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Gandhi। महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति प्रोफेसर डाॅ. रजनीश कुमार शुक्ल को जन्मदिन की बधाई

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महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति प्रोफेसर डाॅ. रजनीश कुमार शुक्ल को जन्मदिन की बधाई
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महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति प्रोफेसर डाॅ. रजनीश कुमार शुक्ल को जन्मदिन की बधाई देते हुए काफी प्रसन्नता हो रही है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि इनकी यश, कीर्ति एवं ख्याति निरंतर बढ़ती रहे।आज इस सुअवसर का सदुपयोग करते हुए मैं डाॅ. शुक्ल से जुड़े अपने कुछ अविस्मरणीय संस्मरण साझा करना चाहता हूँ। यहाँ सर्वप्रथम मुझे यह बताने में कोई संकोच नहीं कि मैं भी उन हजारों युवाओं में से एक हूँ, जो डाॅ. रजनीश शुक्ल से किसी-न- किसी रूप में प्रभावित रहा है। भले ही वह प्रभाव उनकी वैचारिकी का हो या भाषणशैली का अथवा व्यक्तित्व या व्यवहार का ही क्यों न हो। मैं यह भी साफ-साफ कहना चाहता हूँ कि डाॅ. शुक्ल के साथ मेरे संबंध ज्यादा लंबे-चौड़े नहीं हैं, लेकिन इसकी गहराई शायद कम नहीं है।

बहरहाल, ‘डाॅ. रजनीश कुमार शुक्ल’ इस नाम से मेरा पहला परिचय 2006-7 में हुआ, जब मैं अखिल भारतीय दर्शन परिषद् का आजीवन सदस्य बना। मुझे ज्ञात हुआ कि परिषद् एक शोध-पत्रिका ‘दार्शनिक त्रैमासिक’ का प्रकाशन करती है, जिसके संपादक डाॅ. रजनीश शुक्ल (वाराणसी) हैं। फिर मैं पहली बार नवंबर 2008 में गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार में आयोजित ‘अखिल भारतीय दर्शन परिषद्’ के सम्मेलन में शामिल हुआ। यहाँ अधिवेशन के धर्म-दर्शन विभाग में प्रस्तुत मेरे आलेख को संबंधित विभाग में युवा वर्ग द्वारा प्रस्तुत सर्वश्रेष्ठ आलेख के रूप में ‘विजयश्री स्मृति युवा पुरस्कार’ मिला। इस अधिवेशन के दौरान ही मुझे परिषद् के प्रायः सभी पदाधिकारियों से परिचित होने का अवसर मिला, लेकिन मुझे डाॅ. शुक्ल के दर्शन का सौभाग्य नहीं मिला, क्योंकि किसी अपरिहार्य कारणवश वे इस अधिवेशन में नहीं आ पाए थे।

खैर, अधिवेशन के बाद मैंने अपने पुरस्कृत आलेख की हार्ड काॅपी एवं सीडी डाॅ. रजनीश शुक्ल को भेजी। और कुछ दिनों बाद फोन पर आपसे बात किया था। यह आपसे मेरा पहला ‘संवाद’ था। इस पहले ‘संवाद’ की जीवंतता को मैं आज भी महसूस कर सकता हूँ। यह पहली ही मुलाकात या बातचीत में किसी के दिल में गहरे उतरने की ‘कला’ का एक उदाहरण मात्र है। मुझे यह बताते हुए प्रसन्नता हो रही है कि मेरा वह आलेख ‘नव बौद्धधर्म : न पलायन, न प्रतिक्रिया, वरन् परिवर्तन की प्रक्रिया’ ‘दार्शनिक त्रैमासिक’, जनवरी-मार्च 2009 में प्रकाशित हुआ। यह इस महत्वपूर्ण शोध-पत्रिका में प्रकाशित मेरा पहला आलेख तो है ही मेरे जीवन का पहला शोध-आलेख भी है। इस तरह डाॅ. शुक्ल मेरे ज्ञान-यज्ञ के प्रथम ‘ॠत्विक’ हैं।

यहाँ यह बताना जरूरी है कि मैं थोड़ा संकोची हूँ और किसी से भी आगे बढ़कर ज्यादा बात करने से परहेज करता हूँ। यही कारण है कि डाॅ. रजनीश शुक्ल, जब अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के पटना अधिवेशन में आए थे, तो मैंने उनसे ज्यादा बातें नहीं की थी। इसलिए इसमें कोई उल्लेखनीय बात नहीं है।

