रचनाकारों की चिन्ता
प्रेमकुमार मणि
विगत 16 दिसम्बर को पटना में आयोजित एक साहित्यिक आयोजन में भाग लेना हुआ, जिस में नए-पुराने अनेक लेखक-कवि शामिल थे. अवसर था बनारसीप्रसाद भोजपुरी सम्मान दिए जाने का. कविता और कथा विधा में किसी प्रतिनिधि रचनाकार को यह पुरस्कार दिया जाता रहा है. प्रति वर्ष इस के लिए एक साहित्यिक आयोजन भी होता रहा है. कोई 35 वर्षों से यह सिलसिला जारी है. कोरोना महामारी और कुछ अन्य कारणों से पिछले कई वर्षों से इसका आयोजन नहीं हुआ था. इस वर्ष तीन कथाकारों और तीन कवियों क्रमशः पूनम सिंह, रतन वर्मा, रामदेव सिंह, डॉ विनय कुमार, अनिल विभाकर और विनय सौरभ को इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
बड़ी बात थी समारोह में साथी लेखकों की उत्साहपूर्ण उपस्थिति. हॉल छोटा था,लेकिन उपस्थिति और उमंग से भरा हुआ. मेरी यह धारणा थोड़ी खण्डित हुई कि साहित्य हासिए पर जा रहा है. सुबह ग्यारह बजे से देर शाम तक चलने वाला यह कार्यक्रम शालीन और साहित्यिक बना रहा. शायद इसलिए कि इस में कोई राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं था. सरकारी समारोहों में मंत्री-संतरी की उपस्थिति में जो लिजलिजे स्वांग होते हैं उसे अखबारों में जगह चाहे जितनी मिल जाए,दिल में नहीं मिलती.
भोजनावकाश के समय अनेक लेखक साथियों से अलग-अलग मिलने का भी अवसर मिला. इकट्ठे भी सम्बोधित किया. मुझे यह देख कर संतोष हुआ कि दूसरे प्रांतों की तुलना में बिहार के रचनाकार सामाजिक राजनीतिक प्रश्नों पर अधिक सजग हैं. उनकी चिंता वाजिब थी. यहाँ तक कि मुल्क की मौजूदा राजनीतिक स्थिति के प्रति भी वे चिंतित थे. यह जरूर है कि बिहार के लेखकों में राजनीतिक सजगता अन्य प्रांतों की तुलना में अधिक दीखती है. इसका कारण शायद यह है कि बिहार जमाने से राजनीतिक आंदोलनों की प्रयोगस्थली रहा है.
पिछले ही सप्ताह प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा आयोजित कविवर कन्हैया जन्मशती समारोह में भी लेखक मित्रों से मिलना -जुलना हुआ था. मैंने यह महसूस किया कि सत्ता और प्रतिपक्ष दोनों से रचनाकार निराश हैं. यह ठीक है कि सत्ता की डफली बजाने वाला एक तबका इतिहास के हर दौर में रहता है. लेकिन सच्चे लोग भी हमेशा रहे हैं. लेखक अपने समय के हालात को गहराई से देख रहा है. देश एक बड़ा सामाजिक-राजनीतिक संकट झेल रहा है. सामाजिक- सांस्कृतिक तनाव बढ़ते जा रहे हैं. देश-समाज को धर्म और जाति केंद्रित करने की लगातार कोशिश हो रही है. राजनीति में फासीवादी और माफिया प्रवृत्तियां गहरा रही हैं. लोकतान्त्रिक मर्यादाएं एक-एक कर ध्वस्त हो रही हैं. संसद में ठीक उसी तरह की नारेबाजी हो रही है जैसे हिटलर केलिए जर्मन संसद में होती थीं.
ऐसे में प्रतिपक्ष की राजनीति जैसी होनी चाहिए थी, नहीं है. कांग्रेस खुद आज की स्थितियों केलिए बहुत अंश तक ज़िम्मेदार है. संगठन के तौर पर कांग्रेस को संजय गांधी ने ही पंगु बना दिया था. उसका आंतरिक लोकतन्त्र लगभग ख़त्म हो चुका है. कम्युनिस्ट और बुरे हाल हैं. राजनीतिक परिदृश्य से वे लगभग अनुपस्थित हो गए हैं. समाजवादी ताकतें जातिवादी बटखरों से अपने अस्तित्व की आख़िरी लड़ाई लड़ने की कोशिश कर रही हैं. वैचारिक आवेग उनके पास कुछ रह नहीं गया है. फासीवादी प्रवृत्तियों का विरोध माफिया प्रवृत्तियों से नहीं किया जा सकता. वे अधिक बुरी प्रवृत्तियां हैं. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान इटली के फासिस्टों से लड़ने केलिए कम्युनिस्टों ने शत्रु का शत्रु मित्र का मंत्र लेकर माफिया तत्वों का साथ लिया था. उसकी सजा कम्युनिस्टों को भुगतनी पडी थी. आज भी कुछ लोग यह गलती कर रहे हैं.
मैं यह मान कर नहीं चलता कि भारतीय जनता पार्टी जैसे राजनीतिक संगठन को सत्ता में आना ही नहीं चाहिए. लोकतांत्रिक प्रणाली में संविधान के तहत हर दल को चुनाव लड़ने और सत्ता में आने का अधिकार है. होना चाहिए. लेकिन आज मुल्क के सामाजिक ताने-बाने को जिस तरह विखण्डित किया जा रहा है वह भय पैदा करता है. सब मिला कर स्थिति यही दीखती है कि भाजपा अपनी ताकत से नहीं, प्रतिपक्ष की कमजोरी से सत्तासीन है. इतने लंबे समय तक उसे सत्ता में बने रहना एक नई किन्तु भयावह राजनीतिक स्थिति को जन्म दे सकता है.
मैंने लेखकों से यह सब साझा किया. मुझे यह महसूस हुआ कि राजनीतिक कर्मियों की तुलना में वे देश-समाज के प्रति अधिक गंभीर हैं. इस मुश्किल राजनीतिक दौर में उन्हें इन सवालों पर सोचना ही चाहिए।
18 दिसंबर, 2023 के फेसबुक पोस्ट से सभार।