BNMU। पीआरओ की पीड़ा/ डॉ. सुधांशु शेखर

पीआरओ की पीड़ा
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मैं मूलतः एक पत्रकार हूँ। मैंने स्नातक के अध्ययन के दौरान ही ‘प्रभात खबर’, भागलपुर से सक्रिय पत्रकारिता की शुरूआत की थी और उन्हीं दिनों मैं कई सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक संगठनों में भी सक्रिय था। उन दिनों पत्रकारिता की पृष्ठभूमि से आने के कारण मुझे विभिन्न संगठनों द्वारा कार्यक्रमों की विज्ञप्ति लिखने का भार दे दिया जाता था। कई संगठनों ने मुझे घोषित एवं अघोषित रूप से अपना अवैतनिक मीडिया प्रभारी बना लिया था। उन दिनों हम हाथ से सादे कागज पर लिखकर ‘प्रेस-विज्ञप्ति’ भेजते थे और पत्रकारिता की पृष्ठभूमि के साथ-साथ मेरी थोड़ी अच्छी हेंडराइटिंग भी मेरे लिए ‘सजा’ हो गई थी।

अदावतें मुश्किल से मरती हैं…
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इधर, बी. एन. मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर बनने के बाद मेरी उसी पुरानी पृष्ठभूमि ने मुझे जनसंपर्क पदाधिकारी (पीआरओ) बना दिया। मैंने भी इस काम को सहर्ष स्वीकार कर लिया। कहते हैं कि “आदतें एवं अदावतें बड़ी मुश्किल से मरती हैं” और “चोर चोरी से जाए तुम्बाफेरी से न जाए।” मैं भी बन तो गया था असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, लेकिन आदतें तो पत्रकार वाली थीं। मैंने सोचा कि पत्रकार नहीं, तो पीआरओ ही सही।

फिर जब मेरी लिखी ‘सच्ची-झूठी’ खबरें एक साथ दर्जनों जगहों पर छपने लगीं, तो मुझे पीआरओ के काम में और भी मजा आने लगा- “भला मीठा जहर कम मजेदार थोड़े ही होता है!”

अखबार में नाम…
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बहरहाल, किसी विश्वविद्यालय के पीआरओ के रूप में काम करना किसी संगठन के मीडिया प्रभारी के रूप में काम करने से बहुत बड़ा है। यह बड़ी जिम्मेदारी है और इसमें खतरे एवं चुनौतियां भी अधिक हैं।

लेकिन लोगों की मुझसे तब जो मुख्य शिकायत थी, आज भी वही है- “अखबार में मेरा नाम क्यों नहीं छपा ? कुछ लोगों के नाम का ‘डाॅ.’ छुट जाए, या उनका उपनाम अथवा जाति सूचक टायटल छूट जाता है, तो भी वे सिर पर आसमान उठा लेते थे। कुछ लोगों की शिकायत होती थी कि पूरा नाम क्यों नहीं दिया ?

कई बार जल्दबाजी में सचमुच महत्वपूर्ण व्यक्ति का भी नाम छुट जाता है। कई बार अखबार वाले किसी का नाम छोड़ देते हैं और किसी का ‘टायटल’ छोड़ देते हैं। कुछ नाम देना काफी कठिन भी होता है, उदाहरण के लिए बड़े भाई ‘विजय सिंह यादव धावक बिहारी टाइगर गाँधी’ का नाम देखें।

इसके बावजूद मैं यथासंभव ऐसी शिकायतों का समाधन करने का प्रयास करता हूँ। उदाहरण के लिए एक बार हमारे विश्वविद्यालय के एक विभागाध्यक्ष महोदय ने बड़ी विनम्रतापूर्वक कहा कि वे पी-एच. डी. नहीं हैं, इसलिए उनके नाम के आगे ‘डाॅ.’ नहीं लगाया जाए। इसके पूर्व एक संकायाध्यक्ष महोदय ने भी मुझे उनके नाम में हुई गलती को सुधारने में मदद की थी। यह सब बहुत अच्छा लगता है।

लेकिन पीड़ा तब होता है, जब कोई अनाधिकारपूर्वक यह कहने लगता है कि मैंने उनका नाम और भाषण क्यों नहीं लिखा ? पीआरओ बनने के कुछ महीनों बाद ऐसे ही एक वाक़ये का मैं पहले भी अपने एक फेसबुक पोस्ट में जिक्र कर चुका हूँ।

दरअसल मैंने एक बैठक की खबर जैसे ही ‘मीडिया : बीएनएमयू संवाद’ ग्रुप में डाली, तत्क्षण मुझे एक शिक्षक का फोन आ गया कि मैंने उनका भाषण क्यों नहीं लिखा ? (शायद मेरे एक पत्रकार मित्र ने उन्हें मेरे द्वारा भेजा गया ‘न्यूज’ बता दिया था!) मैंने कहा कि आपको अपनी बात छपबानी हो, तो आप खुद अखबार में दे दीजिए। इस पर वे भड़क गए। इसके बावजूद मैंने बात को ज्यादा तुल नहीं दिया।

इसी तरह कई लोगों की यह शिकायत रहती है कि मैं कार्यक्रम के न्यूज़ में सिर्फ कुलपति, प्रति कुलपति और मंचस्थ अतिथियों का ही वकतव्य देता हूँ, उनका वक्तव्य छोड़ देता हूँ। वैसे सभी सम्मानित देवियों एवं सज्जनों से विनम्र अनुरोध है कि आप किसी कार्यक्रम में मंचस्थ होइए या कोई व्याख्यान दीजिए मैं आपका पूरा ‘कवरेज’ करूँगा।

