहनेवाले एक जन-समूह को हम राष्ट्र कहते हैं, जिनकी एक पहचान होती है और वह समूह आम तौर पर धर्म, इतिहास, नैतिक आचारों या विचारों, मूल्यों आदि में एक समान दृढ़ता रखता है। इसे और भी साफ करना चाहें तो राष्ट्र लोगों का वैसा स्थायी समुच्चय या समूह है जिनके बीच सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक-धार्मिक संबंध न केवल होते हैं, बल्कि वे उनको एकजुट भी करते हैं।
राष्ट्र के तौर पर हमारी भावना एक हो, हम एक राष्ट्रवादी विचारधारा से पनपें, इसके लिए महज दो-तीन शर्तें हैं। हमें एक ऐतिहासिक समुदाय के रूप में राष्ट्रीय चेतना को जगाना होता है, राजनीतिक औऱ आर्थिक संप्रभुता पानी होती है, अपनी साझा संस्कृति का विकास करना होता है और नकार की जगह सकार को अपनाना, सकारात्मक भावनाओं का विकास करना होता है।

परिवर्तन या तो समाज के समस्त ढांचे में आ सकता है अथवा समाज के किसी विशेष पक्ष तक ही सीमित हो सकता है। वह भी राष्ट्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। समाज में सामंजस्य स्थापित करने के लिए परिवर्तन आवश्यक है। जो राष्ट्र के निर्माण में मजबूती प्रदान करता है। मैकाइवर तथा पेज का कहना है कि समाज परिवर्तनशील तथा गत्यात्मक दोनो है। वास्तव में समाज से संबंधित विभिन्न पहलुओं में होने वाले परिवर्तन को ही सामाजिक परिवर्तन कहा जाता है। सामाजिक परिवर्तन एक स्वभाविक प्रक्रिया है। यदि हम समाज में सामंजस्य और निरंतरता को बनाए रखना चाहते हैं तो हमें यथास्थिति अपने व्यवहार को परिवर्तनशील बनाना ही होगा। तब ही मजबूत राष्ट्र का निर्माण संभव हो पायेगा यदि ऐसा न होता तो मानव समाज की इतनी प्रगति संभव नहीं होती। निश्चित और निरंतर परिवर्तन मानव समाज की विशेषता है। सामाजिक परिवर्तन का विरोध होता है क्योंकि समाज में रूढीवादी तत्त्व प्राचीनता से ही चिपटे रहना पसंद करते हैं।

स्त्री स्वतंत्रता और समान अधिकार की भावना, स्त्रियों की शिक्षा, पर्दा प्रथा की समाप्ति, स्त्रियों का आत्मनिर्भर होना, बाल विवाह प्रथा पर रोक, यौन शोषण पर रोक, विधवा विवाह की प्रथा, भ्रूण हत्या की समाप्ति और भ्रष्टाचार की समाप्ति आदि अनेक परिवर्तनों को आज भी समाज के कुछ तत्त्व स्वीकार नहीं कर पाते हैं।
सामाजिक परिवर्तन के महत्वपूर्ण कारक होते है जो मजबूत राष्ट्र के निर्माण के लिए भी महत्वपूर्ण है जैसे:-
1. सांस्कृतिक कारक (Cultural Factors) 2. आर्थिक कारक (Economic Factors) 3. जैविकीय कारक (Biological Factors).
