भरतपुरा का पुस्तकालय और फिरदौसी का शाहनामा
प्रेमकुमार मणि
1972 -73 में अख़बारों के माध्यम से जाना था कि भरतपुरा की लाइब्रेरी से एक मुगलकालीन कीमती पुस्तक चुरा ली गई है और चोरों ने उसे इस देश से बाहर भेज दिया है. चोरी की घटना सार्वजानिक होने पर हंगामा मच गया था. भारत सरकार ने इस में दखल दिया और इस मामले की जांच का जिम्मा सीबीआई को दिया गया. तत्कालीन राष्ट्रपति वी वी गिरी और प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने इस मामले में अपनी चिन्ता जताई. किताब के कुछ हिस्से तो बाहर चले गए थे, किन्तु बहुत कुछ ढूँढ निकाला गया.
भरतपुरा पटना जिले का एक गाँव है, जो पटना से कोई चालीस किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है. मंदिर से नजदीक और भगवान से दूर वाली कहावत मेरे साथ भी थी. सैंकड़ों बार इस गाँव को छूते हुए जाना-आना हुआ है, लेकिन उस लाइब्रेरी में जाना आज जाकर हुआ, 2023 वर्ष के आखिरी दिन. वह भी अचानक से. उस गाँव से होकर गुजर रहा था कि पता नहीं क्यों फिरदौसी का स्मरण हुआ. फिर शाहनामा .. .और मैंने गाड़ी उस तरफ मुड़वा दी. यह कोई अंतःप्रेरणा थी.
फिरदौसी और उनका शाहनामा वर्षों से मेरे ज़ेहन में था. एक शायर के तौर पर फिरदौसी मुझे मध्यकालीन मध्यएशिया का सांस्कृतिक हीरो लगता है. मेरी इच्छा थी कि उस पुस्तकालय में जाकर इस किताब का दर्शन तो कर ही लूँ. अपनी जानकारी के अनुसार भारत में इस किताब को मुगलकाल में प्रकाशित किया गया. उस जमाने में गिनी-चुनी प्रतियां तैयार की जाती थीं. जैसे बाबरनामा की कुल पांच प्रतियां अकबर के ज़माने में तैयार की गईं. शाहनामा के प्रतियों की संख्या का पता मुझे नहीं है.लेकिन यह भी गिनी-चुनी होगी. क्योंकि एक प्रति तैयार करने में उस ज़माने में भी लाखों रूपए लगते थे.
शाहनामा का सारांश हिंदी लेखिका नासिरा शर्मा ने हिंदी में ‘ फिरदौसी शाहनामा’ शीर्षक एक जिल्द में ला दिया है. अंग्रेजी में भी यह पुस्तक लुम्स्डेन के प्रयासों से कोई सौ साल पूर्व अनूदित -प्रकाशित है. आज पर्सियन स्क्रिप्ट में लिखे गए उस महाकाव्य के मूल रूप को देख सका. एक वीरान और उदास गाँव की लाइब्रेरी में उस पुस्तक को देखना अजूबा अनुभव था. ईरान और मध्य एशिया का प्राचीन इतिहास एक दफा मेरे स्मृति-पटल पर नाच गया. फिरदौसी कुछ उसी तरह की हस्ती हैं,जैसे हमारे यहां महाभारतकार व्यास या राजतरंगिणी के रचनाकार कल्हण. या कि इलियड वाले होमर. शाहनामा ईरान के प्राचीन राजाओं की दिलचस्प कहानी है,जो ईरान पर अरब आधिपत्य के पूर्व के थे. प्रथम ईरानी राजा क्युमर्स से लेकर अंतिम सासानी राजा तक की कथा इसमें दर्ज है. सब जानते हैं कि ईरान पर अरबों ने सातवीं सदी के उत्तरार्द्ध में प्रभाव बना लिया था. ईरान की राजनीति तो पराजित हुई ही, उसकी सांस्कृतिक अस्मिता भी तहस-नहस कर दी गई. ईरानी सभ्यता अरबी सभ्यता से कहीं विकसित थी. ईरान की जुबान पर्सियन थी और यह अरबी के मुकाबले काफी कोमल और जानदार थी. ईरान में अरबों का काफी विरोध हुआ,किन्तु इतिहास में होता आया है कि बर्बर शक्तियां सभ्य लोगों पर भारी पड़ जाती हैं. लड़ाई में जंगली-बहशी लोग प्रायः जीतते रहे हैं. ईरानियों का भी यही हाल हुआ. बहुत से लोग भाग गए. किन्तु आखिर कितने लोग भाग पाते हैं. जो रह गए उस में ज्यादातर ने अरबों और इस्लाम की गुलामी क़बूल ली. लेकिन ऐसे लोग भी थे जिन्होंने अपनी इरानियत को जीवित रखने की हरसंभव कोशिश की. फिरदौसी ऐसे ही हीरो थे. उनकी कृति शाहनामा अरबी संस्कृति के विरुद्ध ईरान के सांस्कृतिक प्रतिरोध का दस्तावेज भी है. इसलिए फिरदौसी और शाहनामा को मैं मध्य एशिया के सांस्कृतिक प्रतिरोध का केन्द्रक मानता हूँ. हमारे देश में तो इस दौर की एक पिद्दी -सी लिजलिजी किताब ‘पृथ्वीराज रासो ‘ है, जो एक अय्याश राजा की विरुदावली है.
