BNMU। ‘सोहर’ की विविधरूपात्मक यात्रा

‘सोहर’ की विविधरूपात्मक यात्रा

प्रो. (डाॅ.) बहादुर मिश्र, पूर्व अध्यक्ष, विश्वविद्यालय हिंदी विभाग, तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार

‘सोहर’ लोकगीत का वह जनप्रिय रूप है, जो शिशु-जन्म (विशेषतः पुत्र-जन्म) के अवसर पर परिवार तथा टोले-मोहल्ले की स्त्रियों द्वारा हर्षातिरेक में गाया जाता है।
व्यावहारिक दृष्टि से ‘सोहर’ के दो प्रकार मिलते हैं – पहला, गर्भाधान से लेकर शिशु-जन्म के पूर्व तक गाया जानेवाला और दूसरा, शिशु-जन्म के बाद गाया जाने वाला। ‘सोहर’ का यही दूसरा प्रकार प्रचलन में है।
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना से 1969 ई. में प्रकाशित ‘अंगिका संस्कार गीत’ की शुरुआत सोहर से ही हुई है। इसमें कुल 85 सोहर संकलित हैं, जिन्हें संकलयिता ने तीन खण्डों में विभक्त कर रखा है; यथा – प्रथम खण्ड में 47 सोहर हैं तो द्वितीय और तृतीय में क्रमशः 26 तथा 12 । ‘सोहर’ भारत की लगभग प्रत्येक लोकभाषा में उपलब्ध है, चाहे वह मैथिली हो या भोजपुरी, मगही हो या बज्जिका, अवधी हो या ब्रजभाषा, राजस्थानी हो या बुन्देलखण्डी।
सन्तानहीन माता-पिता की क्या मनोदषा होती है, उसकी एक झलक इस अंगिका-सोहर में देखी जा सकती है-
पिअवा, एकेगो अमोलवा तों लगैता कि टिकोलवा हम चाखतें हे।
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धनि, एकेगो बलकवा तों विऐतिहऽ, सोहरवा हम सुनतें हे
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अँगना बोहारइत तोहें चेरिया छेकी, औरे नउरिया छेकी हे।
ललना, अपन बलकवा पैंचा देहो, पिया रे सुनत सोहर हे।।
रानी, गोदी के बलकवा नहिं पैंचा, कि पैंचा नहिं मिलत हे।।
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गोतिनी, अपनो बलकवा पैचा देहो, पिया रे सुनत सोहर हे।
गोतनी, गोदी के बलकवा नहिं पैंचा, कि पैंचा नहिं मिलत हे।।
…. ….. ….. ….. ….. ….. ….. ….. …. ….
बड़ही, काठ के बलकवा तों बनावऽ पिया रे सुनत सोहर रे।
अर्थ यह कि एक संतानहीन स्त्री अपने पति से आम का पेड़ लगाने कहती है, ताकि टिकोला (अमिया) खा सके। टिकोला खाने की इच्छा प्रायः गर्भवती स्त्रियों की होती है। पति को मालूम है कि उसकी पत्नी गर्भवती नहीं है। इसपर वह पत्नी का उपहास करता हुआ कहता है कि यदि तुमने अपनी कोख से एक बेटा पैदा किया होता तो आज मैं सोहर सुनता। इसपर वह स्त्री बारी-बारी घर की नौकरानी, गोतनी तथा ननद से उसका बेटा माँगती है, ताकि उसका पति सोहर सुन सके। तीनों यह कहकर झिड़क देती हैं कि बालक कोई नमक-तेल तो है नहीं कि पैंचा (उधार) दिया जा सके। तब वह बढ़ई से कहकर एक कठपुतला (काष्ठपुत्र) बनवा लेती हैं। कठपुतला तो कठपुतला होता है, अर्थात् बिलकुल बेजान। अन्त में, सासु माँ की सलाह पर वह सूर्याराधन में लग जाती है, ताकि उसे बेटा खेलाने का मौका मिले और पति को सोहर सुनने का।
