ABDP सर्वोदय : एक जीवन प्रणाली #डॉ. विजय कुमार, दर्शनशास्त्र विभाग, लंगट सिंह कॉलेज, मुजफ्फरपुर

सर्वोदय : एक जीवन प्रणाली

डॉ. विजय कुमार, दर्शनशास्त्र विभाग,          लंगट सिंह कॉलेज, मुजफ्फरपुर, बिहार
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अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के 65वें अधिवेशन के सम्मानित सभापति प्रो. डी. आर. भण्डारी जी को सादर प्रणाम, परिषद् के महासचिव प्रो. ज्योति स्वरूप दुबे जी के प्रति मेरा आभार, जिन्होंने मुझे यह अवसर प्रदान किया है। मित्रवर डॉ. जयन्त कुमार जी, डॉ. रवीन्द्र टी. बोरकर जी एवं डॉ. सुरजीत कुमार सिंह जी को मेरा सादर नमस्कार एवं तरंगाधारित पटल पर जुड़े हुए विद्वतजन एवं शोधार्थियों को मेरा अभिवादन।


आज समाज-दर्शन विभाग में जितने भी पत्र पढ़े गए, उनकी समयाभाव के कारण अलग-अलग समीक्षा करना संभव नहीं है। फिर भी जो भी शोध-पत्र पढे गए, उनमें अधिकांश पत्रों के केन्द्र में सर्वोदय का ही वास रहा। चाहे वह समाजवाद के रूप में रहा हो, या साम्यवाद के रूप, चाहे अन्त्योदय की अवधारणा के रूप में हो या आत्मवत सर्वभूतेषु के रूप में। वस्तुतः सर्वोदय कोई सिद्धान्त नहीं है, बल्कि एक दृष्टि है जिसके मूल में समता, समभाव, समदृष्टि समाहित है। जैसा कि दो दिन पूर्व प्रोफेसर राजीव रंजन सिंह जी ने ‘समज’ और ‘समाज दर्शन’ की बहुत ही अच्छी व्याख्या की। समज और समाज दर्शन ‘समूह’ के अर्थ को द्योतित करते हैं। लेकिन यहाँ हम समाज की बात करेंगे। हमारे समक्ष तीन शब्द आते हैंं- समाज, सामाजिकता और सामाजिक। इन तीन शब्दों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। जिस व्यक्ति में सामाजिक भावना होती है, उसे सामाजिक कहा जाता है। और सामाजिकता क्या है वह उसका धर्म है। जिस मनुष्य में सामाजिकता नहीं होती, उसे हम समाज दर्शन की दृष्टि में मनुष्य कहने में संकोच करना चाहेंगे। कारण कि सामाजिकता से समता का विकास होता है और समता सर्वोदय की पृष्ठभूमि है।


समता किसी भौतिक तत्त्व का नाम नहीं है, बल्कि मानव मन की कोमल वृत्ति है। उस कोमलवृत्ति से समता की उत्पत्ति होती है और क्रूरवृत्ति विषमता को उत्पन्न करती है। समता जीवन है और विषमता मरण। मरण कोई नहीं चाहता। रह गई समता की बात,  तो समता का महल मैत्री, प्रमोद, कारुणा एवं मध्यस्थ-भावना रूपी खम्बे पर बनता है। अब प्रश्न होता है- सर्वोदय क्या है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि सर्वोदय एक आदर्श है, एक दृष्टिकीण है- एक जीवन प्रणाली है।                            जहाँ तक समाजवाद का प्रश्न है तो उसका उद्देश्य एक वर्गहीन समाज की स्थापना है। वह वर्तमान समाज का संगठन इस प्रकार करना चाहता है कि परस्पर विरोधी स्वार्थ वालों शोषक, शोषित तथा पीड़क और पीड़ित के संघर्ष का अन्त हो जाए. समाज, सहयोग और सह-अस्तित्व के आधार पर संगठित व्यक्तियों का एक ऐेसा समूह बन जाए, जिसमें एक सदस्य की उन्नति का अर्थ स्वभावतः दूसरे सदस्य की उन्नत्ति हो और सब मिलकर सामूहिक रूप से परस्पर उन्नति करते हुए जीवन व्यतीत कर सकें।