इसी तरह कुछ महीनों पूर्व मेरे महाविद्यालय के एक वरिष्ठ शिक्षक ने मुझे एक दिन सुबह-सुबह फोन करके कहा कि आप अपने आपको समझते क्या हैं ? मेरा नाम अखबार में क्यों नहीं दिए ? क्या मैं आपको दिखाई नहीं दिया था ? मैंने कहा कि साॅरी सर गलती से छूट गया है। उन्होंने तुरंत पलटवार कर कहा कि ‘फलाने’ का नाम तो किसी दिन नहीं छूटता है ? बस मुझे गुस्सा आ गया। फिर मैंने कहा कि आप भी फलाने वाले के पद पर चले जाइए, तो आपका भी नाम नहीं छूटेगा।

इसके बावजूद बीच-बीच में कई लोगों की यह शिकायत मिलते ही रहती है कि समाचार में उनका नाम क्यों नहीं दिया गया ? कई बार कुछ महत्वपूर्ण व्यक्ति का नाम भूलबस या जल्दबाजी में छूट जाता है। कई बार पत्रकारों के पास जगह की कमी रहती है। लेकिन मुख्य बात यह है कि हम एक खबर में कितनों का नाम दें ? दस, बीस, तीस… कहीं तो यह संख्या रूकेगी ही। जाहिर है कि सभी व्यक्ति का नाम देना संभव नहीं है।

ऐसे में खबर लिखते हुए हमें उस खबर से संबंधित महत्वपूर्ण व्यक्ति के नाम को प्राथमिकता देनी होती है। यदि विश्वविद्यालय में कोई कार्यक्रम है, तो कुलपति, प्रति कुलपति, वित्तीय परामर्शी, डीएसडब्लू, कुलानुशासक, सीसीडीसी, कुलसचिव, वित्त पदाधिकारी, परीक्षा नियंत्रक, महाविद्यालय निरीक्षक (कला एवं वाणिज्य) महाविद्यालय निरीक्षक (विज्ञान) आदि पदाधिकारियों और चार-पाँच विभिन्न संकायों के अध्यक्षों, सिंडिकेट एवं सीनेट के माननीय सदस्यों का नाम देना हमारी बाध्यता है और अंत में अपना नाम देने का भी लोभ रहता है।

ऐसे में कई बार अन्य पदाधिकारियों और सभी विभागाध्यक्षों, सभी प्रधानाचार्यों का नाम भी नहीं दे पाते हैं। इसके बावजूद हमारे कुछ ‘अन्य’ सहकर्मियों की भी इच्छा होती है कि मैं सभी न्यूज में उनका नाम दूँ। ऐसी चाहतों को पूरा करने में मैं असमर्थ हो जाता हूँ। इससे वे नाहक दुखी हो जाते हैं।

ऐसे ही एक सहकर्मी ने आज (02 जनवरी, 2020 को) मुझसे मेरे कार्यालय के पास मिलकर कहा कि मैं उनका नाम क्यों छोड़ देता हूँ ? मैंने उनसे कहा कि यदि मैंने आपसे किसी कम महत्वपूर्ण व्यक्ति का नाम देकर आपका नाम नहीं दिया है, तो मुझे कहिए। अन्यथा मेरी मजबूरी समझिए। मैं सभी व्यक्ति का नाम नहीं दे सकता और सभी का नाम छपबा भी नहीं सकता हूँ। लेकिन वे मुझसे संतुष्ट नहीं हुए- रुष्ट ही रहे।

बहरहाल, यह कोई खास बात नहीं है। वे मेरे मित्र हैं, कब तक नाराज रहेंगे ? और नाराज रहेंगे भी, तो मैं क्या कर सकता हूँ ? मैं कितनों को खुश रख सकता हूँ! लोग मुझसे नाराज रहें, मेरी बुराई करें कोई बात नहीं।

दुश्मनी क्यों मोल ले रहे हैं ?
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इसी तरह अक्टूबर 2018 के एक वाकये ने मुझे उद्देलित कर दिया था। उस दिन मैें सुबह से ही विभिन्न कार्यक्रमों में कुलपति महोदय के साथ रहा। शाम के करीब 6 बजे मैं कुलपति आवास से पैदल ही अपने आवास जा रहा था।

विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर एक कर्मचारी ने मुझे देखते ही कहा, “आपने अखबार में मेरा नाम नहीं दिया। मेरे ही विभाग की बैठक वाले खबर में।” मैंने कहा, “किस खबर में ?” उन्होंने बताया। लेकिन वे उस बैठक में सदस्य नहीं थे, तो मैं उनका नाम कैसे दूँ ? इसके बावजूद मैं बिना कुछ जवाब दिए ही चल दिया। फिर उन्होंने पास बैठे गार्ड आदि को सुनाते हुए मुझसे कहा, “आप तो बहुत अच्छे आदमी हैं। दुश्मनी क्यों मोल ले रहे हैं ?” इस टिप्पणी से मैं काफी आहत हुआ था। खैर बात आई गई हो गई।

दिल है कि मानता नहीं…
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यहाँ मैं विनम्रतापूर्वक यह बताना चाहता हूँ कि मैं बिना किसी अतिरिक्त मानदेय या प्रोत्साहन भत्ता के अकेले दम पर करीब साढ़े तीन वर्षों से ‘पीआरओ’ का काम कर रहा हूँ। अपने वेतन के पैसे से मोबाइल रीचार्ज कराता हूँ और पैदल या अपनी मोटर साइकिल से चलता हूँ। न कोई कंटिन्जेंसी है और न कोई कार्यालय सहायक। मोबाइल पर न्यूज लिखते-लिखते मेरी ऊंगलियों में दर्द होने लगा है और आंखों की रोशनी कम होने लगी है। साथ ही अक्सर अंतरात्मा भी कहती है कि अब तो बस करो!

