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चंद्रशेखर : इंसानियत की मिसाल 

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चंद्रशेखर : इंसानियत की मिसाल 

(पुण्यतिथि पर स्मरण)

 

सियासत का मिजाज विचित्र है। अच्छे को बुरा, मानना। बुरे को अच्छा, कहना। शायद चंद्रशेखर के साथ भी यही हुआ। चंद्रशेखर ने सत्ता से पहले मानवीय संबंधों को तरजीह दी। सियासत के कठोर मैदान में भी अपनी संवेदनशीलता, करुणा और मानवीयता जिंदा रखा। इस अर्थ में चंद्रशेखर दुर्लभ लोगों में से रहे। उनकी जेल डायरी, उनके साथियों के संस्मरण, उनके जीवन के अनगिनत किस्से बताते हैं कि चंद्रशेखर सियासत को सेवा मानते थे, सत्ता का खेल नहीं। उनका छह दशकों का लंबा सार्वजनिक जीवन इस बात का सबूत है कि सियासत के केंद्र में संवेदना और सरोकार मूल है।

 

चंद्रशेखर ग्रामीण परिवेश से आते थे। ताउम्र देशज चेतना से लैस रहे। खेत-खलिहान और संघर्ष जीवन की पहली पाठशाला रहे। शायद माटी से इसी जुड़ाव ने उन्हें वह संवेदनशीलता दी, जो बाद में उनके व्यक्तित्व की पहचान बनी। जीवन की यह सीख किताबों से नहीं, बल्कि लोगों के बीच रहकर, उनके दुख-दर्द को समझकर मिली। कहते भी थे कि किताबों से पढ़कर हमने समाजवाद की सीख नहीं पायी, जीवन की वेदना-दुख-अभाव की पाठशाला में सब सीखा।

 

सत्ता के शिखर पर भी वह नहीं बदले। कोई सहयोगी बीमार पड़ता, तो साथ में अस्पताल जाते। जेपी बीमार थे। मुंबई के जसलोक अस्पताल में भर्ती। चंद्रशेखर, जेपी के साथ रहे। उनके लिए हर इंसान मायने रखता था। कोई औपचारिकता नहीं। कोई दूरी नहीं। चंद्रशेखर के सहयोगी थे, गौतम। बीमार पड़े। साथ लेकर हैदराबाद गए। इलाज कराया। रामधन (विश्वविद्यालय के दिनों से चंद्रशेखर के साथी) गंभीर रूप से बीमार पड़े। चंद्रशेखर उन्हें देखने और कुशल क्षेम पूछने अक्सर अस्पताल जाते। जाते समय तकिए के नीचे रुपये रख आते। याद रखें, 1989 में रामधन ने कई बार सार्वजनिक रुप से न सिर्फ चंद्रशेखर का विरोध किया, बल्कि उनके खिलाफ भाषण और बयान भी दिया। पर, चंद्रशेखर ने इन सब बातों का कभी बुरा नहीं माना। जेपी के सहयोगी जगदीश बाबू बीमार पड़े। उन्होंने, जगदीश बाबू का इलाज करवाया। उनके साथ अस्पताल में दस दिन का समय बिताया। यह कोई छोटी बात नहीं थी। देश के कोने-कोने में ऐसे अनेक सामान्य कार्यकर्त्ता व बड़े नेता भी रहे हैं, जिनके लिए चंदा मांग कर महंगा इलाज कराया। बेहतर से बेहतर चिकित्सा। हवाई जहाज से ला कर भी।

 