आज के युग में गाँधी जी ने सर्वोदय की स्थापना की और आचार्य विनोबा ने उसकी विशद व्याख्या की। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि सर्वोदय इनसे पूर्व कभी था ही नहीं। यदि हम जैन धर्म-दर्शन पर दृष्टि डालें तो वहाँ सर्वोदय तो जैन धर्म-दर्शन के मूल में है। इसके लिए हमें धर्म के मूल तक पहुँचने का प्रयत्न करना चाहिए। किन्तु यह तभी संभव होगा जब पहले बुद्धि के स्वतंत्र विचारों से शुद्ध कर लिया जाए। हम दूसरों के विचारों को सुनकर उससे प्रभावित हो जाते हैं और अपने विचारों का विकास नहीं करते हैं। हमारा धर्म एक त्रिवेणी की भाँति है, जिसमें ज्ञान, कर्म और भक्ति की धाराएं प्रवाहित होती हैं। इसमें भी मानव भक्ति एक निराली साधना है। एक अजब पंथ है, इसलिए धर्महीन नीति को अपनाने में मानव का लाभ नहीं है। हमारे धर्म में मानवता के व्यापक स्वरूप का आख्यान हुआ है। उदार चरित्र एवं ‘परस्परपरग्रही जीवानाम्’ सर्वोदय का आधार है। परस्परपग्रही जीवानाम् रूपी बीज मंत्र से ही सर्वोदय रूपी सिद्धान्त का विकास हुआ है। सर्वोदय का अभिप्राय होता है- सबका उदय। यहाँ केवल व्यक्ति ही नहीं, बल्कि समाज का भी उदय संदर्भित है। और, जब व्यक्ति तथा समाज का उदय होगा तो स्वाभाविक है कि राष्ट्र का भी उदय होगा। सर्वोदय का जब भी नाम आता है हम महात्मा गांधी का नाम लेते हैं। गांधी ने बिना किसी भेद-भाव के सबके विकास की कामना की। उन्होंने अधिक से अधिक के विकास की बात को स्वीकार नहीं किया। क्योंकि इसमें उन्हें अल्पसंख्यकों की उपेक्षा नजर आ रही थी। अतः उन्होंने सबका विकास चाहा। आज गांधीजी नहीं है लेकिन आज सभी मानव हृदय में गांधी के विचार जीवित हैं।

वस्तुतः सर्वोदय की अवधारणा मूलतः जैन धर्म की है। यहाँ भी हम यह स्पष्ट करना चाहेंगे कि जब जैन धर्म में सर्वोदय की अवधारणा की बात आती है, तो हम जैन संत स्वामी समन्तभद्र का नाम लेते हैं। उन्होंने युक्त्यानुशासन में ‘सर्वोदय तीर्थ’ शब्द का प्रयोग किया है। कहा है-
“सर्वान्त वत्तद्गुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथ्यऽनपेक्षम्। सर्वा पदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदय तीर्थमिदं तवैव। युक्त्यानुशासन।” 61
अर्थात् हे भगवन आपका तीर्थ जिसके द्वारा संसार समुद्र को तिरा जाता है, यही सब प्राणियों के अभ्युदय का कारण तथा आत्मा के पूर्ण अभ्युदय का साधक आपका ये सर्वोदय-तीर्थ है। तात्पर्य है कि हे भगवन! आपके इस तीर्थ में, आपके इस शासन में सबका उदय है, सबका विकास है। किसी एक वर्ग का किसी एक सम्प्रदाय का अथवा किसी एक जाति-विशेष का ही उदय सच्चा सर्वोदय नहीं हो सकता। जिसमें सर्वभूत हित है, वही सच्चा सर्वोदय है।