लेकिन मैं हूँ कि रूकने का नाम ही नहीं ले रहा हूँ- “दिल है कि मानता नहीं।” इसे आप झूठी लोकप्रियता का जुनून कहिए या पत्रकारिता का जिन्न। मैं अपने कई असली शुभचिंतकों द्वारा बारबार इस कार्य को छोड़कर अध्ययन-अध्यापन को प्राथमिकता देने की सलाह पर अमल नहीं कर रहा हूँ और आज भी पीआरओ की भूमिका के सम्यक् निर्वहन की हरसंभव कोशिश कर रहा हूँ।

कारणपृच्छा का प्रसाद…
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बावजूद इसके विश्वविद्यालय से कभी भी सकारात्मक खबर ‘कवरेज’ पर सराहना के ‘दो शब्द’ भी नहीं मिला है। हाँ, यदि विश्वविद्यालय की ही गलतियों से भी कोई नकारात्मक खबर छप जाती है, तो उसमें मेरी तनिक भी भूमिका नहीं होने के बावजूद मुझसे जवाब-तलब किया जाता है।

इतना ही नहीं अब तक तोहफा के रूप में दो बार वेबजह अनुपस्थिति घोषित कर ‘एटेंडेंस’ काटा गया है और दो ‘शो काऊज’ भी मिला है। फरवरी 2020 में सीनेट की बैठक में अनुपस्थित रहने के कारण कर्तव्यहीनता के आरोप में कारणपृच्छा हुई थी। स्पष्टीकरण देने के बावजूद आजतक उस आरोप से मुक्ति नहीं मिली है।

‘संवाद’ की शुरूआत…
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इधर, ‘लाॅकडाउन’ के दौरान विश्वविद्यालय की सकारात्मक सूचनाओं एवं गतिविधियों का प्रचार-प्रसार हेतु मैंने अपने वेतन के करीब दो लाख रुपये खर्च कर ‘बीएनएमयू संवाद’ य्-ट्यूब चैनल और न्यूज पोर्टल की शुरूआत की है। इससे आम जनमानस को काफी लाभ हो रहा है।

लेकिन लोग इस पर भी सवाल उठाते रहते हैं। कई सवाल हैं, जैसे बीएनएमयू नाम क्यों रखे ? ‘फलाने’ आदमी ने भाषण क्यों कराया ? फलाने आदमी ने अपने ‘फेसबुक’ या ‘वाट्सप’ में ‘बीएनएमयू संवाद’ क्यों लिखा ? विश्वविद्यालय से ‘अनुमति’ लिए हैं ?

मैं यह बताना चाहता हूँ कि मेरी जानकारी में बीएनएमयू नाम रखना न तो प्रतिबंधित है, न ही अवैध और न ही अनाधिकृत। फिर ‘संवाद’ में मैं किसी को भी ‘अछूत’ नहीं मानता हूँ, वह किसी भी विचारधारा का क्यों न हो। यहाँ संवैधानिक दायरे में रहते हुए किसी का भी भाषण/ व्याख्यान हो सकता है। जो लोग अपने ‘फेसबुक’ या ‘वाट्सप’ में ‘बीएनएमयू संवाद’ लिख रहे हैं, मैं किसी के कहने से उन्हें ऐसा करने से रोकने वाला नहीं हूँ। भला जो लोग बिना किसी स्वार्थ के मेरा प्रचार-प्रसार कर रहे हैं, मैं उनको क्यों रोकूँ ? मैं तो उनके प्रति आभारी हूँ। मैं तो सबों को आमंत्रित करता हूँ कि आइए बीएनएमयू के विकास में, इसकी छवि सुधारने में अपना बहुमूल्य सहयोग दीजिए। सबका स्वागत है।

रही बात ‘अनुमति’ की, तो इसके लिए मेरा प्रस्ताव ‘प्रक्रियाधीन’ है। फिर मुख्य बात यह है कि मैं अपने स्तर से अच्छा या बुरा यह काम कर रहा हूँ और इसके लिए पूरी तरह मैं ही जिम्मेदार हूँ। इसका जो भी अच्छा या बुरा परिणाम होगा, वह मुझे स्वीकार्य है।

दो पाटन के बीच में…
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अंत में मैं यह बताना चाहता हूँ कि पीआरओ की कुछ अलग ही पीड़ा है। वह विश्वविद्यालय प्रशासन एवं मीडिया (दो पाटन) बीच पीसते रहता है। कुछ पत्रकार साथी साफ-साफ कहते हैं कि पीआरओ के बीच में आने के कारण मीडिया विश्वविद्यालय प्रशासन से दूर हो गया है और पत्रकारों का ‘वेल्यू’ कम हो गया है। इधर, विश्वविद्यालय प्रशासन से पत्रकारों को ‘दीक्षांत समारोह’ जैसे कार्यक्रम का ‘इंट्री कार्ड’ दिलाने में भी पीआरओ को मशक्कत करनी पड़ती है। इसी छोटी-छोटी चीजों में भी विश्वविद्यालय प्रशासन पीआरओ को नियम-कानून एवं परंपरा सीखाने लगता है और मीडिया के लिए कोई भी सुविधा देने से कतराता है।