एक बार एक गरीब कार्यकर्त्ता उनके घर आया। झोले में गुड़ लाया। चंद्रशेखर, घर पर नहीं थे। लौटे। स्टाफ से पूछा। झोला देखा। कार्यकर्ता को चाय पिलाने को कहा। फिर उसे अपनी गाड़ी में बिठाया। उसके गाँव गए। मिट्टी का घर। टूटी चरपाई। कार्यकर्त्ता हड़बड़ा गया। चाय बनाने को कहा। चंद्रशेखर बोले, ‘तुम्हारा गुड़ है। पानी मँगाओ। तुम्हारे हाथ से खाऊँगा।’ फिर उसे साथ ले गए। बाद में सहयोगियों को बताया, ‘इनके साथ मेरठ में साइकिल पर गाँव-गाँव घूमता था। रात को यहीं रुकता था।’ यह सादगी थी। यह आत्मीयता थी। यह थे, चंद्रशेखर।

ऐसे कई उदाहरण हैं। 1984 में युवा समाजवादियों का सम्मेलन था। चित्रकूट में। चंद्रशेखर उद्घाटन करने आए थे। शरद यादव, सुरेंद्र मोहन, सुबोधकांत सहाय जैसे नेता मौजूद थे। तभी पास में एक किसान के घर में आग लग गई। चंद्रशेखर सम्मेलन छोड़कर दौड़े। आग बुझाने में जुट गए। उनकी देखादेखी सब जुट गए। एक किसान का घर उनके लिए किसी सभा से ज़्यादा कीमती था। यह थी, उनकी प्राथमिकता। यह थी, उनकी मानवीयता।

 

उनकी जेल डायरी में ऐसे कई किस्से हैं। आपातकाल में जेल की सलाखों के पीछे भी वे दूसरों का ख्याल रखते। साथी कैदियों की छोटी-छोटी ज़रूरतें पूरी करते। कभी किताब, कभी ज़रूरी सामान। यह उनकी करुणा थी। आपातकाल के दिनों की बात है। चंद्रशेखर पटियाला जेल में बंद थे। उसी जेल में राजू नाम का एक युवा कैदी भी था। किसी मामूली अपराध में बंदी। जमानत के पैसे नहीं थे। वरना वह बाहर होता। चंद्रशेखर अपनी जेल डायरी (02 जून, 1976) में लिखते हैं, ‘आज यहां पर साथ रहने वाले बंदी राजू से उसके मां-बाप के बारे में पूछा। पहले कतराता रहा। फिर इधर-उधर की बातें कीं। जब मैंने सच-सच बताने को कहा तो फूट-फूट कर रोने लगा। बाद में उसने जो कहा, उससे मैं सोचता रहा, कितना सीख देता है जीवन का अनुभव मनुष्य को। उसका कहना था कि मां-बाप की याद उसके लिए केवल रुलाई लेकर आती है। इसलिए नहीं कि उनसे प्यार है, ममत्व है, बल्कि बचपन की याद बहुत पीड़ा और करुणा भरी है।’

 

चंद्रशेखर ने राजू की जमानत राशि की व्यवस्था की। वह अपनी डायरी में आगे लिखते हैं, ‘राजू की रिहाई का दिन था। पांच सौ रुपये जुर्माना करने पर वह जेल से रिहा हो जाता। रुपये मनीआर्डर से त्यागी जी ने कुछ दिन पहले भेज दिये थे। किंतु राजू की राय बनी कि अभी कुछ और प्रतीक्षा करेगा। यदि हो सका तो मेरे साथ ही बाहर जायेगा। किंतु उसे आज असिस्टेंट सुपरिटेंडेंट ने बुलाकर कहा कि उन्होंने उसका जुर्माना भर दिया है और यह दस मिनट में जेल से बाहर जाने के लिए तैयार हो जाये। उसके लिए यह अत्यंत अप्रत्याशित बात थी, क्योंकि यहां लोगों का ख्याल था कि जुर्माना भरने के लिए उसे दरखास्त देनी होगी कि उसके पीपी में जो पैसा जमा है, उसे जुर्माने में दाखिल कर लिया जाये। किंतु उसे तो रिहाई का आदेश सुना दिया गया, कहां जायेगा छूटकर इस भरी दुनिया में उसका कोई नहीं। यह जब मेरे पास यह सूचना देने आया, तो उसके मन की पीड़ा उसके चेहरे पर स्पष्ट रूप से अंकित थी। यही भाव उसके चेहरे पर उस दिन भी दीख पड़ता था, जब उसने बड़ी बेबसी भरी आवाज में कहा था कि उसका पांच सौ रुपया जुर्माना कौन भरेगा? जटिल है निराश्रित होने की समस्या भी। उस दिन रुपये का अभाव था। उससे छुट्टी मिली तो फिर बाहर जाकर आश्रय पाने की समस्या। मुझे भी दुख हुआ। मैंने संदेश भेजा और असिस्टेंट जेलर आया। समस्या का समाधान निकला। राजू अभी यहीं रहेगा। यदि मुझे अधिक दिन रहना पड़ा, तो उसके लिए कुछ करना होगा। लोग मिलने आयेंगे तो बात करूंगा।’ ऐसी थी, उनकी संवेदनशीलता।

