भिखारी ठाकुर की पुण्य तिथि पर
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(18 दिसंबर 1887–10 जुलाई 1971)
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बैल गाड़ी पर चढ़कर मैं गया था
‘‘भिखारी ठाकुर का नाच’’ देखने
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सुरेंद्र किशोर
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बात तब की है जब मैं स्कूल में पढ़ता था।
पता चला कि डेरनी बाजार के पास के एक गांव में भिखारी
ठाकुर का कार्यक्रम होने वाला है।
बोल चाल की भाषा में उसे ‘‘भिखारी ठाकुर का नाच’’ ही कहते थे।
बिहार के सारण जिला स्थित मेरे गांव भरहा पुर(दरियापुर अंचल) के कुछ लोग उस दिन वहां जाने वाले थे।
मैं भी साथ लग गया।
भरहा पुर-खानपुर ,जहां अब अच्छा -खासा बाजार बस गया है, दिघवारा से करीब 4 किलोमीटर उत्तर बरसाती नदी के किनारे बसा हुआ है।
दिघवारा से डेरनी जाने वाली सड़क तब कच्ची ही थी।
अब तो खैर स्टेट हाइवे बन गया है।
हम लोग बैल गाड़ी से भिखारी ठाकुर को देखने गये थे।
रात भर वहीं देखते रहे।
भिखारी ठाकुर को मंच पर कार्यक्रम पेश करते हुए देखना एक सुखद अनुभव था।
भोजपुरी भाषियों के लिए वह गौरवशाली अवसर होता था।
मेरी उम्र तो बहुत कुछ समझने लायक तब नहीं थी,
पर हम लोग पूरे कार्यक्रम में मौजूद रहे।
मिरजई पहने भिखारी ठाकुर का थोड़ा झुका हुआ शरीर अब भी याद है।
पर, मंच पर उनकी फुर्ती देखते बनती थी।
उस जमाने में भोजपुरी भाषा भाषी इलाकों के लिए भिखारी ठाकुर किसी फिल्मी कलाकार से कम नहीं थे।
सस्ती के उस जमाने में एक रात का चार सौ रुपए लेते थे।
उनके कार्यक्रम का जो ‘साटा’ बंधाता था,उस कागज पर लिखा रहता था कि
‘‘मालिक आउर भगवान से बाचब, त राऊर महफिल में नाचब।’’
मालिक का मतलब स्थानीय जमींदार।
कहीं का साटा बंधा गया हो और मालिक का आदेश आ जाता था तो भिखारी ठाकुर पहले का साटा(एग्रीमेंट) तोड़ देते थे।
इसलिए अंग्रेजों के जमाने में भिखारी ठाकुर के इलाके के जमींदार की इस बात को लेकर भी बड़ी पूछ थी।
भिखारी ठाकुर की मंडली का कार्यक्रम किसी शादी -विवाह के कार्यक्रम में चार चांद लगा देता था।
मेरे बाबू जी ने एक बार कहा था कि कुछ लोग हमारे यहां इस काम के लिए भी आते थे।
वे कहते थे कि उस जमींदार साहब से चलकर कह दीजिए ताकि भिखारी ठाकुर का कार्यक्रम पक्का हो जाए।
उस जमाने में सब के वश की बात नहीं थी कि वह चार सौ रुपए रोज देकर भिखारी ठाकुर मंडली को बुलाए।
उन दिनों धनवान लोगों की बारात में ‘मरजाद’ भी रहता था।
यानी, दो दिन का कार्यक्रम रहता था।
यानी कुल आठ सौ रुपए।
कभी -कभी ही हमारे जवार के किसी गांव में भिखारी ठाकुर मंडली का कार्यक्रम होता था।
इसलिए दूर -दूर से लोगबाग नाच-नाटक देखने जाते थे।
मैंने भी तो उसी उद्देश्य से कई किलोमीटर की बैलगाड़ी यात्रा की थी।
जब मैं उनके महत्व को समझने लायक हुआ, तब तक भिखारी ठाकुर अशक्त हो चुके थे।
सन 1971 में तो उनका निधन ही हो गया था।
पर बाद में उनके बारे में पढ़ने -सुनने का मौका मिला।
लगा कि उन्हंे भोजपुरी का शेक्सपियर कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
मैंने उन्हें इस रूप में जाना कि वे लोक जागरण के संदेश वाहक थे।
वे लोक गीत और भजन – कीत्र्तन में माहिर थे।
उनकी प्रतिभा बहुमुखी थी।
किसी ने ठीक ही लिखा है कि समर्थ लोक कलाकार भिखारी ठाकुर नारी विमर्श और दलित विमर्श के उद्घोषक थे।
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(सारण जिले के दिघवारा स्थित रामजंगल सिंह काॅलेज की पत्रिका राज में प्रकाशित)
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2
भिखारी ठाकुर के बारे में
एक संस्मरण यह भी !
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यह संस्मरण मुझे रामदयाल सिंह ने सुनाया था।
रामदयाल सिंह अत्यंत विनम्र और प्रतिबद्ध समाजवादी नेता थे ।
सन 1977 में भोजपुर जिले के संदेश क्षेत्र से वह जनता पार्टी के विधायक भी बने थे।
रामदयाल बाबू एक दफा कर्पूरी ठाकुर के साथ उत्तर बिहार से पटना लौट रहे थे।
पहलेजा घाट पहुंचने पर उन लोगों को पता चला कि रात का अंतिम स्टीमर जा चुका है।(तब तक गांधी सेतु बना नहीं था।)
रात में पहलेजा घाट पर पुआल पर दोनों सो गए।
जाड़े की रात थी।
सुबह उठकर कर्पूरी जी शौच के लिए दूर खेत में चले गए।
इस बीच ‘घूरा’ यानी आग के पास कुछ ग्रामीणों से राम दयाल बाबू बातंे करने लगे।
कर्पूरी जी के प्रति रामदयाल जी के श्रद्धा भाव को देखकर एक ग्रामीण को लगा कि यह जरूर कोई बड़े आदमी हैं।
ग्रामीण- ‘‘इ के बाड़न ?’’
राम दयाल जी-‘‘कर्पूरी ठाकुर हैं।’’
ग्रामीण – ‘‘कहां के हैं और कौन जात हैं ?’’
राम दयाल बाबू-‘‘बिहार के मुख्य मंत्री रह चुके हैं।
हज्जाम में इतना बड़ा व्यक्ति कोई और नहीं हुआ ?’’
ग्रामीण-‘‘भिखारियो ठाकुर से बड़का आदमी़ बाड़न ! ?’’
अब इस पर राम दयाल बाबू क्या बोलते !
वैसे भी तब तक कर्पूरी जी पास आते दिखाई पड़ गए थे।
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10 जुलाई 24
सुरेन्द्र किशोर, पटना