लेकिन जब इस बात को लेकर या किसी अन्य बातों को लेकर पत्रकार उच्चाधिकारियों के समक्ष अपना विरोध दर्ज करते हैं, तो ‘माननीय’ लोग साफ-साफ कह देते हैं कि यह तो पीआरओ की जिम्मेदारी है। यहाँ ‘माननीय’ लोग ऐसा जताते हैं कि मानो पत्रकारों का उनसे बड़ा कोई ‘शुभचिंतक’ हो ही नहीं! एक बार तो एक ‘प्रेस कांफ्रेंस’ में ऐसी स्थिति बन गई, तो न चाहते हुए भी मुझे ‘माननीयों’ की बातों का सार्वजनिक रूप से ‘प्रतिउत्तर’ देना पड़ा था।

एक विशेष संदर्भ…
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आप सभी जानते हैं कि एक पत्रकार प्रत्येक दिन पीआरओ की मदद करता है, उसके द्वारा उपलब्ध कराई गई खबरों को अपने अखबार, न्यूज़ पोर्टल या चैनल में प्रकाशित-प्रसारित कर। लेकिन यदि किसी मीडियाकर्मी को पीआरओ से कोई काम पड़ जाए, तो कई बार पीआरओ उसे पूरा नहीं कर पाता है। पत्रकारों के छोटे-छोटे नियमसंगत कामों को कराने में भी पीआरओ को काफी मशक्कत करानी पड़ती है और कई बार तो पत्रकारों से माफी माँगते हुए हाथ खड़ा करना पड़ता है। पिछले साल की बात है मेरे लाख प्रयत्न के बावजूद एक वरिष्ठ पत्रकार की बहन का रिजल्ट ठीक नहीं हो पाया। दरअसल छात्रा की उत्तर पुस्तिका में एक प्रश्न के उत्तर हेतु आवंटित 6 अंक को अंकों के योग में नहीं जोड़ा गया था। इसके कारण वह एक अंक से अनुत्तीर्ण घोषित कर दी गई थीं। इसमें छात्रा की कोई गलती नहीं होने के बावजूद उनका रिजल्ट ठीक नहीं हुआ और पीआरओ का सभी प्रयास बेकार हुआ। यह है इस व्यवस्था में पीआरओ एवं पत्रकारों की असली हैसियत! लेकिन फिर भी हम भ्रम में जीते हैं कि पीआरओ है, तो मुमकिन है- पत्रकार है, तो मुमकिन है!

वर्तमान प्रसंग…
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इधर दो-तीन दिनों से  यह खिन्नता कुछ अधिक बढ़ गई है। इसकी शुरुआत 31 दिसंबर, 2020 की शाम से हुई है। उस दिन मेरे एक अत्यंत प्रिय पत्रकार मित्र ने अपने बड़बोलापन एवं उतावलेपन से माननीय कुलपति महोदय के पास मेरे बारे में अनावश्यक एवं बेबुनियाद टिप्पणी कर मुझे दुखी कर दिया। मैंने बड़ी मुश्किल से उस दुख से निजात पाया।

अब एक दिन बाद ही आज (02 जनवरी, 2020 को) सिंडिकेट की बैठक के दौरान पत्रकार साथियों के साथ घटी एक अप्रिय घटना से अत्यंत दुखी हूँ। विश्वविद्यालय के उच्चाधिकारी द्वारा खेद व्यक्त करने के बाद आज तो मामला शांत हो गया है, लेकिन यह आगाज शुभ संकेत नहीं है। हमें यह समझना होगा कि जनसंपर्क (पब्लिक रिलेशन या मीडिया- मेनेजमेन्ट) एक अत्यंत ही संवेदनशील मामला है। हमें इसे गंभीरता से लेने की जरूरत है।

प्रतिबद्धता एवं प्राथमिकता…
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मैं साफ-साफ शब्दों में कहना चाहता हूँ कि एक शिक्षक एवं पीआरओ के रूप में मेरी प्रतिबद्धता विश्वविद्यालय के साथ है, लेकिन मीडिया के मान-सम्मान में कोई कमी न हो यह पीआरओ के रूप में मेरी सर्वोच्च प्राथमिकता है। हम इसके अतिरिक्त मीडिया को कुछ दे भी नहीं सकते हैं और प्रायः मीडियाकर्मी कुछ अन्य की अपेक्षा भी नहीं रखते हैं।

बहरहाल, मैं न केवल जनसंपर्क पदाधिकारी के रूप में, बल्कि व्यक्तिगत अपनी ओर से भी मीडिया के सभी साथियों से क्षमाप्रार्थी हूँ। मुझे आशा ही नहीं, वरन् पूर्ण विश्वास है कि नववर्ष में हमें आप सबों का प्रेम एवं सहयोग पूर्ववत मिलता रहेगा। बहुत-बहुत धन्यवाद, आभार एवं नमस्कार।
-सुधांशु शेखर, मधेपुरा, बिहार

