BNMU। चला जाना नन्दकिशोर नवल का

चला जाना नन्दकिशोर नवल का

2 सितंबर, 1937 को हाजीपुर के पास के गाँव चाँदपुरा में जन्म लेनेवाले नवल जी ने प्रयाण-दिवस मंगलवार, तदनुसार 12 मई, 2020 को अपने जीवन के 82 साल, 8 माह और 10 दिन पूरे किये थे। निराला-काव्य के विशेषज्ञ नवल जी लम्बी बीमारी के कारण शरीर छोड़ने के पूर्व लगभग दो दर्जन से अधिक पुस्तकें (मौलिक और संपादित)हम पाठकों को सौंप गये। उनमें अधिकतर काव्यालोचन-विषयक हैं। उन्होंने अपनी पी-एच.डी. की उपाधि ‘निराला का काव्य-विकास’ शीर्षक विषय पर शोध-कार्य संपन्न कर प्राप्त की थी। कुछ समय पहले उन्हें कालदेवता की पदचाप सुनाई पड़ी थी। उन्होंने पदचाप सुनकर कालदेवता को आश्वस्त भी किया था कि यदि कुछ मोहलत दे सकते हो तो दे दो, ताकि मैं कुछ अधूरा छोड़कर न जाऊँ। मैं भलीभाँति जानता हूँ कि यह दुनिया एक सराय है- एक मुसाफिरखाना। बटोही थोड़ी देर तक यहाँ अपनी थकन मिटाकर मंजिल की तरफ बढ़ जाता है। कोई आज तो कोई कल। मुसाफिरखाना तो मुसाफिरखाना है-
‘‘इस सरा में हूँ मुसाफिर, नहीं रहने आया।
रह गया थक के अगर आज तो कल जाऊँगा।।
आखिरकार वे चले गये वहाँ, जहाँ से कोई लौटकर नहीं आता। वे पुनर्जन्म को नहीं मानते थे। लेकिन, भारत के अधिकांश लोग मानते हैं और उनका विश्वास बार-बार कहता है कि वे फिर आएँगे- एक नयी सजधज के साथ।
अमर कुमार चौधरी ने डाॅ. योगेन्द्र के शोध-निर्देशन में ‘नन्दकिशोर नवल की आलोचना दृष्टि’ शीर्षक विषय पर पी-एच.डी. – उपाधि के निमित्त अपना शोध-प्रबंध समर्पित कर रखा है। मौखिकी शेष है। यह विषय मैंने ही सुझाया था। प्रारूपीकरण भी किया था। जाने की इतनी जल्दी होगी, हमें इसका तनिक भी भान नहीं था। ज्ञातव्य है कि नवलजी के परमादरणीय गुरु और मेरे धर्मपिता (स्व.) दशरथ राजहंस ने (से.नि. प्रधानाचार्य; बोकारो स्टील सिटी काॅलेज) बार-बार तकाजा किया था कि नवल पर कोई शोध-कार्य इस विश्वविद्यालय में हुआ कि नहीं? यदि नहीं तो करा या करवा दीजिए। यह विषय उन्हीें के तकाजों का परिणाम है।
स्वर्गीय राजहंस (दो वर्ष पूर्व फरवरी, 2018 में दिवंगत) ने नवल जी को हाईस्कूल में पढ़ाया था। मुरारका काॅलेज, सुलतानगंज आने के पूर्व कुछ समय तक वे नवलजी के गृह-जनपद के एक उच्चविद्यालय में पदस्थापित हुए थे। दोनों आजीवन गुरु-शिष्य का संबंध निभाते रहे। शिष्य ने प्रायः अपनी हर महत्त्वपूर्ण पुस्तक अपने गुरु को भेंट की। ऐसी दो पुस्तकें मेरे पास हैं- पहली, निराला: कृति से साक्षात्कार ( राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; पहला संस्करण: 2009 ई.) और दूसरी, ‘मैथिलीशरण’ (वही; 2011 ई.) दोनों पुस्तकों के समर्पण-शब्द इस प्रकार हैं – ‘‘श्रद्धेय गुरुदेव श्री दशरथ राजहंस के प्रीत्यर्थ नंदकिशोर नवल/28.10.09 (9334343483) इसके साथ उन्होंने अपना मोबाइल नम्बर भी लिख दिया था। दूसरी पुस्तक के शब्द भी लगभग ऐसे ही हैं- ‘‘श्रद्धेय गुरुदेव, प्राचार्य श्री दशरथ राजहंस के अमित स्नेह को‘‘ – नंदकिशोर नवल /25.3.11
मेरी पत्नी ने जब अंगिका लोकगाथा ‘लचिका रानी’ पर आधारित पहला उपन्यास ‘प्रतिशोध’ शीर्षक से लिखा तो बाबू जी उसकी एक प्रति नवल जी के अवलोकनार्थ दे आए। ज्ञातव्य है कि इस लोकगाथा को लेकर डाॅ. विद्यारानी और अनिरुद्ध प्र. विमल ने भी उपन्यास-लेखन किया है। नवल जी ने आशीर्वाद स्वरूप लिखा- ‘‘प्रतिभा का लिखा उपन्यास ‘प्रतिशोध’ पढ़ा। प्रथम प्रयास जानकर अतीव प्रसन्नता हुई। अत्यंत प्रांजल भाषा में लिखे गये इस उपन्यास में आपकी शिक्षा-दीक्षा और व्यक्तित्व की छाप है। पुराने कथानक में युगीनबोध इस उपन्यास की विशेषता है। लिखती रहे। आशीर्वाद!’’