यह ‘सोहर’ साबित करता है कि भारतीय परिवार में पुत्र-जन्म के बाद ही सोहर गाने-सुनने की प्रथा थी। परिवार में कन्या-जन्म का स्वागत ‘सोहर’ से नहीं, भारी मन होता था। देखिए अगला सोहर –
‘‘जैसे कासी के लोगवा सिवजी के पूजले हो
वैसे हि पूजले हमरो हरिजीत, कि बबुआ जनम लिहले
जैसे दहहि बिच पुरइन के पात काँपेलि हो।
वैसे हि काँपेला हमरो हरिजीत, कि धिअवा जनम लिहले हो।’’
इस सोहर में पुत्र का रुतबा काशीनाथ शिव का-सा है तो पूत्री का इसके ठीक उलट पुरइन के पात-जैसा। प्रकारान्तर से यह सोहर समाज में लिंग-भेद पर श्वेतपत्र जारी करता नजर आता है।
अब मैं सोहर के प्रथम रूप, अर्थात् शिशु-जन्म के पूर्व की स्थिति से आपका साक्षात्कार कराना चाहता हूँ।
एक गर्भवती स्त्री है, जिसके पास इस समय न तो पति है और न ही सास-ननद। पति कमाने के लिए विदेश गया है तो सासु माँ अपने नैहर, जबकि ननद अपनी ससुराल बस रही है। इस समय घर में मात्र एक अबोध देवर है। सुनिए तो अपना दुखड़ा कैसे सुना रही है-
‘‘परभु मेरा बसै बिदेस, कि दूर देस बसै न रे।
ललना रे, केकरा कहब दिल के बात चढ़ल मास तेसर रे।।
सासु मोरा बसै नैहर, ननद सासुर बसै रे।
ललना रे, घर में देवर छै नदान, चढ़ल मास चारिम रे।।
बाह-बटोहिया से तहुँ मोरा भैया न रे।
ललना रे, लेने जाहो पिया के समाद, चढ़ल मास पाँचम रे।।
इसतरह, वह स्त्री अपने गर्भ के पूरे नौ महीनों का लेखा-जोखा रख देती है।
मैं यह दिखाना चाह रहा था कि जैसे-जैसे गर्भ पुष्ट होता जाता है, वैसे-वैसे सोहर भी शुरू होता जाता है। कभी तो स्वयं गर्भिणी घबराहट में या फिर माँ बनने की खुशी में सोहर गाती है और कभी घर तथा आसपास की स्त्रियाँ सोहर गाने लगती हैं। उपरिलिखित सोहर गर्भिणी के मुख से निस्सृत है।
ज्ञातव्य है कि जन्मपूर्व ‘सोहर’ का सम्बन्ध मान्यता प्राप्त सोलह संस्कारों में से प्रथम चार सस्कारों – गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन तथा जातकर्म से है।
गर्भिणी पुत्र को ही जन्म दे, इसके लिए पुत्रेच्छुक पुरुषों को अर्धरात्रि के बाद अष्टमी को छोड़ सम रात्रियों; यथा-चतुर्थी, षष्ठी, दशमी, द्वादशी, चतुर्दशी इत्यादि तिथियों में ही गर्भाधान करने की सलाह दी गयी है।
गर्भ के तीसरे माह में पुंसवन संस्कार के बाद ‘सोहर’ गाने की परम्परा शुरु हो जाती है। यह संस्कार मंगलकारी पुष्य नक्षत्र में सम्पन्न किया जाता था। रात में वटवृक्ष की छाल का रस गर्भिणी के दाएँ नासिका-छिद्र में डाला जाता था, ताकि गर्भपात न हो, साथ ही, शिशु हृष्ट-पुष्ट और सुन्दर हो।
गर्भ के चौथे माह में सीमन्तोन्नयन-संस्कार सम्पन्न कराने की परम्परा रही है। इसमें गर्भिणी के केशों को सुगन्धित तेल से सिक्त कर ऊपर की ओर सँवारा जाता था। सीमन्त+उन्नयन = सीमन्तोन्नयन का शाब्दिक अर्थ यों तो ‘माँग’ को ऊपर की ओर उठाना है, किन्तु ‘सीमन्त’ शब्द यहाँ सामने की केश-राशि का वाचक बनकर आया है। यह संस्कार मूलतः गर्भस्थ शिशु को दुष्ट शक्तियों से बचाने के लिए किया जाता था। एक और वैदिक मन्त्रोक्त विधान होता था, जिसमें गर्भिणी खिचड़ी की आहुति देती थी, साथ ही, खिचड़ी ही खाती थी।