पीआरओ की पीड़ा
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मैं मूलतः एक पत्रकार हूँ। मैंने स्नातक के अध्ययन के दौरान ही ‘प्रभात खबर’, भागलपुर से सक्रिय पत्रकारिता की शुरूआत की थी और उन्हीं दिनों कई सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक संगठनों में भी सक्रिय था। उन दिनों पत्रकारिता की पृष्ठभूमि से आने के कारण मुझे विभिन्न संगठनों द्वारा कार्यक्रमों की विज्ञप्ति लिखने का दायित्व दे दिया जाता था। कई संगठनों ने मुझे घोषित एवं अघोषित रूप से अपना अवैतनिक मीडिया प्रभारी बना लिया था। उन दिनों मैं हाथ से कोरे कागज पर लिखकर ‘प्रेस-विज्ञप्ति’ भेजता था । पत्रकारिता की पृष्ठभूमि के साथ-साथ थोड़ी अच्छी ‘हेंडराइटिंग’ भी मेरे लिए ‘सजा’ हो गई थी।

अदावतें मुश्किल से मरती हैं…
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इधर, बी. एन. मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर बनने के बाद मेरी उसी पुरानी पृष्ठभूमि ने मुझे जनसंपर्क पदाधिकारी (पीआरओ) बना दिया। मैंने भी इस काम को सहर्ष स्वीकार कर लिया। कहते हैं कि “आदतें एवं अदावतें बड़ी मुश्किल से मरती हैं” और “चोर चोरी से जाए तुम्बाफेरी से न जाए।” मैं भी बन तो गया था असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, लेकिन आदतें तो पत्रकारों वाली थीं। मैंने सोचा कि पत्रकार नहीं, तो पीआरओ ही सही।

फिर जब मेरी लिखी ‘सच्ची-झूठी’ खबरें एक साथ दर्जनों जगहों पर छपने लगीं, तो मुझे पीआरओ के काम में और भी मज़ा आने लगा- “भला मीठा ज़हर कम मजेदार थोड़े ही होता है!”

अखबार में नाम…
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बहरहाल, किसी विश्वविद्यालय के पीआरओ के रूप में काम करना किसी संगठन के मीडिया प्रभारी के रूप में काम करने से बहुत बड़ा है। यह बड़ी जिम्मेदारी है और इसमें खतरे एवं चुनौतियाँ भी अधिक हैं।

लेकिन लोगों की मुझसे तब जो मुख्य शिकायत थी, आज भी वही है- “अखबार में मेरा नाम क्यों नहीं छपा ? कुछ लोगों के नाम का ‘डाॅ.’ छूट जाए, या उनका उपनाम अथवा जाति सूचक टायटल छूट जाता है, तो भी वे सिर पर आसमान उठा लेते थे। कुछ लोगों की शिकायत होती थी कि पूरा नाम क्यों नहीं दिया ?

कई बार जल्दबाजी में सचमुच महत्त्वपूर्ण व्यक्ति का भी नाम छूट जाता है। कई बार अखबार वाले किसी का नाम छोड़ देते हैं और किसी का ‘टायटल’ छोड़ देते हैं। कुछ नाम देना काफी कठिन भी होता है, उदाहरण के लिए बड़े भाई ‘विजय सिंह यादव धावक बिहारी टाइगर गाँधी’ का नाम देखें।

इसके बावजूद मैं यथासंभव ऐसी शिकायतों का समाधन करने का प्रयास करता हूँ। उदाहरण के लिए एक बार हमारे विश्वविद्यालय के एक विभागाध्यक्ष महोदय ने बड़ी विनम्रतापूर्वक कहा कि वे पी-एच. डी. नहीं हैं, इसलिए उनके नाम के आगे ‘डाॅ.’ नहीं लगाया जाए। इसके पूर्व एक संकायाध्यक्ष महोदय ने भी मुझे उनके नाम में हुई गलती को सुधारने में मदद की थी। यह सब बहुत अच्छा लगता है।

लेकिन पीड़ा तब होता है, जब कोई अनाधिकारपूर्वक यह कहने लगता है कि मैंने उनका नाम और भाषण क्यों नहीं लिखा ? पीआरओ बनने के कुछ महीनों बाद ऐसे ही एक वाक़ये का मैं पहले भी अपने एक फेसबुक पोस्ट में जिक्र कर चुका हूँ।

दरअसल मैंने एक बैठक की खबर जैसे ही ‘मीडिया : बीएनएमयू संवाद’ ग्रुप में डाली, तत्क्षण मुझे एक शिक्षक का फोन आ गया कि मैंने उनका भाषण क्यों नहीं लिखा ? (शायद मेरे एक पत्रकार मित्र ने उन्हें मेरे द्वारा भेजा गया ‘न्यूज़’ बता दिया था!) मैंने कहा कि मैंने कार्यक्रम के अध्यक्ष का भाषण दिया और जो मुख्य निर्णय हुआ वह भी दिया। आप उस बैठक के एक सामान्य सदस्य मात्र थे और आपके भाषण में मुझे कोई उल्लेखनीय बात नहीं लगी। इसके बावजूद आपको आपको अपनी बात छपवानी हो, तो आप खुद अख़बार में दे दीजिए। इस पर वे भड़क गए। इसके बावज़ूद मैंने बात को ज्यादा तूल नहीं दिया।

इसी तरह कई लोगों की यह शिकायत रहती है कि मैं कार्यक्रम के न्यूज़ में सिर्फ कुलपति, प्रति कुलपति और मंचस्थ अतिथियों का ही वक्तव्य देता हूँ, उनका वक्तव्य छोड़ देता हूँ। वैसे सभी सम्मानित देवियों एवं सज्जनों से विनम्र अनुरोध है कि आप किसी कार्यक्रम में मंचस्थ होइए या कोई व्याख्यान दीजिए मैं आपका पूरा ‘कवरेज’ करूँगा।