 

चंद्रशेखर, कार्यकर्त्ताओं को परिवार मानते थे। 1985 की एक घटना का उल्लेख मोहन गुरुस्वामी करते हैं। पश्चिमी महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार के लिए चंद्रशेखर गए थे। अपने उम्मीदवारों के साथ-साथ शरद पवार की पार्टी के उम्मीदवारों के लिए भी प्रचार कर रहे थे। उन्हें खटारा कार मिली थी। कुछ मील चलने पर उसका इंजन गर्म होकर बंद हो जाता था। रोककर, पानी डालकर ठंडा करना पड़ता था। ऐसी कार बिना तेल के ही मिलती। पेट्रोल का प्रबंध चंद्रशेखर ही करते। पूरे दिन उन्होंने किसानों और छोटे व्यापारियों की सभाओं को संबोधित किया। उनसे प्रभावित होकर गरीब किसान, उन्हें नगद चंदा देते थे। इनमें ज़्यादातर छोटे नोट और सिक्के होते थे। हर बार मिली राशि मोहन गुरुस्वामी गिनते। अच्छी-खासी रकम चंदे में आती। चंद्रशेखर, हर बार आदेश देते थे कि यह पैसा उम्मीदवारों को बाँट दें। पैसा कभी ज़्यादा देर नहीं रुकता। चुनावी सभाओं को संबोधित कर वे देर रात लोहेगाँव हवाई अड्डा पहुँचे। कार की ख़राबी के चलते, बम्बई की फ़्लाइट छूट गई। सोच रहे थे कि आगे क्या होगा? दोनों में से किसी के पास पैसे नहीं थे। दो घंटे में बेंगलुरु के लिए एक फ़्लाइट थी। छोटे वीआईपी लाउंज में हाथ-मुँह धोने के बाद वे लोग बैठे। इंडियन एयरलाइंस के अधिकारियों द्वारा दी गई, चाय पी। चंद्रशेखर ने मोहन गुरुस्वामी से कहा, ‘चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा।’ थोड़ी देर में इंडियन एयरलाइंस के अधिकारी आये। पूछने के लिए कि क्या हम बेंगलुरु जाना चाहते हैं? चंद्रशेखर ने उन्हें हाँ कहा। पर, यह भी बताया कि हमारे पास टिकट नहीं है। दबी आवाज़ में जोड़ा, पैसे भी नहीं हैं। इंडियन एयरलाइंस के अधिकारी ने बस इतना कहा, ‘सर, मैंने पैसे नहीं माँगे। अगर आप बेंगलुरु जाना चाहते हैं, तो मैं आपको अपनी ज़िम्मेदारी पर दो टिकट दूँगा। पैसे आ जाएँगे, मुझे यकीन है।’ दो टिकट बने। वे बेंगलुरु रवाना हुए। यह तब की बात है, जब राजीव गांधी 425 लोकसभा सीटों के साथ सत्ता में आए थे। चंद्रशेखर बलिया से अपनी सीट हार गए थे। इंडियन एयरलाइंस के अधिकारी ने बहुत ही मार्के की बात कही। कहा, ‘सर, आप चुनाव भले ही हार गए हों, लेकिन आपने अपनी विश्वसनीयता नहीं खोई है। आपके वचन की भी ज़रूरत नहीं है। आपकी कुछ मदद कर पाना अपना सम्मान मानता हूँ।’

