Khagaria। जाने कहाँ गये वो दिन/मारूति नंदन मिश्र

सुबह होती है। शाम होती है। यूँ ही जिंदगी तमाम होती है। दिन बदलते जाते हैं। नई चीजें आती है और पुरानी  छूटती चली जाती हैं। लेकिन जब कभी पुरानी वस्तुओं को देखता हूँ तो भूली बिसरी यादें ताजा हो जाती हैं। वर्ष 1990 चारपाई पर बैठे-बैठे दादाजी ग्रामोफोन पर समाचार सुन रहे थे। मुझे भी सुनने बैठा लिये, सुनो कहां क्या हो रहा है, भूकंप से ईरान में हजारों लोग मारे गए। घर में टीवी नहीं था, दादाजी- दादाजी आज रविवार है , 9 बजने ही वाले हैं जल्दी से चलिये महाभारत देखने, आज पता है आज फिर युद्ध होगा, मैंने कहा।बस उनके साथ चल दिये महाभारत देखने। महाभारत में भीम का गदा और भगवान श्री कृष्ण का चक्र ज्यादा अद्भुत लगता था। बच्चे बूढ़े की भीड़ से कमरा खचा-खच भरा हुआ रहता था, बचपन का समय था कहानी कुछ समझ में नहीं आता, नीचे जमीन पर बैठकर सिर्फ टुकुर- टुकुर फोटो देखते रहता। दादाजी को घर वाले चाय और बैठने के लिये कुर्सी भी देते। रविवार शाम चार बजे फिर फिल्म देखने चले जाते , एक दिन फिल्म ‘धर्म करम’ का गाना ‘एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल’ सुनकर रोज घर में गाया करता। शाम होते ही दोस्तों के साथ अक्कड़-बक्कड़ बम्बे बोल, छुपम-छुपाई, कबड्डी, चोर-सिपाही, गिल्ली-डंडा जैसे तमाम खेल खेलना शुरू कर देते। अब वो खेल बच्चे खेलते नजर नहीं आते हैं। आज के बच्चों का बचपन और आउटडोर खेल इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों ने कहीं न कहीं छीन लिया है। स्कूल के दिनों में घर से अनाज वाला खाली बोरा और एल्युमिनियम से बना बस्ता (स्कूल बैग) लिये चल देता था। आजकल के बच्चे का बस्ता साल भर भी नहीं टिक पाता, उस समय का अभी तक यूँ ही रखा हुआ है। 1978 में आई भीषण बाढ़ के कारण पुराना घर गंगा नदी में समा गया था, उस वक्त वहाँ बिजली था, परंतु नये जगहों पर बसे गांव में डिबिया, लालटेन, लेम्प, टॉर्च का ही सहारा था। कईयों बार पढ़ते पढ़ते लालटेन, लैम्प से जल भी जाता। बड़े आयोजन भोज-भात, शादी-विवाह और नाटकों में पेट्रोमैक्स की रौशनी से अंधियारे को दूर भगाया जाता था। पेट्रोमैक्स भी सभी घरों में नहीं रहता था। आयोजन में आस-पड़ोस से पेट्रोमैक्स, चौकी, विछावन सब मांग कर कोई भी कार्यक्रम सफल होता था। गांव के लोग व्यक्तिगत समारोह को भी सामाजिक कार्य मानते हुए बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। फिर समय बदला और गैस लाइट, जेनरेटर, टैंट हाउस का जमाना आ गया। आंगन में धुंआ फैलने से समझ जाते की माँ खाना बना रही हैं। उस खाने का स्वाद अब मिलना मुश्किल है। वर्ष 1994 में घर में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी भी आ गया, अपना टीवी पहली बार देखकर जो आनंद आया था वो आज के जमाने के एलईडी टीवी को देखकर नहीं आता। उस वक्त बिजली नहीं रहने से ज्यादा आनंद नहीं ले पाते थे। दूसरे गॉंवों से बैट्री चार्ज कराकर शुक्रवार को लाते थे। तीन दिवसीय दूरदर्शन कार्यक्रम का सब बड़े-छोटे मिलकर आनंद लेते थे जिसमें रंगोली, फीचर फिल्म, शक्तिमान, चंद्रकांता, अलिफ़्लैला सब था। एंटीना घुमाने में तो खुद को वैज्ञानिक समझते थे, किस दिशा में रखेंगें की फोटो सही दिखेगा। शक्तिमान में “छोटी छोटी मगर मोटी बातें” शक्तिमान के द्वारा बताई जाती थी| जिसे सारे बच्चे बड़े ध्यान से देखते और मानते भी थे। रविवार की सुबह रोमांचक सीरियल चंद्रकांता को देखने का एक अलग ही अनुभव हुआ करता था क्रूर सिंह यक्कू का किरदार खलनायक का था फिर भी उसके संवाद,पहनावा रोज याद करता था। दादाजी के जमाने की कुर्सी लगभग 80 वर्ष पुरानी, इसे आराम कुर्सी भी कहा जाता है। अगर एक बार बैठ गए तो दुबारा इसपर से उठने का मन नहीं करता। फिर समय बदला बर्ष2000 में टेपरिकार्डर खरीद घर ले आया। गाना सुनने से ज्यादा आवाज रिकॉर्डिंग करके सुनने का आनंद ही कुछ अलग था।सूचना आदान-प्रदान के लिये एक मात्र साधन पोस्टकार्ड हुआ करता, जब कभी पोस्टमैन घर आता मन खुश हो जाता, चाहे संदेश अच्छा हो या बुरा। फिर टेलीफोन घर में लग गया टर्न टर्न टर्न की आवाज से आस-पड़ोस के लोगों को भी पता चल जाता कि किसी का फोन आया। जिसके घर में टीवी और टेलीफोन रहता वो अपने आप पर गर्व महसूस करता था। पुरानी यादों को ताजा करने के लिए अब तो एक ही गीत याद आता है ‘ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी।”

ये सच है कि वक्त के साथ दुनिया बदलती है, विकास होता है, हमारी सोच और आदतें बदलती हैं, प्राथमिकताएं बदलती हैं… इन बदली हुई प्राथमिकताओं में कई बार हमसे वो चीज़ें पीछे छूट जाती हैं, जो कभी हमारी ज़िंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करती थीं…

मारूति नंदन मिश्र