Siyaram रामभक्तिनी नानी को नमन।

रामभक्तिनी नानी को नमन

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आज सप्तपुरियों में प्रथम श्रीअयोध्या धाम में प्रभु श्रीराम के बाल रूप विग्रह का प्राण प्रतिष्ठा के शुभ दिन अपनी रामभक्तिनी नानी मां (श्रीमती सिया देवी) का शुभ-स्मरण करते हुए उनके चित्र की आरती की।

नानीजी रामभक्तिनी थीं। उनकी रामभक्ति में देशभक्ति समाहित थीं। इसकी एक बानगी है कि नानी के दाएं हाथ में ‘सिताराम’ (सीताराम) और बाएं हाथ में ‘जय हिन्द’ गोदना गुदबाया था।

नानीजी एक धार्मिक महिला थीं। वे हिन्दू धर्म के सभी कर्मकांडों का पालन करती थी, तबियत खराब होने के बावजूद गंगास्नान करती थीं, शिवालय जाती थीं और जीतिया आदि सभी व्रत करती थीं। प्रत्येक मंगलवार को गाँव में होने वाले साप्ताहिक ‘सत्संग’ में भाग लेती थीं। हम दोनों की नियमित बातचीत का एक प्रमुख प्रसंग ‘सत्संग’ रहता था। वे अक्सर हमारे दरवाजे पर भी साप्ताहिक ‘सत्संग’ का प्रेमपूर्वक आयोजन करती थीं।

नानीजी की रामभक्ति उन्हें सभी लोगों से समतापूर्ण व्यवहार के लिए प्रेरित करती थीं। इसलिए वे छुआछूत एवं भेदभाव की विरोधी थीं। उनका सभी जाति एवं धर्म के लोगों के प्रति प्रेम था। हमारा दलित हलवाहा मितो एवं उनकी पत्नी हमारे पारिवारिक सदस्य जैसे थे। हमारे नानाजी के दो अभिन्न सहकर्मी स्वतंत्रता सेनानी द्वय भूमि मंडल एवं मो. सादिक नवाद अक्सर हमारे घर आते थे और नानी उन्हें प्रेम से चाय-नास्ता देती थीं।

एक खास बात यह है कि नानी कभी भी दिखाबे एवं बाह्य आडंबर में विश्वास नहीं करती थीं और किसी दूसरे पर अपनी आस्था थोपती भी नहीं थीं।

मेरे ऊपर बचपन से ही नानी का प्रभाव है। मैं नियमित रूप से पूजा-पाठ नहीं करता हूं, लेकिन करने या नहीं करने का कोई आग्रह-दुराग्रह भी नहीं रखता हूं। वैसे मुझे बचपन में जो भी पैसे आदि मिलता था, उसे मैं नानी के तुलसी चौड़ा पर स्थापित सालिग्राम की मूर्ति (जिसे मैं जय ‘जय बाबा’ कहता था) को समर्पित कर देता था। मेरी बहने मौका पाकर उसे ले लेती थीं। मेरी एक मौसी जी नानी के ठीक विपरीत पाखंडपूर्ण शुद्धतावादी की तरह व्यवहार करती थीं। इसके विरोध में मैं कई बार बार प्रतिक्रिया स्वरूप मैं उनका प्रसाद ग्रहण करने से इन्कार कर देता था। फिर वो परेशान होकर नानी की शरण में जाती थीं। नानी जी के आग्रह पर मैं इस शर्त के साथ प्रसाद लेता था कि स्नान नहीं करुंगा और कपड़े नहीं बदलूंगा। मौसी बहुत परेशान हो जाती थी, तो नानी कहती थीं कि ‘सुधान के इस बुद्धि त भगवाने जी नै देलकै- तोय प्रसाद देही नै नहबाबै पर ओतना जोर कथी लै दै छीही!”

यहां मैं अपने स्वतंत्रता सेनानी नानाजी (श्री रामनारायण सिंह) को भी याद करना चाहूंगा, जिन्हें रामायण, महाभारत एवं पुराणादि की सैकड़ों कथाएं कंठाग्र थीं। वे एक दिन भी बिना स्नान-ध्यान एवं सूर्य को जलार्पण के भोजन ग्रहण नहीं करते थे। नानी के सत्संग एवं सत्यनारायण व्रत में उनके साथ बैठते थे, लेकिन कभी भी बाह्य आडंबर नहीं करते थे।

मैं अपने दादाजी (स्व. श्री बैकुंठ प्रसाद सिंह) को भी याद करना चाहूंगा, जो कबीर की तरह फक्कड़ थे और पूजा-पाठ में बिल्कुल विश्वास नहीं करते थे। इसके बावजूद हमेशा ‘श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवा’ जपते रहते थे। अपनी दादीजी (श्रीमती सिया देवी) को कैसे भूला सकता हूं, जो नानीजी, नानाजी एवं दादाजी तीनों से अलग अत्यंत ही कर्मकांडी थीं।

 

अंत में, हमने पढ़ा है कि श्रीराम अपनी पूजा से भी अधिक अपने भक्त की पूजा से प्रसन्न होते हैं। वे अपने अपमान को हंसते हुए सहन कर लेते हैं, लेकिन आपने भक्तों एवं मित्रों के अपमान को बर्दाश्त नहीं करते हैं। एक प्रसंग में राम कहते हैं, “शिवद्रोही मम दास कहा/ सोई नर मोहीं सपनहूं नहीं भावा।” एक गाने में भी कहा गया है, “दुनिया चले श्रीराम के बिना/ रामजी मिले न हनुमान के बिना।” (अर्थात् रामभक्त हनुमान की भक्ति के बिना रामजी नहीं मिलते हैं।

संक्षेप में, अपने पूर्वजों की रामभक्ति के विभिन्न रुपों का शुभ-स्मरण करते हुए प्रभु श्रीरामचंद्रजी के श्रीचरणों में अपनी श्रद्धा निवेदिता करता हूं। संपूर्ण देशवासियों एवं चराचर जगत को बहुत-बहुत बधाई।‌ इस सांस्कृतिक यज्ञ के यजमान माननीय प्रधानमंत्री जी सहित यज्ञ में शामिल सभी मनुष्यों एवं मनुष्येतर प्राणियों को साधुवाद। “जय-जय श्रीसीताराम।”