आचार्य समन्तभद्र ने यहाँ सर्वोदय-तीर्थ का विचार-तीर्थ के रूप में प्रयोग किया है। यही धर्म तीर्थ है। यही जैन तत्त्वज्ञान का मर्म है ज¨ अनेकान्तात्मक है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अनेकान्तात्मक शैली जैन धर्म और संस्कृति का प्राण है। विश्व में जितनी भी विचारधाराएं हैं, उनकी अपनी-अपनी आधारदृष्टि है उसी आधारदृष्टि को ध्यान में रखकर सभी विचारक आगे बढ़ते हैं। जैन धर्म की अनेकान्तात्मक शैली ऐसी है जो सभी विचारों को असमन्वित कर सत्य का निरूपण करती है। यह वह सिद्धान्त है जो दुराग्रह नहीं करता। यह दूसरों के मतों का भी आदर से देखता और समझता है। सहिष्णुता, उदारता, सामाजिक संस्कृति, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और अहिंसा एक ही सत्य के अलग-अलग नाम हैं। इसी सन्दर्भ में आचार्य समन्तभद्र ने सर्वोदय तीर्थ शब्द का प्रयोग किया है। लेकिन सही अथर्थ में देखा जाए तो सर्वोदय का सामाजिक रूप, जिसका श्रेय हम महात्मा गांधी को देते हैं।


सरलता, निश्छलता, दयालुता, परदुःखकातरता, श्रद्धा एवं सम्मान की भावना कहीं बाहर नहीं मिलती है बल्कि ये आत्मगुण हैं जिन्हें विकसित करने की आवश्यकता है। यह तभी संभव है जब व्यक्ति सच्चरित्र होगा। जहाँ सच्चरित्रता होगी वहीं तीर्थ की स्थापना ह¨ सकती है। अतः जैन दृष्टि में सर्वोददय एक तीर्थ है जिसमें तरण भी है और ताल भी है। जिसमें मानव खुद भी तैर सकता है और दूसरों के तैरने की भी व्यवस्था कर सकता है। वस्तुतः सर्वोदय एक जीवन दर्शन है जिसमें जीवन की सभी अच्छाईयां निहित हैं और जो मानवता के शोषणमुक्त करने का मार्ग प्रशस्त करता है। चाहे वह वैचारिक शोषण हो या सामाजिक।
आचार्य समन्तभद्र ने जिस सर्वोदय तीर्थ की स्थापना की है वह व्यक्ति के वैचारिक शोषण से मुक्ति दिलाता है। जैन धर्म-दर्शन कहता है कि भारतवर्ष में जितने भी मत प्रतिपादित हुए हैं वे सभी प्रतिपादक की आधारदृष्टि पर केन्द्रित हैं और प्रतिपादक की आधारदृष्टि ही उसकी विशेषता होती है। प्रत्येक व्यक्ति का जीवन-दर्शन है जिसका लक्ष्य सत्यान्वेषण होता है जिसके निरूपण की अपनी-अपनी पद्धत्ति होती है। जैन दर्शन की यही दृष्टि अनेकांतात्मक है और यही आचार्य समन्तभद्र का सर्वोदय तीर्थ है।
सामाजिक शोषण के अन्तर्गत यदि हम अपने आचार एवं विचार से ‘जाति’ और ‘परिग्रह’ को हटा दे तो बहुत सारी सामाजिक समस्याएं समाप्त हो जाएंगी।

इस सन्दर्भ में हम सर्वोदय पर विचार करते हैं तो उनका सर्वोदय वैचारिक समन्वय के साथ-साथ सामाजिक समन्वय पर भी बल देता है।

आज हम सर्वोदय की विवेचना आर्थिक, राजनीतिक आदि के सन्दर्भ में भी करते हैं। लेकिन केवल रोटी का प्रश्न मुख्य नहीं है बल्कि रोटी के प्रश्न से भी बड़ा प्रश्न है कि मनुष्य अपने को पहचाने और अपनी सीमा को समझे। यदि मनुष्य अपने को नहीं पहचानता और अपनी सीमा को नहीं समझता, तो उसके लिए समाजीकरण, समाजवाद और सर्वोदयवाद सभी कुछ निरर्थक है और व्यर्थ है।