उपस्थित बड़ी-बुजुर्ग महिलाएँ ‘वीरप्रसू’, अर्थात् वीर पुत्र की माता बनने का आशीर्वाद दिया करती थीं। लोक-परम्परा में यह चीज ‘सोहर’ के रूप में सामने आयी।
पुत्र-जन्म के पश्चात् जातकर्म-संस्कार सम्पन्न होता था। मनुस्मृति के अनुसार, नाल (नार) काटने के पूर्व यह संस्कार कराया जाता था। शिशु का पिता स्नानोपरान्त विधि-विधानपूर्वक ‘नान्दीमुख’ नामक अनुष्ठान किया करता था। परिजन-पुरजन के साथ-साथ पुरोहित नवजात शिशु को आशीर्वादित करते थे। कालान्तर में इसके समानान्तर वैदिक और लौकिक का मिश्रित रूप प्रचलन में आया। ‘सोहर’ संभवतः इसी का सर्वथा लोकान्तरित रूप है।
अब प्रश्न खड़ा होता है कि ‘सोहर’ शब्द आया कहाँ से? ‘शब्द’ के रूप में इसके जन्म को लेकर लोकसाहित्य के लेखकों-विचारकों में मतभेद है।
विद्वानों का एक वर्ग मानता है कि ‘सोहर’ शब्द का विकास ‘सूतिकागृह’ या ‘सौरगृह’ से हुआ है। इस वर्ग में डाॅ. गोविन्द चातक, डाॅ. अमरेन्द्र प्रभृति आते हैं। पहले इस मत की पड़ताल कर लें, तब फिर अन्य अभिमतों की।
सूतिकागृह से सोहर की विकास-यात्रा:
सूत+कन्+टाप्, इत्वम् = सूतिका का अर्थ होता है वह स्त्री, जिसने कुछ काल पूर्व शिशु को जन्म दिया है। ग्रह+क् =गृह (म्) का अर्थ होता है- घर, भवन आदि। दूसरे शब्दों में, शिशु को जन्म देनेवाली स्त्री का भवन। इसतरह, ‘सूतिकागृह’ एक समस्त पद है। यह षष्ठी तत्पुरुष समास का उदाहरण हैं
अब प्रश्न है ‘सूतिकागृह’ का पूर्वार्ध (सूतिका) ‘सोहर’ के ‘सो’ तथा उत्तरार्ध (गृह) ‘हर’ में कैसे परिवर्तित हो गये? चलिए देखते हैं।
सूतिका > सूइआ (व्यंजनध्वनिलोप में) > स्वेआ (इकोयणचि, अर्थात् यण् स्वरसन्धि) > स्वे (ध्वनिलोप) > सो (?)
गृह > ऋह > रिह (मुख-सुख) > रह (स्वरलोप) > हर (वर्ण-विपर्यय)
इसतरह, ‘सोहर’ शब्द की व्युत्पत्ति-प्रक्रिया मानी जा सकती है। ‘गृह’ से ‘हर’ बनने की प्रक्रिया तो सहज प्रतीत होती है, किन्तु सूतिका से ‘सो’ की निर्माण-प्रक्रिया विश्वसनीय प्रतीत नहीं होती।
2. सौरगृह से ‘सोहर’ की विकास-यात्रा:
‘सौरगृह’ भी समस्त पद है। इसका पहला पद ‘सौर’ विशेषण है, जबकि उत्तरपद ‘गृह’ विशेष्य। विशेष्य-विशेषण सम्बन्ध होने से यह समानाधिकरण तत्पुरुष समासान्तर्गत कर्मधारय का उदाहरण है – ‘विशेषणं विशेष्येण बहुलम्’ (अ.: 2/1/67), अर्थात् यदि प्रथम पद विशेषण हो और द्वितीय पद विशेष्य तो उस समस्तपद को विशेषणपूर्वपद कर्मधारय कहते हैं।
सूर (सूर्य) +अण् (प्रत्यय) = सौर के कई अर्थ होते हैं; यथा – सूर्य-सम्बन्धी दिव्य, सूयोपासक, सूर्य की सन्तान (यम, यमी, मनु, शनि, ताप्ती, अश्विनी कुमार), सौर दिन, सौर मास, सौरलोक (जिसमें 30 बार सूर्योदय और 30 बार सूर्यास्त होता है।) इत्यादि।
