Gandhi। गांधी को किसी एक परंपरा में कैद करना उचित नहीं है

समस्त विश्व में गौतम बुद्ध के बाद जिस भारतीय को सबसे अधिक सम्मान मिला है, वे हैं महात्मा गांधी। महान वैज्ञानिक आइन्सटीन ने जब यह कहा था कि आने वाली नस्लें असानी से यह विश्वास नहीं करेंगी कि गांधी जैसा भी कोई व्यक्ति इस धरती पर जन्मा था। ऐसा इसलिए क्योंकि गांधी में एक नैतिक ताकत थीं।

यह बात सुप्रसिद्ध दार्शनिक डॉ. आलोक टंडन, हरदोई (उत्तर प्रदेश) ने कहीं। वे गुरुवार को गांधी : परंपरा एवं आधुनिकता विषय पर व्याख्यान दे रहे थे। यह व्याख्यान बीएन मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा के तत्वावधान में बीएनएमयू संवाद व्याख्यान माला के अंतर्गत किया गया।

उन्होंने कहा कि गांधी को किसी एक परंपरा में कैद करना उचित नहीं है। गांधी एक विकासमान व्यक्तिव हैं और वे पूरी दुनिया के लिए प्रेरणास्रोत हैं। हम पूरा गांधी भले ना बन सकें, लेकिन हमें छोटे-छोटे गांधी बनने का प्रयास अवश्य करना चाहिए। हमें गांधी को एक असंभव संभावना नहीं, बल्कि एक व्यवहारिक वास्तविकता के रूप में लेना चाहिए।

उन्होंने कहा कि हमारे लिए गांधी की प्रासंगिकता तभी है, जब हम अपने भीतर के ‘नैतिक मनुष्य’ को जगाए रख सकें और अपने नैतिक बोध के साथ जीने का साहस दिखा सकें। दुनिया में जब तक नैतिकता की जरूरत है और जब तक हमारे अंदर अहिंसक समाज के निर्माण का स्वप्न जिंदा है, गांधी प्रासंगिक बने रहेंगे।

उन्होंने कहा कि हमें गांधी को उनके ‘स्पिरिट’ के आधार पर समझने की जरूरत है, उनकी लाठी, टोपी या धोती की नहीं। यह आज के भूमंडलीकरण के युग में भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी गांधी के समय में थी। हम आज भी परम्परा और आधुनिकता के द्वन्द्व में फंसे हुये हैं। एक ओर पश्चिमीकरण की अन्धभक्ति है और हम जल्द से जल्द पश्चिमी उपभोक्तावादी जीवन शैली अपनाना चाहते हैं। वहीं दूसरी ओर हमने भारतीय संस्कृति का ऐसा प्रारूप स्वीकार कर लिया है, जो उसके ऐतिहासिक बहुलतावादी प्रारूप से मेल नहीं खाता।

उन्होंने कहा कि गांधी दुनिया में एक वैकल्पिक आधुनिकता के प्रतिनिधि बनकर सामने आते हैं। जो परम्परा और आधुनिकता के समन्वय से नहीं, अपितु दोनों के अन्तर्वेशन से बने एक नवीन संस्करण को सृजित करता है। जहाँ से हम भारतीय आधुनिकता की यात्रा प्रारंभ कर सकते हेैं।

उन्होंने कहा कि गांधी अपनी पुस्तक में आधुनिक पश्चिमी सभ्यता की आलोचना करते हैं। यह आलोचना परंपरागत भारतीय संस्कृति का यथार्थ कभी नहीं रहा। संस्कृति का वह आदर्शीकृत रूप ‘भारतीय ग्राम’ की उनकी अवधारणा की तरह स्वयं उन्हीं की अविष्कृत है। वह भविष्य की परियोजना तो हो सकती है, पीछे लौटने की वकालत नहीं।

उन्होंने कहा कि गांधी का विवेक मंत्र आज भी हमारे बहुत काम का है। गांधी ने कहा है कि हम अपने दरवाजे, खिड़कियां खुली रखें। आने वाली हर हवा का परीक्षण सत्य और नैतिकता के आधार पर करें, यदि वह प्रदूषणकारी हो, तो उसे ठुकराने में जरा भी देर न करें, भले ही वह भारत के सुदूर अतीत का प्रतिनिधित्व करती हो या आधुनिक पश्चिम का। हम साहस के साथ उसे ही अपनाएं जो कल्याणकारी हो।

उन्होंने कहा कि गांधी बार-बार हमें ‘मानसिक उपनिवेशीकरण’ से सावधान करते हैं। गांधी का संदेश है कि हमें अपनी शर्तों पर आधुनिक होना है, पश्चिम के पिछलग्गू बनकर नहीं। वे यह मानते थे कि पश्चिमीकरण ही आधुनिकीकरण नहीं है।

उन्होंने कहा कि गांधी यह मानते थे कि भारत एक राष्ट्र है। लेकिन गांधी के राष्ट्र की परिकल्पना अन्य राष्ट्रवादी परियोजनाओं से भिन्न है। वे किसी भी तरह के संकीर्ण, जातिवादी, धर्मवादी, राष्ट्रवाद के विरोधी हैं। फिर चाहे वह पश्चिमी ढंग का राजनैतिक राष्ट्रवाद हो या पूर्वी ढंग का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद। उनका राष्ट्रवाद, अन्तरराष्ट्रीयवाद का विरोधी नहीं है, बल्कि उसे पाने की अनिवार्य शर्त है।

उन्होंने कहा कि गांधी ने ‘हिन्द स्वराज’ में उन्होंने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में घोषणा की कि भारतीय राष्ट्र को किसी धर्म द्वारा परिभाषित नहीं किया जा सकता। हमें गांधी के सर्वधर्म समभाव पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए। निजी जीवन में गांधी एक धार्मिक व्यक्ति थे। अपने को वे एक हिन्दू ही मानते थे, लेकिन ‘हिन्दू’ की उनकी अपनी परिभाषा हिन्दुत्व जैसी नहीं है। वे दूसरे धर्मों के अध्ययन, उनसे सीखने और उनके धर्मावलम्बियों से मेलजोल बढ़ाने के पक्षपाती थे। जहां अपने धर्म की कमियों की आलोचना करना वे अपना दायित्व समझते थे, वहीं दूसरे धर्मों के बारे में चुप रहना बेहतर समझते थे।

उन्होंने कहा कि गांधी के अनुसार सभी धर्मों के मूल में हैं। इसलिए वे एक हिन्दू को ‘अच्छा हिन्दू’ तथा एक मुसलमान को ‘अच्छा मुसलमान’ बनने की सलाह देते थे। वे यह मानते थे कि सभी धर्मों में कुछ सच्चाई का अंश है और कुछ कमियां भी हैं। वे धर्मशास्त्रों को तर्क एवं नैतिकता की कसौटी पर कसकर ही स्वीकारते थे।