Hindi। तारकेश्वर प्रसाद : एक अनकही कथा -5

तारकेश्वर प्रसाद : एक अनकही कथा -5

प्रेमचंद जी के यहां जैनेन्द्र जी बराबर आते रहते थे।बहुत मुद्दों पर प्रेमचंद के विचारों से इनके विचार मेल नही खाते थे,पर प्रेमचंद सुन के सिर्फ मुस्कुरा भर देते।ऐसे ही अचानक यशपाल जी भी आ गए।चाय के साथ तीनों साहित्यिक-राजनीतिक चर्चा करने लगे।तबतक बाबूजी को ये लोग जान चुके थे।यशपाल के विचार राजनीति पर केंद्रित होते ,जैनेन्द्र और प्रेमचंद ध्यान से सुनते और सिर हिलाते।बोलते-बोलते वे रोष में आ जाते।होठों के कोरों से झाग -सा निकलने लगता और ऐसा लगता मानों वे भाषण दे रहे हों और अधिक जोश में आ गए हों।उनकी देशभक्ति और आजादी की लड़ाई में सक्रिय भागीदारी के सभी गवाह थे।हालांकि प्रेमचंद आदर्श गांधीवादी थे,पर यशपाल जी के सामने अपने विचारों से ज्यादा उन्हें तवज्जो देते थे।यशपाल जी के जाने के बाद बाबूजी से बोलते कि ये हृदय का बहुत साफ है और आजादी के लिये जान देने का भी साहस है ,पर ,अपनी बात को सहज से बोलना इसे गंवारा नहीं।बहुत उग्र है।पर,सोना है,खरा सोना ! आचार्य शिवपूजन सहाय बनारस मेन सड़क पर आफिस चाहते थे ,खुल गया।पर बिक्री थी नही उतनी।जागरण साप्ताहिक और हंस मासिक ,दोनों का साथ- साथ निकलना,आफिस का मुख्य बाजार में आना ,किराया देना भारी होता जा रहा था।प्रेमचंद ,आचार्य जी की बात उठाते नही थे ,पर परिस्थितियां बदल रही थीं।प्रेमचंद का मन विचलित हो रहा था।तारकेश्वर बाबू महसूस कर रहे थे।दिनभर की आपाधापी के बाद रात को जब शांति होती तो प्रेमचंद इन्हें सोने बोलते और खुद अपने कमरे में जाते और लंबी कॉपी और स्याही वाली कलम लेकर बिस्तर पर पेट के बल लेट जाते।सीने के नीचे तकिया रखते और लिखने भिड़ जाते।तारकेश्वर बाबू दूसरे कमरे से देखते-देखते कब सो जाते,पता नही चलता।
6 -7 महीने कैसे बीत गए ,पता नही चला!,दूसरी बात, कई तत्कालीन साहित्यकारों से इनकी मुलाकात हुई।दुलारे लाल भार्गव ” सुधा” निकाल रहे थे ,उसमे भी कई रचनाएँ छपीं।अंततः वहां से तारकेश्वर बाबू पुनः भागलपुर लौट आये ।
तब तक इतने लेखकों/पत्रकारों से मिल चुके थे कि रचनाओं/कहानियों की मांग आती रहती ,ये पूरी करते रहते।इनके भागलपुर आने के बाद साथियों की सक्रियता इस घर मे बढ़ जाती।मेरे दादा-दादी नाक-भौं सिकोड़ते पर ,बाबूजी जिद्दी थे , ज्यादा होता तो वे घर मे खाना छोड़ देते।मां-बाप सबकुछ बर्दाश्त कर सकते हैं ,बेटे का भूखा रहना नही।बड़े भाई बहुत सख्त मिजाज थे पर भाभी इन्हें बहुत मानती थीं।भागलपुर के मुंदीचक में एक रसूखदार परिवार से आई थीं । सरल स्वभाव और मिलनसारिता की मिसाल थीं।घर मे बाबूजी अगर किसी की सुनते,तो बस उनकी ही।दादी ने उन्हें शादी के लिए तारकेश्वर बाबू को मनाने की जिम्मेदारी दी।और ये उन्हें मना लेते।बाबूजी कहते थे कि वो इन्हें पुत्रवत मानती थीं।
तारकेश्वर बाबू के मामा भागलपुर के नामी वकील थे।नाम था -श्री राजेश्वरी प्रसाद । दादी से छोटे थे ,पर दादी उनकी इज्जत भी करतीं और प्यार भी। राजेश्वरी बाबू से छोटे जो मामा थे ,जिन्हें ये शीरो मामा पुकारते थे ,उनसे इनका मित्रवत संबंध था। सबसे बड़े मामा के पुत्र दीना चाचा भी इनके हमउम्र थे।बाबूजी बात-चीत के क्रम में बताए ,कुछ इस तरह !—
