Bhagalpur। जीवनदायी पीपल वृक्ष का जीवन खतरे में/ मारूति नंदन मिश्र

भागलपुर जिलान्तर्गत बरारी गंगा तट पर एक बूढ़ा पीपल पेड़ का जीवन खतरे में है। वह हर आते-जाते को अपनी निःशब्द कहानी सुना रहा है। मैं ‘पीपल’ हूँ। बहुवर्षीय एक विशालकाय वृक्ष हूँ। जीवों के स्वास्थ्य के लिए भी अतिउपयोगी हूँ। पवित्र नदी गंगा के आबोहवा में कब बड़ा हो गया, पता ही नहीं चला। मैं ज्यों ज्यों बढ़ता गया मेरी महत्ता भी बढ़ने लगी। लोग मुझे पूजने लगे थे, शायद उन्हें मुझ में भगवान का रूप दिखता होगा। मेरी ठंडी छाया यहाँ आये लोगों के लिए संजीवनी थी। कहा भी जाता है कि खुशी के समय जल्दी बीत जाते हैं। अंतोगत्वा समय बीतता गया और मैं बूढ़ा हो गया। सारी स्मृतियां पीछे छूट गई। अब सामने निर्मम वर्तमान पड़ा है। मैंने दुनिया के हर अनुभव को जीया है, मेरी हरेक शाख सैकड़ों खुशी-गम की कहानियों को जीते हुए आगे निकला। साहब लोग नाव से गंगा का निरीक्षण करते गुजरते रहते है और मैं इसी जगह टुकुर-टुकुर निहारता रहता। मेरी बातें कोई नहीं करता, बातें होती थी मेरे ठीक बगल मे सीढ़ी घाट मंदिर के ऐतिहासिकता की, उसकी खूबसूरती की। इस बात का मुझे कभी कोई तकलीफ भी नहीं। मैंने कभी खुद को मुरझाने नहीं दिया। मेरी जड़ें गंगा के निर्मल जल का सेवन कर अमरता का आशीष जो ले रखी थी। जड़ें अमर हो, तो उसकी कोपलें, पत्ते, डालियां कैसे कमजोर हो सकती थीं। जब तलक गंगा निर्मल थी, तन कर खड़ा था मैं बुजुर्ग पीपल। हजारों आंधियों, गुबारों, चक्रवाती तूफानों, भूकंपों से भी लड़ते हुए खुद के अस्तित्व को खोने नहीं दिया। गंगा के पानी रूपी अमृत का हमेशा पान करनेवाले मुझको आखिर किस बेदर्द की नजर लग गयी! मैंने तो अपनी छांव से पूरे शहर को बचाने की ताउम्र कोशिश की, लेकिन कहते हैं न कि जैसा खाओगे वैसा ही बन जाओगे। कभी इस साहिल पर खड़े लोगों को अपना बना लेती है, तो कभी उस तट पर आनेवालों के चेहरे की मुस्कान। मेरे साथ भी शायद कुदरत की ऐसी ही नाखुशी झेलने का बुरा वक्त आ गया था। हमने भी उस नाखुशी के जलते अंगार को हवा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। गंगा मेरी जड़ों को छोड़ कहीं दूर जा चुकी थी। तट पर बहने के लिए छोड़ दिया गया शहर के जहरीले नाले को।
अमृत का पान करनेवाली जड़ें अब विषपान करने लगी। भूख से कोपलें फूटनी बंद न हो जाये, पत्ते झरझराते हुए गिरने न लगे, इसलिए जड़ों ने विष ही पीना शुरू कर दिया। आखिर कितने दिनों तक ये डाली अपने आप को तंदुरुस्त बना कर रख पाती। कभी सहारे का पर्याय हम जिसे कहते थे, एक दिन बेचारगी के आंसू रोने लगे। खुद के आधे धड़ सहित अपने आधे अस्तित्व को आखिरकार खो ही दिया। मेरी बूढ़ी आंखें इन्हें देख निर्झर हो चली हैं। मेरी आत्मा अब रो रही है। मैं अब इस वर्तमान को नहीं देखना चाहता। वन एवं पर्यावरण विभाग द्वारा कोई उपाय नहीं किया जा सका। बर्षों बीत गए डगमगाये हुए। विषधर नाले के जहर आज भी हजारों पेड़ों की रगों में जहर घोल रहे हैं। प्रश्न सिर्फ इतना है…और कितने बुजुर्ग पेड़ जहर पीयेंगे, कितनी सांसों को कम होते देखेंगे ?

मारूति नंदन मिश्र

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