सामाजिक परिवर्तन में अनेक कारक काम करते है जिनमें सांस्कृतिक, प्रौद्योगिक, जैविकीय आर्थिक, भौगोलिक परिवेश सम्बन्धी, मनोवैज्ञानिक तथा विचारधारात्मक कारक मुख्य कारक हैं। भारतवर्ष में सामाजिक परिवर्तन का सर्वेक्षण करने से इन सभी कारकों का प्रभाव स्पष्ट दीखता है ये सभी कारक परस्पर निर्भर हैं और एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं ।
किसी भी विशिष्ट परिवर्तन के कारणों का विश्लेषण करने से उसके मूल में अनेक कारक उलझे हुए मिलते हैं । ये सभी कारक मिलकर सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न करते है ।
1. सांस्कृतिक कारक (Cultural Factors) : संस्कृति मूल्यों शैलियों भावात्मक लगावों और बौद्धिक अभियानों का क्षेत्र है ये मूल्य, शैलियाँ और विचार आदि सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करते हैं । मूल्य से यहाँ तात्पर्य उस लक्ष्य से है जिसको प्राप्त करने के लिए कोई व्यक्ति अथवा संस्था प्रयत्नशील रहती हैं। उदाहरण के लिए हिन्दू विवाह की संस्था का लक्ष्य धर्म-पालन, प्रजोत्पत्ति और रति हैं । आधुनिक काल में धर्म का महत्व घट जाने से और परिवार नियोजन पर जोर दिए जाने के कारण रति ही विवाह की संस्था का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य रह गया है ।
मूल्यों में इस परिवर्तन से विवाह की संस्था अस्थिर हुई है । इससे पारिवारिक विघटन बड़ा है । प्राचीन परिवारों में पिता का बड़ा सम्मान था। परिवार के सभी सदस्य उसकी आज्ञा मानना अपना परम कर्तव्य समझते थे। आधुनिक काल में पिछली और नई पीढ़ियों के मूल्यों में अत्यधिक अनार होने के कारण उनके सम्बन्ध टूटते जा रहे है। यह शायद मजबूत राष्ट्र के लिए शुभ नहीं है
भारतीय समाज में परिवर्तन करने वाले सांस्कृतिक कारकों में मुख्य तथ्य हैं:
(अ) संस्कृतिकरण : भारतीय सामाजिक संरचना जाति-व्यवस्था पर आधारित है । इन जातियों में उतार-चढ़ाव का एक क्रम माना जाता है, जिसमें कुछ जातियाँ अन्य जातियों से ऊँची समझी जाती हैं । वर्ण-व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण सामाजिक संरचना में सबसे ऊँचे थे क्योंकि वे ही समाज की संस्कृति को जीवित रखते थे ।
उनके बाद क्षत्रिय, फिर वैश्य और तब शूद्रों का नम्बर आता था अन्य जातियाँ-वर्ण व्यवस्था से बाहर गिनी जाती थीं । यह वर्ण-व्यवस्था सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित थी । जो वर्ण जितना ऊँचा था वह सांस्कृतिक दृष्टि से भी उतना ही ऊँचा था । हालाँकि भारत में आज़ादी के बाद हमारी संविधान के अनुसार कोई भी वर्ण छोटा या बड़ा नहीं होता है और इसी कारण से भारत राष्ट्र एक मजबूत राष्ट्र के रूप में उभर रहा है
(ब) पश्चिमीकरण : आधुनिक काल में भारत में पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से व्यापक सामाजिक परिवर्तन हुए है । इस प्रकार पश्चिमीकरण सामाजिक परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण कारक है । पश्चिमीकरण के द्वारा भारतीय समाज में परिवार की संस्था, विवाह की संस्था, समाज के विभिन्न सदस्यों के परस्पर सम्बन्ध यौन-सम्बन्धी मूल्य, स्त्रियों की शिक्षा और गतिशीलता, वेशभूषा, मूल्य और विचार, सामाजिक नियन्त्रण के साधन इत्यादि विभिन्न तत्वों में महत्वपूर्ण परिवर्तन दिखलाई पड़ता है । जो राष्ट्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है
(स) लौकिकीकरण : प्राचीन भारतीय संस्कृति धर्मप्राण संस्कृति कहलाती है किन्तु आधुनिक काल में पश्चिमीकरण के प्रभाव से देश में लौकिकीकरण बढ़ता जा रहा है । लौकिकीकरण से सामाजिक संस्थाओं रीति-रिवाजों और व्यवहारों के तरीकों में धर्म का प्रभाव कम होता जा रहा है और उसके स्थान पर उपयोगिता या व्यक्तिगत रुचि के आधार पर काम होता है । स्वतन्त्रता के बाद से भारत सरकार ने धर्मनिरपेक्षता का आदर्श अपनाया है । इससे भी भारत में लौकिकीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुई है ।
