Poem। कविता। जमीन से उखड़े हुए लोग

जमीन से उखड़े हुए लोग
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सर्दियोंं की गुनगुनी धूप में ,
बासी मक्के की रोटी और उसके ऊपर चना का साग,
हम किसान के बच्चों ने ही खाया है ।
घूरे में मक्के के दाने को डाल लावा फूटते हुए देखना,
फिर उसे बीन कर खाने में जो अलौकिक आनंद है,                    वह ब्रेड और जैम में कहां ?
दादा के साथ खेत में, हल के पीछे लगे लकड़ी के फट्टे पर बैठ    खेत की जुताई देखना हो,
या फिर,                                                                           खेत जोतने के बाद                                                          लकड़ी के फट्टे से ढ़ेला फोड़ मिट्टी को बराबर करना,
ये सभी चीजें मेरे बच्चों के लिए मुहाल है।
मेरे बच्चों ने गमले में आम और नींबू उगते देखा है,
बकरी को कभी घास खाते नहीं, प्लेट में उसी को सजा देखा है।
फिर, कैसे मैं यह सोच लूं कि जब किसान की बात होगी ,
तो मेरे बच्चे समझेंगे कि,म
यह उस आदमी के बारे में बात हो रही है,                                 जो पानी पटाने के लिए भोर अंधेरे घर से निकल जाता है खेत पर। उसे यह कैसे समझ आएगा कि ये वही किसान हैं,                जिनके पास कादों से बचने के लिए                                  प्लास्टिक का चप्पल तक नसीब नहीं।
दरअसल हम जमीन से उखड़े हुए लोग हैं.
जिन्होंने अपनी मातृभूमि तो छोड़ ही दी,
अपने लोगों से भी किनारा कर लिया।

-डॉ. बन्दना भारती
असिस्टेंट प्रोफेसर पूर्णियाँ विश्वविद्यालय, पूर्णियाँ,