Short Story। लघुकथा/ स्मृति का निचोड़/मारूति नंदन मिश्र

लघुकथा/ स्मृति का निचोड़/मारूति नंदन मिश्र

सुबह के पाँच बज रहे थे, चिडियों की चहचहाहट सुबह होने का एहसास करा रही थी। 80 वर्षीय बूढ़ी दादी माँ रोज की भांति गंगा नदी स्नान के लिए चली गयी थी।
धर्मिक प्रवृत्ति की महिला थी, मना करने के बावजूद सुबह-सबेरे घर से एक किलोमीटर दूर गंगा नहाने चली जाती थी। मौसम चाहे कैसा भी हो, ठंड से हाड कपा देनी वाली पूस का महीना ही क्यूँ न हो। घरेलू कामों में दिन भर व्यस्त रहने के कारण शरीर में फुर्ती रहती थी, जिससे कभी अस्वस्थ नहीं हुईं थी। शायद उस दिन मनहूस दिन रहा होगा, गंगा नहाने के क्रम में नदी में बेहोश हो गई, उस वक्त वहाँ एक भला आदमी था जो घर तक पहुँचाने में मदद किया। स्थानीय डॉक्टर की सलाह पर शहर के एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया। जाँच के बाद डॉक्टर बोले कि आपकी दादी कोमा में चली गई है।

सारा परिवार गम के माहौल में डूब गया, संबंधियों, परिचितों का तांता लग गया। इस परिस्थिति में सभी अपना ‘हाजिरी’ देना चाह रहे थे, भले ही दादी कोमा में विस्तर पर निर्जीव सी पड़ी थी, और किसी से नहीं मिल पा रही थी। सीने में स्पंदन हो रहा था, शेष अंग पूर्णतया निष्क्रिय, निश्चेष्ट था। डॉक्टर कोई ठोस जानकारी नहीं दे रहे थे, और कहते कि कोमा से निकलने में दो महीने से दो साल भी लग सकता है। यह कोमा की स्थिति ऐसी होती है जिसमें जीव न जीवितों के श्रेणी में आता है और न मृतकों की। हमारा चेहरा स्याह हो गया। आशा की किरण तब दिखाई देती, जब डॉक्टर तसल्ली या झूठी सांत्वना दे रहे हो। लेकिन यहाँ तो स्पष्ट कर दिया गया कि सब कुछ नियति पर निर्भर है। मेरे चेहरे पर चिंता की रेखाएं स्पष्ट नजर आने लगी। क्या भगवान का दूसरा रूप ‘डॉक्टर’ भी दादी को नहीं बचा सकती? बार-बार मन में यही प्रश्न उठ रहा था।
दादी उसी स्थिति में पड़ी थी, मैं चौबीसों घंटे ड्यूटी दे रहा था। ईश्वर से प्रार्थना करते रहा कि दादी माँ होश में आ जाये। पूरे समर्पण भाव के साथ सेवा में जुटे रहा। मैं अस्पताल के मनहूस, उबाऊ और दमघोंटू माहौल से ऊब चुका था। बस एक चमत्कार जैसी आशा की किरण संबल प्रदान कर रही थी कि शायद दादी होश में आ जाए।
मगर भगवान के यहाँ सभी जीवों का एक निश्चित समय निर्धारित रहता है। दादी दुनिया में नहीं रही…। प्राण वायु निकलते समय मैं भी पास ही था। दादी के गैरहाजिरी का एहसास दिल तक दुखाया था। मृत्यु सत्य है इस अटल सत्य पर विश्वास नहीं हो रहा था। दादी लगातार घर के आँगन में चहल कदमी बनाये रखती थी, जाने के बाद घर का वातावरण उदास सा हो गया।

एहसास को इतनी आसानी से नहीं पकड़ा जा सकता। दृश्य दिखती हैं, घटना घटती है, अनुभव होता है और क्षण बीतते ही सब शेष हो जाता है। बचा रह जाता है केवल स्मृति का निचोड…!

मारूति नंदन मिश्र
नयागांव (खगड़िया)

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