(द) जनतन्त्रीकरण : आधुनिक काल में पश्चिम के अधिकतर देशों में राजनीतिक व्यवस्था में जनतन्त्र को ही सर्वोत्तम प्रणाली माना जाता है । इसका मुख्य कारण यह है कि जनतन्त्र के मूल तत्व ‘स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व’ आधुनिक मानव-चेतना के अनुकूल हैं।

देश को स्वतन्त्रता मिलने के बाद से भारतवर्ष में भी जनतन्त्रीय सरकार की स्थापना हुई है । यद्यपि अभी सामाजिक क्षेत्र में जनतन्त्रीकरण बहुत दूर की बात है किन्तु फिर भी अनेक क्षेत्रों में इस दिशा में प्रगति हो रही है । राजनीतिक सत्ता के अधिकाधिक विकेन्द्रीकरण और जनतन्त्रीय मूल्यों को मान्यता दिए जाने से जात-पात, धर्म, क्षेत्र, लिंग, आयु आदि के आधार पर व्यक्तियों में भेदभाव कम होता जा रहा है ।

जनतन्त्रीय आदर्श के अनुसार भारत सरकार ने अस्पृश्यता को अपराध घोषित कर दिया है तथा समाज के अन्य अंगों के समकक्ष में लाने में सहायता देने के लिए समाज के पिछड़े वर्गों को विशेष अधिकार दिए गए हैं । देश के प्रत्येक नागरिक को कानून की दृष्टि में अन्य नागरिकों के समान माना जाता है ।
प्रत्येक को व्यवसाय विवाह, शिक्षा, विचारों की अभिव्यक्ति, शासन में भाग लेने, समिति बनाने आदि की पूरी स्वतन्त्रता है । इससे समाज के पिछड़े वर्गों और स्त्रियों की स्थितियों और कार्यों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए है । स्त्रियों की दशा में सामाजिक परिवर्तन होने से परिवार और विवाह की संस्था में महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन हुए हैं
(य) राजनीतिकरण : भारत को स्वतन्त्रता मिलने के बाद से और देश में वयस्क मताधिकार दिए जाने से छोटे-से-छोटे गाँव से लेकर बड़े-से-बड़े नगर तक सब कहीं राजनीति का बोलबाला है । गाँव-गाँव में रेडियो टीवी सोशल मीडिया पहुंच जाने से बहुत से लोग राजनीतिक गतिविधियों में रुचि लेने लगे है । इससे मजबूत राष्ट्र का निर्माण हो रहा है और जनतान्रिक व्यवस्था कायम हो रहा है
चुनाव के दिनों में यह रुचि और भी बढ़ जाती है । चुनाव जीतने के लिए विभिन्न राजनीतिक दल और उनके द्वारा खड़े किए गए उम्मीदवार समाज में सब प्रकार से अपनी सत्ता बनाए रखने का प्रयास करते है । बड़े-बड़े जमींदारों और रियासतों के राजाओं के समाप्त हो जाने के बाद अब अधिकतर शक्ति राजनीतिक नेताओं के हाथ में आ गई है, इसलिए अब राजनीति ही अनेक सामाजिक परिवर्तनों का निर्णय करती है राजनीतिक कारणों से ही कुछ लोग अस्पृश्यता उन्मूलन के पक्ष में और कुछ विपक्ष में बोलते देखे जाते हैं ।
राजनीतिक कारणों से ही जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद आदि विभिन्न विघटनकारी शक्तियाँ बड़ी हैं । दूसरी ओर राजनीतिक कारणों से अनेक सामाजिक समूहों में सुदृढ़ता और संगठन भी बढ़ा है । आज देश का इतना राजनीतिकरण हो गया है कि छोटे-से-छोटे गाँव से लेकर बड़े-से-बड़े नगर में अधिकतर गतिविधियाँ राजनीतिक कारणों से निर्धारित होती हैं।

2. आर्थिक कारक (Economic Factors) : समकालीन समाज में सामाजिक परिवर्तन में विभिन्न कारकों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण कारक आर्थिक हैं केवल भारत में ही नहीं बल्कि संसार के सभी समाजों में आधुनिक काल में आर्थिक कारकों से ही सबसे अधिक सामाजिक परिवर्तन हुआ है ।
संक्षेप में ये आर्थिक कारक निम्नलिखित हैं:
(अ) औद्योगीकरण : औद्योगीकरण संसार में सामाजिक परिवर्तन का सबसे अधिक प्रमुख कारण है । औद्योगीकरण ही आधुनिकता का आधार है और संसार का कोई भी देश इसकी अवहेलना नहीं कर सकता क्योंकि इसी से मनुष्य और प्रकृति का सम्बन्ध निश्चित होता है ।