ज्ञातव्य है कि इस उपन्यास का फ्लैप-मैटर श्रद्धेय गुरुवर डाॅ. विजेन्द्र नारायण सिंह ने लिखा है।
डाॅ. नवल से मेरा प्रथम संक्षिप्त साक्षात्कार टी.एन. काॅलेज के तत्त्वावधान में 1980 में प्रो. रविभूषण के संयोजकत्व में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में हुआ था। उसमें हंसराज रहबर, काशीनाथ सिंह, पारसनाथ तिवारी महेश्वर, नचिकेता, खगेन्द्र ठाकुर प्रभृति विद्वान इकट्ठे हुए थे। वह संगोष्ठी बहुत अकादमिक नहीं थी। हिन्दी की चुनौतियाँ और निदान’ कुछ ऐसा विषय था। हंसराज रहबर और विजेन्द्र बाबू के बीच कुछ कहा-सुनी हो गयी थी। मैं हाल ही में ल. ना. मि. वि. वि., दरभंगा से यहाँ आया था।
डाॅ. नवल से दूसरा साक्षात्कार 1985 के मार्च में मारवाड़ी काॅलेज, भागलपुर के प्रशाल में राष्ट्रीय संगोष्ठी के दौरान हुआ था। कुछ समय पहले मैं टी. एन. बी. काॅलेज से स्थानान्तरित होकर यहाँ आया था। स्वनामधन्य प्रधानाचार्य डाॅ. विष्णु किशोर झा ‘बेचन’ ने यू.जी.सी. की आर्थिक सहायता से छह दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया था। इसके सह-निदेशक डाॅ. खगेन्द्र ठाकुर और डाॅ. राजेन्द्र पंजियार बनाये गये थे तो उप-समायोजक क्रमशः डाॅ. बी.एन. अग्रवाल तथा डाॅ. बहादुर मिश्र। मुझ पर दैनिक प्रतिवेदन तैयार करने की जिम्मेदारी थी। 1985 के 13 मार्च से 18 मार्च तक चलनेवाले इस राष्ट्रस्तरीय अकादमिक अनुष्ठान का विषय था – ‘हिन्दी शिक्षण एवं व्याख्यान विधि’। इसके उद्घाटनकर्त्ता थे डाॅ. नामवर सिंह। इसमें भाग लेनेवाले विद्वानों के नाम हैं- डाॅ. लक्ष्मीनारायण मित्तल (उत्तर प्रदेश), डाॅ. सदानन्द सिंह (कोलकाता), डाॅ. नागेश्वर लाल (हजारीबाग), डाॅ. सिद्धनाथ कुमार, डाॅ. बालेन्दुशेखर तिवारी, डाॅ. उमेश प्र. शास्त्री (राँची), डाॅ. अवधेश्वर अरुण (मुजफ्फरपुर), डाॅ. गोपाल राय तथा डाॅ. नन्दकिशोर नवल (पटना), डाॅ. श्यामसुन्दर घोष (गोड्डा) प्रभृति। स्थानीय लोगों में, डाॅ. शशिशेखर तिवारी, डाॅ. तपेश्वरनाथ, (डाॅ.) रविभूषण, डाॅ. देवेन्द्र सिंह प्रभृति।
13 मार्च के अपराह्ण में उद्घाटन-सत्र को संबोधित करते हुए डाॅ. नामवर सिंह ने अपना बीज वक्तव्य दिया था। उन्होंने कहा कि जिसतरह किताबों से तैराकी के नुस्खे सीखकर तैराकी नहीं की जा सकती, उसीतरह हिन्दी शिक्षण की कोई पूर्वनिश्चित विधि नहीं होती है। मेधावी शिक्षक मेधा और कौशल के बल पर पढ़ाना सीख जाता है।
16 मार्च के प्रथम सत्र के तृतीय वक्ता डाॅ. नन्दकिशोर नवल (रीडर: हि. वि.; पटना वि. वि.) थे, जबकि प्रथम और द्वितीय क्रमशः डाॅ. खगेन्द्र ठाकुर तथा डाॅ. तपेश्वरनाथ। इस सत्र की अध्यक्षता डाॅ. नागेश्वर लाल ने की थी। डाॅ. नवल के लिखित वक्तव्य का शीर्षक था- ‘‘कविता का अध्यापन’’।