‘सौरगृह’ से ‘सोहर’ की विकास-प्रक्रिया इसतरह दिखाई जा सकती है-
सौर > सोर (मुख-सुख से) > सो (व्यंजन ध्वनिलोप से) = सो
अथवा
सौर > सौअ (व्यंजन-लोप) > सौ (स्वर-लोप) > सो (मुख-सुख) = सो
गृह > ऋह > रिह (मुख-सुख) > रह (स्वरलोप) > हर (वर्ण विपर्यय) = हर
जिज्ञासा होती है कि सूर्य से जच्चाघर का क्या संबंध? उत्तरस्वरूप दो संभावनाएँ बनती हैं, जो निम्नलिखित हैं –
(क) सूर्य की मूल पत्नी ‘सरण्यू’ (संज्ञा) ने जिस स्थान पर यम-यमी नामक जुडु़वाँ बच्चों को जन्म दिया होगा, वह स्थान सौरगृह कहलाया होगा अथवा सूर्य की दूसरी पत्नी ‘सरण्यू’ की अनुकृति ‘सवर्णा’/‘छाया’ ने जिस स्थान पर मनु (पुत्र), शनि (पुत्र) और ताप्ती (पुत्री) का प्रसव किया होगा, वह सौरगृह कहलाया होगा।
कालान्तर में, अर्थविस्तार’ होने के कारण हर आम या खास जन्मस्थल सौरगृह के नाम से ख्यात या रूढ़ हो गया होगा।
फलस्वरूप, सौरगृह का अर्थ हो गया- जन्मस्थान।
पूरी संभावना है कि नवजात शिशुओं को वैदिक मन्त्रों/सूक्तों से अभिमन्त्रित किया गया होगा। इसी मन्त्रोच्चार/सूक्तोच्चार ने लौकिक आचार में ‘सोहर’ का रूप ले लिया। आशीर्वाद का तरीका बदला। वेद पीछे छूट गया और उसकी जगह ‘लोक’ शब्द क्रमश: प्रतिष्ठित होता गया।
(ख) धरती पर ‘सौर’ (सूर्य) का प्रतिनिधित्व अग्नि करती है। दीपक भी रात्रिकालीन प्रतिनिधि कहलाता है। जच्चाघर में अग्नि/दीपक का प्रज्वलन प्रकारान्तर से सौरलोक/सौरशक्ति का प्रख्यापन है।
सारांश यह कि ‘सौरगृह’ से ‘सोहर’ का विकास माना जा सकता है।
डाॅ. कृष्णदेव उपाध्याय प्रभृति खोजी विद्वानों ने ‘सोहर’ को दो स्रोतों से व्युत्पन्न माना है। एक स्थल पर वे इसका संबंध ‘शोभिल’ से जोड़ते हैं, जबकि दूसरे स्थल पर ‘शोभन’ से।
3. ‘शोभिल’ से ‘सोहर’ की विकास-यात्रा:
शोभा (विशेष्य)+ इलच् (प्रत्यय) = शोभिल (विशेषण) का अर्थ शोभायुक्त/शोभावान्/शोभनीय होता है। व्याकरण की दृष्टि से ‘साधु’ (प्रशस्त) होते हुए भी इसका प्रयोग न तो वैदिक साहित्य और न ही लौकिक साहित्य में मिलता है। अस्तु, जटा+इलच्=जटिल, पंक+इलच्=पंकिल जैसे शब्द प्रयोग में हैं। प्रश्न है, जब शोभिल का प्रयोग मिलता ही नहीं है, तब ‘सोहर’ का विकास उससे कैसे मान लिया गया? जो हो, इसकी विकास-प्रक्रिया यों दिखाई जा सकती है:
शोभिल > सोहिल > सोहल > सोहर
घर-परिवार में बच्चे का जन्म शोभाकारक होता है। वह स्वयं में भी शोभा है। हर्षपूर्वक शोभाकारक पदार्थों से घर-द्वार को सुसज्जित करना, जच्चे-बच्चे तथा नाल काटनेवाली बुआ को नये परिधान और आभूषण पहनाकर सम्मानित करना-जैसी शोभनीय गतिविधियाँ इसके प्रमाण हैं। कुछ जनपदीय लोकगीतों में सोहिल/सोहल/सोहेला/सोहिले का प्रयोग मिलना इसकी ओर संकेत करता है।
4. शोभन से सोहर की विकास-यात्रा:
शुभ>ल्युट् = शोभन (विशेषण) के कई अर्थ होते हैं; जैसे- सुन्दर, मनोहर, शुभ्र, चमकीला, शानदार, सौभाग्यशाली, सुसज्जित इत्यादि।
‘शुभ’ के तीन धात्वर्थ होते हैं-
पहला, ‘शुभ् दीप्तौ’ (अ. 1/501), आत्मनेपद धातु अर्थात् चमकना, प्रकाशित होना, देदीप्यमान होना इत्यादि के अर्थ में प्रयुक्त ‘शुभ्’ आत्मनेपद धातु है, जिसका रूप यों चलेगा-
शोभते-शोभेते- शोभन्ते।
दूसरा, ‘शुभ् शोभार्थे’ (6/33), परस्मैपद धातु
अर्थात् शोभना, शोभित/शोभायमान होना आदि के अर्थ में प्रयुक्त ‘शुभ्’ परस्मैपद धातु है, जिसका रूप यों चलेगा-
शुभति-शुभतः-शुभन्ति।
तीसरा, ‘शुभ् भाषणे’ (1/295), परस्मैपद धातु
अर्थात् बोलने, भाषण करने आदि के अर्थ में प्रयुक्त परस्मैपद धातु ‘शुभ्’ का रूप इसतरह चलेगा-
शोभति-शोभतः-शोभन्ति
उपरिविवेचित तीनों धात्वर्थों में दूसरा, अर्थात् शोभार्थक ‘शुभ्’ प्रसंगोचित प्रतीत होता है। शिशु के आगमन से घर की शोभा बढ़ जाती है, सबके मुखमण्डल पर प्रसन्नता छा जाती है। यही इसका औचित्य है।
आइए, ‘शोभन’ से ‘सोहर’ की विकास-यात्रा पर विचार करें:
शोभन > सोभन (मुख-सुख से) > सोहल (मुख-सुख से; यथा- नम्बरदार से लम्बरदार, नंगा से लंगा) > सोहर (रलयोऽर्भेदः; यथा- हल्दी से हरदी, दीवाल से दीवार आदि)
इसतरह, शोभार्थक विशेषण शब्द ‘शोभन’ से ‘सोहर’ का विकास-क्रम अपेक्षाकृत अधिक स्वाभाविक प्रतीत होता है; फलस्वरूप, स्वीकार्य भी।
5. ‘सुघर’ से ‘सोहर’ की विकास- प्रक्रिया:
कोई-कोई विद्वान् ‘सोहर’ का विकास ‘सुघर’ से निश्चित करते हैं। वास्तविकता यह है कि स्वयं ‘सुघर’ शब्द संस्कृत के ‘सुघट’ से विकसित हुआ है। ‘सुघट’ का अर्थ ‘अच्छी तरह बना हुआ/रचा हुआ’ होता है। इसका अन्य अर्थ सुन्दर/मनोहर होता है। जो चीज अच्छी तरह बनी होती है, प्रायः सुन्दर/मनोहारी होती है। इसका सम्पूर्ण विकास-क्रम इसप्रकार स्वरूपित होता है
सुघट(विशेषण) > सुघड़(उत्क्षिप्तीकरण) > सुघर (मुखसुख) > सुहर (व्यंजनलोप) > सोहर (मुख-सुख से कण्ठोष्ठीकरण)।
आप देख रहे हैं कि ‘सुघर’ शब्द बिल्कुल मध्य में स्थित है- दो आगे, दो पीछे। सच पूछिए तो ‘सुघर’ का सम्बन्ध निर्माण-प्रक्रिया से है। यह रूपात्मक अधिक है, भावात्मक कम। दूसरी ओर ‘सोहर’ का सम्बन्ध भाव/संवेग (इमोशन्स) से होता है। संभवतया जो लोकगीत अच्छी तरह छन्दोबद्ध या लयबद्ध हो, उसे ‘सोहर’ कहा जाता। किन्तु, इसतरह तो कई लोकगीतों का विकास ‘सुघर’ से जोड़ना होगा। आप ध्यान से ‘सोहर’ की बनावट-बुनावट पर विचार करेंगे तो पाएँगे कि मात्राओं की रक्षा नहीं हो सकी है या नहीं हो सकती। पर, दो बातों पर अमल होता ही है- पहली, ‘ललना’ की टेक और दूसरी, तुकान्त।
इसलिए, मेरे मतानुसार, ‘सुघर’ से सोहर का विकास मानना उचित नहीं होगा।
यह मेरे लिए एक कठिन ‘टास्क’ था। इसके समाधान में मैं कहाँ तक सफल हो सका, पता नहीं। आगे फिर मिलूँगा। तब तक कोरोना से बचिए और बचाइए। नमस्ते!
डाॅ. बहादुर मिश्र