इस दृष्टि से यह सांस्कृतिक प्रगति का एक मापदण्ड है और बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण कोई भी देश इसके बिना प्रगति नहीं कर सकता । सच तो यह है कि जिस देश में औद्योगीकरण जितना ही अधिक हुआ है वह देश अन्य देशों की तुलना में सब प्रकार से उतना ही आगे दिखलाई पड़ता है ।
भारतवर्ष में औद्योगीकरण से नगरीकरण बढ़ा, व्यापार बढ़ा, लोगों के मिलने-जुलने के अवसर बड़े, आर्थिक क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन हुए और सामाजिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में संस्थाओं और मूल्यों का रूप बदल गया ।
(ब) नगरीकरण : यद्यपि नगरों का विकास आर्थिक के अलावा अन्य कारणों से भी हुआ है किन्तु आर्थिक कारण और उनमें भी औद्योगीकरण नगरीकरण का प्रमुख कारण है । संसार में सब-कहीं नगरों की संख्या और बडे-बडे नगरों का विस्तार बढता जा रहा है । भारतवर्ष भी इसका उपवाद नहीं है ।
नगरों की संख्या और विस्तार बढ़ने से देश में नगरीय समाज की विशेषताएँ जैसे भौतिकवाद व्यक्तिवाद, जीवन की तीव्र गति निर्वैयक्तिक सामाजिक सम्बन्ध, सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि, स्त्री-पुरुष का अधिक सामाजिक सम्पर्क, बड़े परिवारों का विघटन और संयुक्त परिवार के स्थान पर केन्द्रक परिवार की स्थापना, विवाह-पूर्व और विवाह से बाहर यौन-सम्बन्धों में वृद्धि इत्यादि अनेक सामाजिक लक्षण दिखलाई पड़ते हैं ।
प्रौद्योगिक परिवर्तन : सामाजिक परिवर्तन के कारकों में आधुनिक युग में प्रौद्योगिकी का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है । भारतवर्ष में बिजली, भाप तथा पैट्रोल से चलने वाले उत्पादन के यन्त्रों यातायात और सन्देशवहन के साधन तथा दैनिक जीवन के सैकड़ों कामों के लिए नई-नई मशीनों के आविष्कार से समाज का रूप बदलता जा रहा है और परिवार तथा विवाह जैसी संस्थाओं पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है ।
औद्योगिक विकास के प्रत्यक्ष प्रभाव श्रम संगठन, श्रम विभाजन, विशेषीकरण, जीवन की तीव्र गति तथा उत्पादन में वृद्धि आदि हैं । अप्रत्यक्ष रूप से देश में नगरीकरण और उससे बढ़ने वाली बेकारी, अपराध, किशोरापराध, वर्ग-संघर्ष आदि भी प्रौद्योगिकी के परिणाम हैं। उद्योगों में मशीनों के प्रयोग से देश में नगरीकरण बढ़ा और कारखाना-पद्धति का उदय हुआ ।
इससे नए वर्गों की उत्पत्ति हुई और नवीन विचारधाराएँ तथा आन्दोलन दिखलाई पड़ने लगे। स्त्रियों की स्थिति में भारी परिवर्तन हुआ। मूल्यों पर व्यापक प्रभाव पड़ा। भौतिकवाद, व्यक्तिवाद, विशेषीकरण आदि आधुनिक प्रौद्योगिकी का ही परिणाम है।
नगरीय जीवन में प्रौद्योगिकी का प्रभाव साम्प्रदायिक भावना में कमी, समय का मूल्य बढ़ जाना सामाजिक नियन्त्रण की न्यूनता, नैतिकता का निम्न स्तर, अपराधों की संख्या में वृद्धि तथा सामाजिक और व्यक्तिगत विघटन के रूप में देखा जा सकता है । प्रौद्योगिकी से सामाजिक परिवर्तन को एक छोटे से उदाहरण से समझाया जा सकता है ।
पहले जब कार को स्टार्ट करने के लिये हैण्डिल घुमाने की जरूरत पड़ती थी, तब स्त्रियाँ कार नहीं चलाती थीं जब से कारों में स्वयंचालक यन्त्र का प्रयोग होने लगा तब से समृद्ध स्त्रियाँ बड़ी संख्या में कार स्वयं चलाने लगीं इससे उनकी वेशभूषा, गतिशीलता, रहन-सहन, विचार, मूल्य तथा सामाजिक सम्बन्धों में व्यापक परिवर्तन हुये ।
3. जैविकीय कारक (Biological Factors) : सामाजिक परिवर्तन के जैविकीय कारकों में जनसंख्या का गुणात्मक पहलू आता है। जनसंख्या के गुण-दोष, आकार वितरण, रचना आदि में परिवर्तन से व्यापक सामाजिक परिवर्तन होते हैं। उदाहरण के लिये भारत में बड़े-बड़े औद्योगिक नगरों में लाखों की संख्या में मजदूर पुरुषों के बाहर से नगर में आने से नगर में स्त्री-पुरुष की संख्या का अनुपात बिगड़ जाता है जिसका परिणाम वेश्यावृत्ति और वेश्यागमन, अपराध, मानसिक रोग किशोरापराध आदि में वृद्धि के रूप में दिखलाई पड़ता है ।