लेकिन मैं अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के लखनऊ अधिवेशन को कभी नहीं भूल सकता हूँ। 21 अक्तूबर, 2018 को अधिवेशन के पहले दिन उद्घाटन समारोह शुरू होने वाला था और मैं महामंत्री प्रोफेसर अम्बिकादत्त शर्मा के निदेशानुसार उनके सहयोगार्थ मंच के बगल में किसी कोने में खड़ा था। उसी बीच हाॅल में भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद् के सचिव प्रोफेसर डॉ. रजनीश शुक्ल का शुभागमन होता है। पूरा हाॅल उनकी ओर मुखातिब हो जाता है- बड़े से बड़े और छोटे से छोटे सभी। लेकिन मैं अपने संकोची स्वभाव के कारण अपनी जगह पर ही रहता हूँ। डाॅ. शुक्ल बड़ों को पैर छूकर प्रणाम करते हैं, मित्रों से गले मिलते हैं और छोटों की प्यार से पीठ थपथपाते हैं। मैं ‘अपलक’ सब देख रहा था, तभी मेरे कानों में एक आवाज़ गूंजी, “सुधांशु मैं भी हूँ।” यह आवाज किसी और की नहीं, बल्कि डाॅ. शुक्ल की थी। वे जैसे सभी से अपना दामन छुड़ाते हुए मेरी ओर मुखातिब होते हैं। मैं आगे बढकर उनके चरण स्पर्श करने को झुकता हूँ, वे तत्क्षण मुझे अपनी बाहों में भर लेते हैं। मुझे अपने संकोची स्वभाव पर ग्लानि हुई और मेरे मन में डाॅ. शुक्ल के प्रति सम्मान कई गुणा बढ़ गया।

इसी तरह 11 दिसंबर, 2018 को पटना में आयोजित दर्शन परिषद्, बिहार का 41वें वार्षिक अधिवेशन भी अविस्मरणीय है। इस अधिवेशन के दौरान भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली द्वारा सुप्रसिद्ध गाँधीवादी विचारक पूर्व सांसद एवं पूर्व कुलपति प्रोफेसर डॉ. रामजी सिंह को ‘लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड’ से सम्मानित किया गया। सम्मान- समारोह के बाद रामजी बाबू ने डाॅ. शुक्ल से कहा, “आप सुधांशु को अपने पास ले जाकर कुछ एकेडमिक असाइनमेंट दीजिए। इसे मधेपुरा में मन नहीं लग रहा है और ये वहाँ पीआरओ आदि बेकार के कामों में लग गए हैं।” डाॅ. शुक्ल ने कहा, “हम तो इसे आपकी सेवा के लिए छोड़ दिए हैं। इसे आपका आशीर्वाद है- इसे असाइनमेंट की कभी कमी नहीं होगी। ये तो हम सबों का भविष्य है।” यह आशीर्वाद मेरे लिए हमेशा प्रेरणा का स्रोत है। आज हम देखते हैं कि जिस तरह इंद्र को साधारण मनुष्यों की तपस्या से भी अपने सिंहासन पर खतरा महसूस होने लगता है, उसी तरह बड़े-बड़े पदों पर पहुँचे लोग भी अपने विद्यार्थियों एवं अधीनस्थ कर्मियों की छोटी-छोटी उपलब्धियों से भी ईष्या-द्वेष रखते हैं। ऐसे में डाॅ. शुक्ल जैसा गुरु, सहकर्मी या ‘बाॅस’ मिलना एक बड़े सौभाग्य की बात है। डाॅ. शुक्ल अप्रैल 2019 में महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति बने, तो हमने उनको बधाई देते हुए लिखा था, “मुझे आशा ही नहीं, वरन पूर्ण विश्वास है कि इनके प्रयासों से वर्धा में दर्शनशास्त्र का एक स्वतंत्र विभाग अवश्य खुलेगा।” कुछ ही दिनों बात मेरा विश्वास सत्य साबित हुआ। आज वहाँ दर्शन एवं संस्कृति विभाग बखूबी काम कर रहा है और उसमें दो सक्षम प्राध्यापकों की नियुक्ति भी हो चुकी है। यह सब किसी चमत्कार से कम नहीं है।डाॅ. शुक्ल सर के आदेशानुसार मैं दिसंबर 2019 में एक कार्यक्रम में भाग लेने वर्धा गया था। वहाँ मुझे हर तरफ इनकी कीर्ति पताका फहरती हुई नजर आई। यहाँ तक कि विरोधी विचारधारा के लोग भी इनकी दूरदर्शिता, सक्रियता एवं कर्मठता की प्रशंसा करने को मजबूर हैं। डाॅ. शुक्ल की एक खास विशेषता है कि प्रशासनिक व्यस्तताओं के बीच भी वे कभी अकादमिक जिम्मेदारियों को निभाने में आलस्य नहीं करते हैं। यही कारण है कि ‘लाॅकडाउन’ की असामान्य परिस्थितियों में भी आपने महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में अकादमिक गतिविधियों की ‘गंगा’ को सूखने नहीं दिया। शायद आपके द्वारा ही पहली बार सुव्यवस्थित रूप से ‘वेबिनार’ का आयोजन किया गया, जो बाद में विभिन्न विश्वविद्यालयों के लिए ‘नजीर’ बना। आपने अपने अकादमिक कार्यों से भारतीय ज्ञान परंपरा के संरक्षण एवं संवर्धन में महती भूमिका निभाई है। आपकी प्रकाशित कृतियों में ‘काण्‍ट का सौंदर्यशास्त्र’, ‘वाचस्पति मिश्र कृत तत्त्वबिंदु’, ‘अभिनवगुप्त : संस्कृति एवं दर्शन’, ‘गौरवशाली संस्कृति’, ‘स्वातंत्र्योत्तर भारतीय दार्शनिक चिंतन की पृष्ठभूमि’, ‘एन इन्ट्रोडक्शन टू वेस्टर्न फिलाॅसफी’ (‘An Introduction to Western Philosophy’), ‘अभिनवगुप्त : कल्चर एंड फिलाॅसफी’ (‘Abhinavagupta : Culture and Philosophy’) आदि प्रमुख हैं। साथ ही आप ‘समेकित अद्वैत विमर्श’, ‘तुलनात्मक दर्शन’, ‘भारतीय दर्शन में प्राप्यकारित्वाद’, ‘भारतीय दर्शन के पचास वर्ष’, ‘पर्सपेक्टिव ऑन कम्परेटिव रिलिजन’, ‘राष्ट्रगौरव’ आदि ग्रंथों के सह-संपादक भी हैं।