 

1984 में चुनाव हारने के बाद चंद्रशेखर रचनात्मक-सृजनात्मक और बदलाव के कामों में लग गए। दिल्ली से दूर। सिताबदियारा में जेपी स्मारक के निर्माण के लिए सक्रिय हुए। बनवाया। राजेंद्र बाबू के गाँव, जीरादेई गए। उनके घर का जीर्णोद्धार कराया। स्मारक के तौर उसे विकसित कराने की पहल की। 1942 में बलिया आजाद हुआ था, उन शहीदों की स्मृति में शहीद स्मारक बनवाया। चंद्रशेखर ने अनेक संस्थाओं की नींव डाली। इसमें बलिया के इब्राहीमपट्टी में एक पांच सौ बेड का अस्पताल बनना था, रचना चक्र के तहत। इसी तरह बलिया में देवस्थली विद्यापीठ की नींव डाली। लगभग एक दर्जन से अधिक जगहों पर भारत के विभिन्न राज्यों और शहरों के पिछड़े इलाकों में भारत यात्रा केंद्र बनवाए। दिल्ली में युवा भारत ट्रस्ट का गठन किया। विभिन्न सामाजिक-आर्थिक मुद्दों के अध्ययन के लिए दो केंद्रों की स्थापना की। सेंटर फॉर एप्लाइड पॉलिटिक्स, नरेंद्र निकेतन (दिल्ली)। इंस्टि्यूट फार द स्टडीज इन इंडस्ट्रिएल डेवलपमेंट, वसंत कुंज (दिल्ली) व नरेंद्र वाटिका केंद्र (सारनाथ)। हरियाणा के भोंडसी (भुवनेश्वरी)में उन्होंने भारत यात्रा केंद्र बनवाया।

 

दशकों तक मीडिया से लांछित होते रहे कि भारत यात्रा ट्रस्टों के माध्यम से कई हजार करोड़ की संपत्ति एकत्र की है। निजी परिवारिक संपत्ति बना लिया है। चंद्रशेखर ने कभी इनका उत्तर नहीं दिया। कहते, ‘अगर मैं सही हूं, तो षड्यंत्रों, कुचक्रों, झूठ के बादल छटेंगे।’ तथ्य यह है कि भारत यात्रा ट्रस्ट (जिसके केंद्र भारत के विभिन्न शहरों में बने) में अपने परिवार के किसी सदस्य को रखा ही नहीं। सभी जगहों पर स्थानीय कार्यकर्ता या राष्ट्रीय नेता थे। आजीवन अपने परिवार के किसी व्यक्ति को न टिकट दिया, न राजनीति में उतारा। मृत्युशय्या पर थे, तब 19 मई 2006 को तत्कालीन प्रधानमंत्री के पास पत्र भेजा। उन्होंने जो भी ट्रस्ट बनाए हैं, उसकी सारी संपदा पब्लिक प्रॉपर्टी के रूप में तब्दील कर दी जाए। सरकार उसका अधिग्रहण कर ले। इच्छा व्यक्त की कि ये संस्थाएं या ट्रस्ट जनता से एकत्र पैसे से बने हैं, इसलिए उनके न रहने पर यह सब देश को ही वापस जाना चाहिए।

आज चंद्रशेखर की पुण्यतिथि है। उन्हें खासतौर पर याद करने का दिन। सार्वजनिक जीवन में आचरण, व्यवहार, मर्यादा, शुचिता और इन सब से बढ़ कर राष्ट्र के प्रति समर्पण व सेवा भाव की प्रेरणा हम, उनके जीवन चरित्र से ले सकते हैं।

 

-श्री हरिवंश, उप सभापति, राज्यसभा के फेसबुक वॉल से साभार।