देश में जनसंख्या अत्यधिक बढ़ जाने पर समाज का स्वास्थ्य नीचे गिरता और निर्धनता बढ़ती है । यह भारत में सब कहीं दिखलाई पड़ता है । जनसंख्या अत्यधिक बढ़ने से सामाजिक मूल्यों में भी परिवर्तन हुआ है । भारत में घड़े-बड़े नगरों में अत्यधिक भीड़-भाड़ और गन्दी बस्तियों की समस्या है जिनसे लोगों के चरित्र और स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है ।
इसीलिये सरकार परिवार नियोजन के लिये जोर शोर से प्रयत्नशील है। गर्भ-निरोधक उपायों का विज्ञापन किया जा रहा है । इससे यौन-सम्बन्धी मूल्यों में परिवर्तन हुआ है क्योंकि अवैध यौन-सम्बन्ध पहले से अधिक सम्भव हो गये हैं । बढ़ती हुई जनसंख्या की भोजन और अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये देश में नित्य नये आविष्कार हो रहे हैं और नई-नई चीजों के कारखाने खुल रहे हैं ।
खेती को अलग प्रोत्साहन दिया जा रहा है। इन सबसे भी सामाजिक परिवर्तन हो रहे हैं। भारतीय जनसंख्या में अनेक गुणात्मक दोष हैं जैसे-नगरीय जनसंख्या की तुलना में ग्रामीण जनसंख्या का अधिक होना अधिक जन्मदर अधिक मृत्युदर इत्यादि । इन सब दोषों से विभिन्न सामाजिक संस्थाओं पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है ।
परम्परा और आधुनिकता : भारतीय समाज में सामाजिक परिवर्तन में परम्परा और आधुनिकता दोनों की ओर प्रवृति दिखाई पड़ती है । परम्परावादी प्रवृति पश्चिमीकरण, लौकिकीकरण, जनतन्त्रीकरण नगरीकरण और औद्योगीकरण में बाधा पहुँचाती है जबकि आधुनिकतावादी प्रवृति इनमें सहायक है। आधुनिकतावाद विज्ञान, प्रौद्योगिकी और पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव है ।
परम्परावाद के पीछे स्वदेशी की प्रवृत्ति है । इन दोनों ही प्रवृत्तियों को लेकर देश में विभिन्न प्रकार के राजनीतिक दल दिखलाई पड़ते हैं जो अपने-अपने समाज-दर्शन के अनुसार समाज के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं । अधिकतर आधुनिक विचारक देश में वांछित परिवर्तन लाने के लिये परम्परा और आधुनिकता के समन्वय के पक्षपाती हैं ।

भारत में सामाजिक परिवर्तन की प्रवृत्ति, दिशाओं और कारकों के उपरोक्त संक्षिप्त दिग्दर्शन से यह स्पष्ट होता है कि देश में पश्चिम के देशों के नमूने के अनुरूप सामाजिक परिवर्तन हो रहा है । यह ठीक है कि इस सामाजिक परिवर्तन को स्थानीय परिस्थितयों के अनुसार अधिक से अधिक मोड़ना वांछनीय है परन्तु परिवर्तन के मार्ग की बाधाओं विशेष रूप से परम्परागत अन्धविश्वासों, रूढ़ियों और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण को बदले बिना परिवर्तन की गति पर्याप्त रूप से तीव्र नहीं की जा सकती ।
समकालीन भारतीय समाज और संस्कृति एक संक्रमणकालीन स्थिति से गुजर रहे हैं। भविष्य की रूपरेखा क्या होगी यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता किन्तु यदि देश की समस्याओं के अनुसार सामाजिक परिवर्तन की दिशाओं को नियन्त्रित करना है तो परिवर्तन की वांछित दिशाओं और लक्ष्यों को पहले से निश्चित करके नियोजनपूर्वक परिवर्तन लाना होगा।
इसमें सरकार और जनता दोनों के सहयोग की आवश्यकता है किन्तु सबसे अधिक महत्वपूर्ण योगदान समाज के पढ़े-लिखे और बौद्धिक वर्ग का होगा क्योंकि वे ही अन्य लोगों का मार्ग-दर्शन करते है, अन्य लोग उन्हीं का अनुकरण करते हैं।
देश में इस प्रकार के सुदृढ़ बौद्धिक वर्ग का निर्माण नहीं हो सका है। बौद्धिक वर्ग में वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों ही प्रकार की प्रवृतियाँ दिखलाई पड़ रही है । इनका कहाँ तक सन्तुलन बना रहेगा और कौन सी प्रवृत्ति कहां तक दूसरी प्रवृत्ति पर हावी हो जायेगी-इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता ।

Comments are closed.