आपके सौ से अधिक शोध-पत्र राष्‍ट्रीय और अंतरराष्‍ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। आप ‘दार्शनिक त्रैमासिक’ के प्रधान संपादक के अतिरिक्त ‘जर्नल ऑफ़ इंडियन काउंसिल ऑफ़ फ़िलासॉफ़िकल रिसर्च’ (JICPR) और ‘भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद्’ की पत्रिका ‘हिस्टोरिकल रिव्यू’ के कार्यकारी संपादक भी रह चुके हैं।

मालूम हो कि डाॅ. शुक्ल का जन्म 25 नवंबर, 1966 को भगवान बुद्ध की निर्वाण स्थली कुशीनगर (उत्तर प्रदेश) में हुआ। आपने काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी से पी-एच. डी. की है। आप 1991 से संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में तुलनात्मक धर्म एवं दर्शन विभाग के आचार्य हैं और वहाँ विभागाध्यक्ष सहित विभिन्न पदों पर कार्य कर चुके हैं। इसके साथ ही आप विश्व के सबसे बड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एवीभीपी) के के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तथा ‘भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद्’ (आईसीपीआर) एवं ‘भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद्’ (आईसीएचआर) के सदस्य-सचिव जैसे महत्वपूर्ण पदों को सुशोभित कर चुके हैं।

संप्रति डाॅ. शुक्ल अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के कार्यकारी अध्यक्ष हैं। आप बनारस हिंदू विश्वविद्यालय सिंडीकेट (कोर्ट) एवं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय और गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद् के सदस्य हैं। आप हरियाणा राज्य शिक्षा सलाहकार बोर्ड, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् (ICCR), राजा राममोहन रॉय लाइब्रेरी फाउंडेशन, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास तथा राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् (NCERT) के सदस्‍य हैं।

अंत में, हम आपके स्वास्थ्य, प्रसन्न एवं मंगलमय दीर्घायु जीवन की कामना करते हैं और ईश्वर से प्रार्थना है कि वे आपको शैक्षणिक के साथ-साथ राजनैतिक जगत में भी सर्वोच्च शिखर तक पहुँचने का आशीर्वाद प्रदान करने की कृपा करें।पुनश्च, कल गुरूवर प्रोफेसर डॉ. रजनीश शुक्ल को सैकड़ों लोगों ने जन्मदिवस पर बधाई दीं। मैं फिर पीछे हो गया- एक दिन विलंब से शुभकामनाएं दे रहा हूँ। मुझे आशा है कि आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे और मेरी बधाई भी कृपापूर्वक स्वीकार करना चाहेंगे। “They also serve who only stand and wait.”

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