मंच-संचालक द्वारा आमंत्रित किये जाने के क्षणोपरान्त बग-बग सफेद कुर्ता-पाजामा में एक गोरा-बुर्राक सौम्य-सुदर्शन पुरुष-विग्रह प्रकट हुआ। यही थे डाॅ. नवल। उन्होंने अपने वक्तव्य की शुरुआत इन शब्दों में की- ‘‘कविता के अध्यापन की सर्वाधिक प्रचलित पद्धति यह है कि कविता पढ़ाई जाए, पर उस पर कुछ न कहा जाए, जो भी कहा जाए, वह उसके बारे (कविता के बारे में) में हो।’’ उनका आशय यह था कि कविता और उसके कवि और उसके देशकाल आदि के बारे में कहकर न उलझाया जाए। आगे उन्होंने कहा कि कविता मानवीय व्यक्तित्व को समृद्ध करने का सबसे बड़ा साधन है। यदि हमने कविता के मोहक संसार में विद्यार्थियों को उतारकर उसकी भावनाओं और विचारो से समृद्ध नहीं किया तो फिर अध्यापन बेकार है। दिनकर की कोई कविता स्वाधीनता की चेतना के किस स्तर को उद्बुद्ध करती है, बल्कि कहेंगे कि दिनकर की कविता अंगारों पर खिला हुआ इन्द्रधनुष है। प्रसाद की कविता पढ़नी हो तो कहेंगे – प्रसाद की कविता पूर्णिमा की रात्रि में समुद्र की लहरों पर फिसलती हुई चाँदी की तश्तरी है। गोया यह कि कविता के भीतर एक कविता सिरजनी चाहिए।
आगे उन्होंने कहा कि कविता की प्रभाववादी शैली इन दिनों ह्रास पर है। इसमें अध्यापक कविता को दो भागों में बाँट देते हैं – भावपक्ष और कलापक्ष। यह पद्धति यांत्रिक (Mechanised) है। हेगेल ने कहा कि वस्तु रूप का अमूर्त रूप है और रूप वस्तु का मूर्त रूप। इससे कविता में रूप और वस्तु की एकता को समझा जा सकता है।
पिछले दिनों कविता की एक नई पद्धति सामने आई है। वह अमरीकी पद्धति है। इसके अनुसार कविता एक रूप है, एक संरचना है। उन्होंने कविता की समाज शास्त्री की शैली पर भी विचार किया। थोड़ी देर के लिए हाॅल में तब खुसुर-पुसुर शुरू हो गई, किसी-किसी कोने से तेज विवादी स्वर उभरा, जब उन्होंने निराला की कविता ‘तोड़ती पत्थर’ में प्रयुक्त ‘सामने तरुमालिका अट्टालिका’ का संबंध पं. नेहरु के आवास ‘आनन्द भवन’ से जोड़ दिया। यह निराधार भी नहीं था; क्योंकि आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने यही अर्थ निकाला था। वाजपेयी जी ने मजदूरिन को आनंद भवन के सामने दोपहर की झुलसाने वाली गर्मी में पत्थर तोड़ते देखा था। कुछ लोगों को एतराज हुआ। नवलजी ने टिप्पणी की कि ऊपर से यह कविता एक मामूली प्रगतिशील कविता के स्तर से ऊपर उठकर कांग्रेस के सुधारवादी पूँजीवादी नेतृत्व में चलनेवाले स्वाधीनता-आंदोलन की तीखी आलोचना बन जाती है।
दो एक की आपत्ति यह थी कि यह आनंदभवन नहीं, स्वराज भवन है। दोनों को एकमेक करना ठीक नहीं। मैंने स्वयं देखा है कि स्वराज भवन आनन्दभवन से ज़रा हटकर अवस्थित है, लेकिन उसी परिसर में। यहाँ सुराजियों की जमघट लगा करती थी। खैर, जो हो। मंच से उतरने के बाद नवलजी ने डाॅ. रविभूषण से पूछा कि भई, स्वराजभवन और आनन्दभवन का क्या मामला है? वक्तव्य का समाहार करते हुए नवलजी ने कहा कि कविता एक बहुत ही नाजुक चीज है। उसका अध्यापन संवेदनशीलता के साथ किया जाना चाहिए। वर्ग में संप्रेष्य संवेदना ही होनी चाहिए, कुछ और नहीं।
डाॅ. नवल बहुतों की तरह मेरे भी अप्रत्यक्ष गुरु थे; क्योंकि उनकी किताबें पढ़कर अपनी समझदारी बेहतर बनाई है।
अपने समस्त पाठकों के साथ हमदोनों पति-पत्नी डॉ.नदंकिशोर नवल के प्रति विनम्र श्रद्वांजलि अर्पित करते हैं।
बहादुर मिश्र
13.05.2020

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