NMM बौद्ध धर्म को जानने-समझने में है पालि लिपि का महत्व : डॉ. ललन प्रसाद अद्री

*बौद्ध धर्म को जानने-समझने में है पालि लिपि का है महत्व : डॉ. ललन प्रसाद अद्री*

पालि एक प्रमुख लिपि है। पालि का सामान्य अर्थ नीचे लटकने वाले कोमल मांस-खंड, जिसमें छेद करके बालियां आदि पहनी जाती हैं अथवा किसी चीज का किनारा या कोना है। कुछ विद्वानों के अनुसार पालि पालन शब्द से बना है, जिसका अर्थ है- पाल- पोसकर बड़ा करना अथवा नियम के अनुसार अवलंबन या प्रयोग करना। पालि को ‘पाटलि’ का संक्षिप्त रूप है।

यह बात पार्वती विज्ञान महाविद्यालय, मधेपुरा में प्राचीन इतिहास के प्रोफेसर एवं विश्वविद्यालय के विकास पदाधिकारी डॉ. ललन प्रसाद अद्री ने कही। वे तीस दिवसीय उच्चस्तरीय राष्ट्रीय कार्यशाला में व्याख्यान दे रहे थे। संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के अंतर्गत संचालित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र की राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन योजना के तहत यह कार्यशाला केंद्रीय पुस्तकालय, भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा में आयोजित हो रही है।

*ब्राह्मी परिवार की लिपि है थी पालि*
उन्होंने बताया कि पालि ब्राह्मी परिवार की एक प्रमुख लिपि है और इसमें मुख्यत: बौद्ध धर्म के संस्थापक भगवान बुद्ध के उपदेशों का संग्रह है। पालि के ज्ञान के बगैर बौद्ध धर्म का ज्ञान अधूरा है।


*पालि की प्रमुख पांडुलिपि है त्रिपिटक*
उन्होंने बताया कि पालि की प्रमुख पांडुलिपियों में बौद्ध त्रिपिटक सहित कई महत्वपूर्ण ग्रंथ शामिल हैं। सर्वप्रथम बुद्धघोष द्वारा पांचवीं सदी में रचित ग्रंथ में पालि शब्द का प्रयोग किया गया है।

उन्होंने बताया कि पालि बिहार से पश्चिम में हरियाणा-राजस्थान तक, उत्तर में नेपाल-उत्तरप्रदेश तक और दक्षिण में मध्यप्रदेश तक बोली जाती थी। भगवान बुद्ध भी अधिकांशतः इन्हीं प्रदेशों में विचरण करते हुए लोगों को धम्म का उपदेश देते रहे। पालि पर कोसल, मगध, काशी, पांचाल, करू, वत्स, सुरसेन, शाक्य, कोलिय, मल्ल, वज्जी, विदेह, अंग आदि जनपदों एवं गणों की प्रादेशिक बोलियों का प्रभाव था।

*चित्रात्मक रूप में अभिव्यक्ति करना मुश्किल*

दूसरे विशेषज्ञ वक्ता आर. एम. कालेज, सहरसा में मैथिली विभागाध्यक्ष सह सीनेटर डॉ. डी. एन. साह ने कहा कि लिपि का प्राचीनतम रूप चित्रात्मक है। प्राचीन काल में मनुष्य जिस वस्तु को लिपिबद्ध करना चाहता था, उसका चित्र बना देता था, लेकिन इसमें बहुत कठिनाई होती थीं। खासकर प्रेम, दया करुणा आदि भावों को चित्रात्मक रूप में अभिव्यक्ति करना मुश्किल होता था।

उन्होंने बताया कि चित्रात्मक लिपियों की कठिनाइयों को दूर करने के लिए ध्वनि लिपि का विकास हुआ। प्रत्येक ध्वनि का अलग-अलग वर्ग प्रतीक निश्चित किया गया।

डीएसडब्ल्यू डॉ. पवन कुमार ने कहा कि आगे भी नियमित अंतराल पर ऐसी कार्यशाला का आयोजन किया जाना चाहिए।

कुलानुशासक डॉ. विश्वनाथ विवेका ने कहा कि इस कार्यशाला में विभिन्न विश्वविद्यालयों के बाह्य विशेषज्ञों के आगमन से विश्वविद्यालय की गरिमा बढ़ी।

सीसीडीसी डॉ. इम्तियाज अंजुम ने कहा कि यह कार्यशाला शिक्षकों एवं शोधार्थियों को पांडुलिपियों के संरक्षण के प्रति जागरूक करेगा।

व्याख्यान के बाद विशेषज्ञ वक्ता को आयोजन समिति की ओर से अंगवस्त्रम्, पुष्पगुच्छ एवं स्मृतिचिह्न भेंटकर सम्मानित किया।

इस अवसर पर संयोजक डॉ. अशोक कुमार, आयोजन सचिव सह उप कुलसचिव (शै.) डॉ. सुधांशु शेखर, सीएम साइंस कॉलेज, मधेपुरा के संजय कुमार परमार, पृथ्वीराज यदुवंशी, सिड्डु कुमार, डॉ. सोनम सिंह (उत्तर प्रदेश), डॉ. मो. आफताब आलम (गया), नीरज कुमार सिंह (दरभंगा), डॉ. संगीत कुमार, राधेश्याम सिंह, त्रिलोकनाथ झा, ईश्वरचंद सागर, बालकृष्ण कुमार सिंह, सौरभ कुमार चौहान, कपिलदेव यादव, अरविंद विश्वास, अमोल यादव,‌ रश्मि, ब्यूटी कुमारी, खुशबू, डेजी, लूसी कुमारी, रुचि कुमारी, स्नेहा कुमारी, श्वेता कुमारी, इशानी, मधु कुमारी, प्रियंका, निधि आदि उपस्थित थे।