फिरदौसी का समय 940 ईस्वी से 1020 ईस्वी का है. उनका पूरा नाम अल कासिम हसन बिन अली तुसी था. उनके लेखन से पता चलता है कि वह एक किसान परिवार से आते थे. शाहनामा में वह कहते हैं अब एक दहक़ां ( किसान ) से कहानी सुनो. वह बहुत साफ दिल हैं. जिस शाहनामा को उन्होंने लिखा उसे दक़ीक़ी नाम के एक दूसरे फारसी कवि ने ‘ गशतासबनामा’ शीर्षक से लिखना आरम्भ किया था. उस कवि को उसके नौकर ने ही मार दिया और उनकी कृति अधूरी रह गई. फिरदौसी ने इस कार्य को अपनी ज़िन्दगी के तीस वर्षों में पूरा किया. शाहनामा में कोई साठ हजार शेर हैं और मुख्यतया यह तीन हिस्सों में है. पहला हिस्सा लोकसाहित्य है, दूसरा पौराणिक कथाओं से भरा है और तीसरा ईरान का राजनीतिक इतिहास है,जिस में राजाओं और शूर वीरों के किस्से हैं. कवि बार-बार याद दिलाता है कि अरबों के आने के पूर्व हम कितने बढे-चढ़े थे. इस्लाम और अरब ने ईरान को वीरान बना दिया था. कवि इसी पीड़ा का महाकाव्यात्मक बयान करता है. ईरान में शाहनामा को आल्हा -उदल की तरह सामूहिक तौर पर गाया जाता है. कोई सांस्कृतिक गुलामी कितनी पीड़ादायक होती है, इसे शाहनामा पढ़ कर जाना जा सकता है.
शाहनामा पर संकट फिरदौसी के ज़माने में भी था और आज के ज़माने में भी है. रज़ा शाह पहलवी ने साल 1976 में शाहनामा के अध्ययन केलिए ‘ बुनियाद-ए-शाहनामा ‘ संस्था बनाई. 1979 की खुमैनी क्रांति ने जैसे ही शाह का तख्ता पलटा, यह संस्था भी ख़त्म हो गई. शाहनामा की प्रतियों को ढूँढ -ढूँढ कर “क्रांतिकारियों” द्वारा जलाया गया. कुछ यही समय था जब भरतपुरा पुस्तकालय की इस प्रति पर भी आफत आई थी.
फिरदौसी का निजी संकट भी जानने लायक है. कहते हैं शाहनामा रचे जाने की ख्याति जब चारों तरफ फैलने लगी तो गजनी के मुहम्मद ने कवि को सन्देश भिजवाया कि वह हर शेर केलिए एक दीनार कवि को प्रदान करेगा. आर्थिक मुश्किलों से जूझते कवि ने दरबार में पुरस्कार के वास्ते किताब पेश की, तब दरबारियों ने मुहम्मद के कान भरे कि यह तो एक काफिर शिया की कृति है और यह सुन्नियों के खिलाफ है. राजा अपने वायदे से मुकर गया और थोड़े से धन देकर कवि की उपेक्षा की. कवि को अपनी तौहीन का एहसास हुआ. उसे ऐसा रंज हुआ कि उसने राजधानी ही छोड़ दी. यही नहीं, उसने सुल्तान के खिलाफ एक शेर भी लिखा. कमाल की बात यह हुई कि पूरा शाहनामा छोड़ जनता ने उसी एक शेर को गाना शुरू कर दिया. सुल्तान को अपनी गलती का एहसास हुआ. उसने साठ हजार दीनार ऊंट पर लाद कर कवि के यहाँ भेजा. कहते हैं, जब दीनार से लदा यह ऊंट कवि के घर पहुंचा तब उसके घर से उसका जनाजा निकल रहा था. कवि की बेटी ने भी धन लेने से इंकार कर दिया.
फिरदौसी की मुसीबतें और भी रहीं. सुन्नियों ने उसे अपने कब्र में दफन करने की इजाजत नहीं दी. लेकिन अलमस्त कवि अपनी नियति जानता था. उसने लिखा है- न मीरम अज इन, पस की मन जिन्देअम कि तुख्मे सुखन रा पराकंदे अम
( मैं कभी नहीं मरूंगा, फारसी शायरी के जो बीज मैंने बोये हैं,वे दुनिया के रहने तक लहलहाते रहेंगे. )
किस्से-कहानियों से शाहनामा और फिरदौसी का पुराना रिश्ता है. भरतपुरा पुस्तकालय से जुड़ी सौम्या जी ने बताया कि पुस्तकालय के संस्थापक गोपाल नारायण सिंह ( 1872 – 1921 ) का विवाह काशी नरेश के यहाँ हुआ था. वर्तमान में इस पुस्तकालय का शाहनामा काशी नरेश के पास था. गोपाल बाबू ने दहेज़ में शाहनामा की ही मांग की. मिली भी. इस तरह काशी से इस किताब का धरहरा आना हुआ. यह क्या कम दिलचस्प किस्सा है.
फिरदौसी पर बात हो तो मैं सब कुछ भूल जाता हूँ. इसी कारण मैंने एक किताब पर अपनी बात केंद्रित कर दी. उस पुस्तकालय – संग्रहालाय में अनेक मूल्यवान धरोहर हैं. सिकन्दरनामा तो है ही, तालपत्र पर लिखी पूरी महाभारत भी है. पुराने ज़माने के कई दौर के बेशुमार सिक्के हैं. संग्रहालय के निष्ठावान सचिव श्री मुकेशधारी सिंह जी ने आत्मीयता से एक-एक धरोहर को दिखाया. लेकिन इस पर बात करने के लिए इतमिनान चाहिए.
क्या ही अच्छा होता कि भारत सरकार का संस्कृति मंत्रालय इस पुस्तकालय और संग्रहालय को संरक्षण देता. इस संग्रहालय को एक बड़े लोक-सांस्कृतिक और पुरातात्विक संग्रहालय में तब्दील किये जाने की जरूरत है. पर्यटन के दृष्टिकोण से भी इसका विकास लाभकारी हो सकेगा.