इसी तरह कुछ महीनों पूर्व मेरे महाविद्यालय के एक वरिष्ठ शिक्षक ने मुझे एक दिन सुबह-सुबह फोन करके कहा कि आप अपने आपको समझते क्या हैं ? मेरा नाम अखबार में क्यों नहीं दिए ? क्या मैं आपको दिखाई नहीं दिया था ? मैंने कहा कि साॅरी सर गलती से छूट गया है। उन्होंने तुरंत पलटवार कर कहा कि ‘फलाने’ का नाम तो किसी दिन नहीं छूटता है ? बस मुझे गुस्सा आ गया। फिर मैंने कहा कि आप भी फलाने वाले के पद पर चले जाइए, तो आपका भी नाम नहीं छूटेगा।

इसके बावजूद बीच-बीच में कई लोगों की यह शिकायत मिलते ही रहती है कि समाचार में उनका नाम क्यों नहीं दिया गया ? कई बार कुछ महत्त्वपूर्ण व्यक्ति का नाम भूलवश या जल्दबाजी में छूट जाता है। कई बार पत्रकारों के पास जगह की कमी रहती है। लेकिन मुख्य बात यह है कि हम एक खबर में कितनों का नाम दें ? दस, बीस, तीस… कहीं तो यह संख्या रूकेगी ही। ज़ाहिर है कि सभी व्यक्ति का नाम देना संभव नहीं है।

ऐसे में खबर लिखते हुए हमें उस खबर से संबंधित महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के नाम को प्राथमिकता देनी होती है। यदि विश्वविद्यालय में कोई कार्यक्रम है, तो कुलपति, प्रति कुलपति, वित्तीय परामर्शी, डीएसडब्लू, कुलानुशासक, सीसीडीसी, कुलसचिव, वित्त पदाधिकारी, परीक्षा नियंत्रक, महाविद्यालय निरीक्षक (कला एवं वाणिज्य), महाविद्यालय निरीक्षक (विज्ञान) आदि पदाधिकारियों और चार-पाँच विभिन्न संकायों के अध्यक्षों, सिंडिकेट एवं सीनेट के माननीय सदस्यों का नाम देना हमारी बाध्यता है और अंत में अपना नाम देने का भी लोभ रहता है।

ऐसे में कई बार कई अन्य पदाधिकारियों और सभी विभागाध्यक्षों, सभी प्रधानाचार्यों का नाम भी नहीं दे पाते हैं। इसके बावजूद हमारे कुछ ‘अन्य’ सहकर्मियों की भी इच्छा होती है कि मैं सभी न्यूज़ में उनका नाम दूँ। ऐसी चाहतों को पूरा करने में मैं असमर्थ हो जाता हूँ। इससे वे नाहक दु:खी हो जाते हैं।

ऐसे ही एक सहकर्मी ने आज (02 जनवरी, 2021 को) मुझसे मेरे कार्यालय के पास मिलकर कहा कि मैं उनका नाम क्यों छोड़ देता हूँ ? मैंने उनसे कहा कि यदि मैंने आपसे किसी कम महत्त्वपूर्ण व्यक्ति का नाम देकर आपका नाम नहीं दिया है, तो मुझे कहिए। अन्यथा मेरी मजबूरी समझिए। मैं सभी व्यक्ति का नाम नहीं दे सकता और सभी का नाम छपवा भी नहीं सकता हूँ। लेकिन वे मुझसे संतुष्ट नहीं हुए- रुष्ट ही रहे।

बहरहाल, यह कोई खास बात नहीं है। वे मेरे मित्र हैं, कब तक नाराज रहेंगे ? और नाराज रहेंगे भी, तो मैं क्या कर सकता हूँ ? मैं कितनों को खुश रख सकता हूँ! लोग मुझसे नाराज रहें, मेरी बुराई करें कोई बात नहीं।

दुश्मनी क्यों मोल ले रहे हैं ?
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इसी तरह अक्टूबर 2018 के एक वाकये ने मुझे उद्देलित कर दिया था। एक दिन मैें सुबह से ही विभिन्न कार्यक्रमों में कुलपति महोदय के साथ रहा। शाम के करीब 6 बजे मैं कुलपति आवास से पैदल ही अपने आवास जा रहा था।

विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर एक कर्मचारी ने मुझे देखते ही कहा, “आपने अखबार में मेरा नाम नहीं दिया। मेरे ही विभाग की बैठक वाले खबर में।” मैंने कहा, “किस खबर में ?” उन्होंने बताया। लेकिन वे उस बैठक में सदस्य नहीं थे, तो मैं उनका नाम कैसे दूँ ? इसके बावजूद मैं बिना कुछ जवाब दिए ही चल दिया। फिर उन्होंने पास बैठे गार्ड आदि को सुनाते हुए मुझसे कहा, “आप तो बहुत अच्छे आदमी हैं। दुश्मनी क्यों मोल ले रहे हैं ?” इस टिप्पणी से मैं काफी आहत हुआ था। खैर बात आई – गई हो गई।