एक दिन ये तीनों ऐसे ही आपस मे घर के आगे ड्योढ़ी (हमलोग उसे इष्टि बोलते थे) में बैठे गप्प कर रहे थे कि एक लाल आँखोंवाला ,बड़ी जटाओं और जटीली दाढ़ियों वाला , काले कपड़ों में लिपटा बड़े चमटे फटकारता सड़क से जा रहा था।इनलोगों को देखकर चिमटा फटकारता पास आया और अपनी औघडी शक्तियों का बखान कर डराने और घर से पैसे लाने को बोला।ये तीनों अकड़ गए कि नहीं देंगे कुछ ,पहले अपनी औघडी शक्ति दिखाओ।चलो भूत दिखाओ।वो बोला अभी शाम है ,भूत रात में ,आधीरात में आते हैं।तो इन्होंने उसे ललकार दिया कि झूठ बोलते हो तुम ,भूत होता ही नही ,अगर तुम अघोरी हो तो अभी दिखाओ वरना तुमसे बड़े अघोरी हैं हम।बेहाल कर देंगे।तीन हट्टे-कट्टे ,वाचालों के बीच वो फंस चुका था।पीछा छुड़ाने की बहुतेरी कोशिश की पर इन तीनों ने पीछा नहीं छोड़ा।अंततः वह बोला कि भूत देखना है तो तुमलोगों को मेरे साथ श्मशान चलना होगा और ठीक 12 बजे रात मैं तुमलोगों को भूत दिखाऊंगा और अगर डरे तो वो तुमलोगों को बर्बाद कर देगा।सोचा, ये लोग डर जाएंगे ,पर ये तीनो मामा-भांजे डरने वाले थे नही।रात होने ही वाली थी।उसे रिहा करने का मूड भी नही था तीनों का।भूत देखने की जिज्ञासा भी बली थी।हो लिए उस औघड़ के साथ।विभिन्न सड़कों पर घुमाता हुआ 11 बजे रात वो श्मशान की ओर चला।उस समय साहिबगंज मुहल्ले में टिलहकोठी के पीछे गंगा किनारे श्मशान था और उधर जाने के लिए, आज जहां यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी है,वहां जंगल हुआ करता था;दोनों ओर जंगलों के बीच पतली कच्ची सड़क थी जिसमे बीच मे ,सड़क किनारे भूत नाथ का मंदिर था।उस मंदिर के चबूतरे पर कुछ विश्राम के पश्चात श्मशान पहुंच गए सब।अर्धरात्रि होने ही वाली थी। औघड़ बुझी हुई चिताओं में कुछ ढूँढने लगा। कुछ ही क्षणों में उसे सफलता मिली और राख से कुछ उठाकर गंगा में धोया और अपने कमंडल को बीच से घुमाकर खोलता हुआ इनलोगों के पास आया।तब इनलोगों ने देखा कि कमंडल दो हिस्सों में बटा था । ऊपर के हिस्से का मुंह खुला और नीचे डब्बे की शक्ल का! उस डब्बे को खोल कर ढक्कन नीचे रखा।डब्बे से तेज गंध आई।उसमे शराब थी।जो वस्तु उसने चिता की राख से उठाई और जिसे गंगा में धोया था ,वो मानव खोपड़ी थी ,थोड़ी भग्न।उसी में शराब ढाली और एक-एक कर तीनो को पिलाया।भूत देखने की जिद्द जो न करवाये !तीनों ने सहर्ष पी लिया।औघड़ दो मिनट इन्हें गौर से देखने के बाद नदी के बिल्कुल किनारे ले गया और कुछ मंत्र बुदबुदाते हुए नदी की ओर राख फेंकी और चिल्लाया –वो देखो पिशाच ! तीनों ने आंख फाड़कर देखा।कुछ नही दिख।बोले कुछ नही है सिर्फ बहता हुआ पानी है!उस औघड़ ने वही क्रिया कई बार दोहराई ,पर कुछ नही दिखा इन्हें।औघड़ ने हथियार डाल दिये।कहा –तुमलोगों की आत्मशक्ति मजबूत है ,निडर हो ,तुम्हें भूत-पिशाच नही दिखेगा।मुझे माफ़ करो।और सब वापस लौट गए।
क्रमशः

डॉ. तुषारकांत,                                            प्रधानाचार्य, मिल्लत कॉलेज, परसा, झारखंड