दो पाटन के बीच में…
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पीआरओ की कुछ अन्य पीड़ाएँ भी हैं। वह विश्वविद्यालय प्रशासन एवं मीडिया (दो पाटन) के बीच पीसते रहता है। कुछ पत्रकार साथी साफ-साफ कहते हैं कि पीआरओ के बीच में आने के कारण मीडिया, विश्वविद्यालय प्रशासन से दूर हो गया है और पत्रकारों का ‘वेल्यू’ कम हो गया है। इधर, विश्वविद्यालय प्रशासन को लगता है कि पीआरओ पत्रकारों को कुछ ज्यादा ही भाव देते रहते हैं और सबको पत्रकार ही बना देते हैं। ऐसे में सभी पत्रकारों को ‘दीक्षांत समारोह’ जैसे कार्यक्रम का ‘इंट्री कार्ड’ दिलाने में भी पीआरओ को मशक्कत करनी पड़ती है। ऐसी छोटी- छोटी चीजों में भी विश्वविद्यालय प्रशासन पीआरओ को नियम-कानून एवं परंपरा सीखाने लगता है और मीडिया के लिए कोई भी सुविधा देने से कतराता है।

लेकिन जब इस बात को लेकर या किसी अन्य बातों को लेकर पत्रकार उच्चाधिकारियों के समक्ष अपना विरोध दर्ज करते हैं, तो ‘माननीय’ लोग साफ-साफ कह देते हैं कि यह तो पीआरओ की जिम्मेदारी है। यहाँ ‘माननीय’ लोग ऐसा जताते हैं कि मानो पत्रकारों का उनसे बड़ा कोई ‘शुभचिंतक’ हो ही नहीं! एक बार तो एक ‘प्रेस कांफ्रेंस’ में ऐसी स्थिति बन गई, तो न चाहते हुए भी मुझे ‘माननीयों’ की बातों का सार्वजनिक रूप से ‘प्रतिउत्तर’ देना पड़ा था।

एक विशेष संदर्भ…
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आप सभी जानते हैं कि एक पत्रकार प्रत्येक दिन पीआरओ की मदद करता है, उसके द्वारा उपलब्ध कराई गई खबरों को अपने अखबार, न्यूज़ पोर्टल या चैनल में प्रकाशित-प्रसारित कर। लेकिन यदि किसी मीडियाकर्मी को पीआरओ से कोई काम पड़ जाए, तो कई बार पीआरओ उसे पूरा नहीं कर पाता है। पत्रकारों के छोटे-छोटे नियमसंगत कामों को कराने में भी पीआरओ को काफी मशक्कत करानी पड़ती है और कई बार तो पत्रकारों से माफी माँगते हुए हाथ खड़ा करना पड़ता है। पिछले साल की बात है मेरे लाख प्रयत्न के बावजूद एक वरिष्ठ पत्रकार की बहन का रिजल्ट ठीक नहीं हो पाया। दरअसल छात्रा की उत्तर पुस्तिका में एक प्रश्न के उत्तर हेतु आवंटित 6 अंक को अंकों के योग में नहीं जोड़ा गया था। इसके कारण वह एक अंक से अनुत्तीर्ण घोषित कर दी गई थीं। इसमें छात्रा की कोई गलती नहीं होने के बावजूद उनका रिजल्ट ठीक नहीं हुआ और पीआरओ का सभी प्रयास बेकार हुआ। यह है इस व्यवस्था में पीआरओ एवं पत्रकारों की असली हैसियत! लेकिन फिर भी हम भ्रम में जीते हैं कि पीआरओ है, तो मुमकिन है- पत्रकार है, तो मुमकिन है!

दिल है कि मानता नहीं…
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हम भ्रम में अपना अपना बहुमूल्य समय नष्ट कर रहे हैं एवं संसाधन भी। यहाँ मैं विनम्रतापूर्वक यह बताना चाहता हूँ कि मैं बिना किसी अतिरिक्त मानदेय या प्रोत्साहन भत्ता के अकेले दम पर करीब साढ़े तीन वर्षों से ‘पीआरओ’ का काम कर रहा हूँ। अपने वेतन के पैसे से मोबाइल रीचार्ज कराता हूँ और पैदल या अपनी मोटर साइकिल से चलता हूँ। न कोई कंटिन्जेंसी है और न कोई कार्यालय सहायक। मोबाइल पर न्यूज लिखते-लिखते मेरी ऊंगलियों में दर्द होने लगा है और आँखों की रोशनी कम होने लगी है। साथ ही अक्सर अंतरात्मा भी कहती है कि अब तो बस करो!

लेकिन मैं हूँ कि रूकने का नाम ही नहीं ले रहा हूँ- “दिल है कि मानता नहीं।” इसे आप झूठी लोकप्रियता का जुनून कहिए या पत्रकारिता का जिन्न या कीड़ा। मैं अपने कई असली शुभचिंतकों द्वारा बारबार इस कार्य को छोड़कर अध्ययन-अध्यापन को प्राथमिकता देने की सलाह पर अमल नहीं कर रहा हूँ और आज भी पीआरओ की भूमिका के सम्यक् निर्वहन की हरसंभव कोशिश कर रहा हूँ।

कारणपृच्छा का प्रसाद…
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विश्वविद्यालय से कभी भी सकारात्मक खबरों के बड़े-बड़े ‘कवरेज’ पर भी कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता है और सराहना के ‘दो शब्द’ व्यक्त करने में भी लोग कंजूसी कर जाते हैं। हाँ, यदि विश्वविद्यालय की ही गलतियों से भी कोई नकारात्मक खबर छप जाती है, तो उसमें मेरी तनिक भी भूमिका नहीं होने के बावजूद मुझसे जवाब- तलब किया जाता है।

इतना ही नहीं अब तक तोहफा के रूप में दो बार बेवजह अनुपस्थिति घोषित कर ‘एटेंडेंस’ काटा गया है और दो ‘शो काऊज’ भी मिला है। फरवरी 2020 में सीनेट की बैठक में अनुपस्थित रहने के कारण कर्तव्यहीनता के आरोप में कारणपृच्छा हुई थी। स्पष्टीकरण देने के बावजूद आजतक उस आरोप से मुक्ति नहीं मिली है।

‘संवाद’ की शुरूआत…
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इधर, ‘लाॅकडाउन’ के दौरान विश्वविद्यालय की सकारात्मक सूचनाओं एवं गतिविधियों का प्रचार-प्रसार हेतु मैंने अपने वेतन के करीब दो लाख रुपये खर्च कर ‘बीएनएमयू संवाद’ यू-ट्यूब चैनल और न्यूज पोर्टल की शुरूआत की है। इससे आम जनमानस को काफी लाभ हो रहा है।

लेकिन लोग इस पर भी सवाल उठाते रहते हैं। कई सवाल हैं, जैसे बीएनएमयू नाम क्यों रखे ? ‘फलाने’ आदमी ने भाषण क्यों कराया ? फलाने आदमी ने अपने ‘फेसबुक’ या ‘वाट्सप’ में ‘बीएनएमयू संवाद’ क्यों लिखा ? विश्वविद्यालय से ‘अनुमति’ लिए हैं ?

मैं यह बताना चाहता हूँ कि मेरी जानकारी में बीएनएमयू नाम रखना न तो प्रतिबंधित है, न ही अवैध और न ही अनाधिकृत। फिर ‘संवाद’ में मैं किसी को भी ‘अछूत’ नहीं मानता हूँ, वह किसी भी विचारधारा का क्यों न हो। यहाँ संवैधानिक दायरे में रहते हुए किसी का भी भाषण/ व्याख्यान हो सकता है। जो लोग अपने ‘फेसबुक’ या ‘वाट्सप’ में ‘बीएनएमयू संवाद’ लिख रहे हैं, मैं किसी के कहने से उन्हें ऐसा करने से रोकने वाला नहीं हूँ। भला जो लोग बिना किसी स्वार्थ के मेरा प्रचार-प्रसार कर रहे हैं, मैं उनको क्यों रोकूँ ? मैं तो उनके प्रति आभारी हूँ। मैं तो सबों को आमंत्रित करता हूँ कि आइए बीएनएमयू के विकास में, इसकी छवि सुधारने में अपना बहुमूल्य सहयोग दीजिए। सबका स्वागत है। रही बात ‘अनुमति’ की, तो इसके लिए मेरा प्रस्ताव ‘प्रक्रियाधीन’ है।

मुख्य बात यह है कि मैं अपने स्तर से अच्छा या बुरा यह काम कर रहा हूँ और इसके लिए पूरी तरह मैं ही जिम्मेदार हूँ। इसका जो भी अच्छा या बुरा परिणाम होगा, वह मुझे स्वीकार्य है।

वर्तमान प्रसंग…
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इधर दो-तीन दिनों से यह खिन्नता कुछ अधिक बढ़ गई है। इसकी शुरुआत 31 दिसंबर, 2020 की शाम से हुई है। उस दिन मेरे एक अत्यंत प्रिय पत्रकार मित्र ने अपने बड़बोलापन एवं उतावलेपन से माननीय कुलपति महोदय के पास मेरे बारे में अनावश्यक एवं बेबुनियाद टिप्पणी कर मुझे दु:खी कर दिया। मैंने बड़ी मुश्किल से उस दु:ख से निजात पाया।

अब एक दिन बाद ही आज (02 जनवरी, 2021 को) सिंडिकेट की बैठक के दौरान पत्रकार साथियों के साथ घटी एक अप्रिय घटना से अत्यंत दु:खी हूँ। विश्वविद्यालय के उच्चाधिकारी द्वारा खेद व्यक्त करने के बाद आज तो मामला शांत हो गया है, लेकिन यह आगाज़ शुभ संकेत नहीं है। हमें यह समझना होगा कि जनसंपर्क (पब्लिक रिलेशन या मीडिया- मैनेजमेन्ट) एक अत्यंत ही संवेदनशील मामला है। हमें इसे गंभीरता से लेने की जरूरत है।

प्रतिबद्धता एवं प्राथमिकता…
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मैं साफ-साफ शब्दों में कहना चाहता हूँ कि एक शिक्षक एवं पीआरओ के रूप में मेरी प्रतिबद्धता विश्वविद्यालय के साथ है, लेकिन मीडिया के मान-सम्मान में कोई कमी न हो यह पीआरओ के रूप में मेरी सर्वोच्च प्राथमिकता है। हम इसके अतिरिक्त मीडिया को कुछ दे भी नहीं सकते हैं और प्रायः मीडियाकर्मी कुछ अन्य की अपेक्षा भी नहीं रखते हैं।

बहरहाल, मैं न केवल जनसंपर्क पदाधिकारी के रूप में, बल्कि व्यक्तिगत रूप से भी मीडिया के सभी साथियों से क्षमाप्रार्थी हूँ। मुझे आशा ही नहीं, वरन् पूर्ण विश्वास है कि नववर्ष में हमें आप सबों का प्रेम एवं सहयोग पूर्ववत मिलता रहेगा। बहुत-बहुत धन्यवाद, आभार एवं नमस्कार।

-सुधांशु शेखर, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर (दर्शनशास्त्र) एवं जनसंपर्क पदाधिकारी, बी. एन. मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा, बिहार