Ambedkar। मेरे जीवन में डॉ. अंबेडकर

मेरे जीवन में डॉ. अंबेडकर
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मेरी समकालीन भारतीय दार्शनिकों में रूचि है। खासकर स्वामी विवेकानंद, महात्मा गाँधी, डाॅ. भीमराव अंबेडकर, जे. कृष्णमूर्ति और ओशो रजनीश मेरे प्रिय हैं। मैंने इन सबों की कई पुस्तकें पढ़ी हैं और मेरे जीवन पर इन सबों का प्रभाव भी है। लेकिन मैं सबसे अधिक डाॅ. अंबेडकर से प्रभावित रहा हूँ-न केवल वैचारिक रूप से, बल्कि व्यावहारिक रूप से भी। आज मैं जो कुछ भी हूँ, उसमें डाॅ. अंबेडकर के प्रति मेरे लगाव की बड़ी भूमिका है।

मुख्य बातें निम्नवत हैं-
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1. शोध का निर्णय
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मैंने एम. ए. की पढ़ाई के दौरान ही तय कर लिया था कि मुझे पी-एच. डी. शोध करना है, डाॅ. भीमराव अंबेडकर के दर्शन पर। मैंने इस बात को ध्यान में रखकर मन ही मन शोध-निदेशक का चयन शुरू किया।

मुझे ऐसे शिक्षक की तलाश थी, जो विषय के अधिकारिक विद्वान हों, सामाजिक न्याय की पृष्ठभूमि से आते हों और जिनकी डाॅ. अंबेडकर के विचारों में आस्था भी हो।

2. शोध-निदेशक का चयन
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उक्त कसौटी के आधार पर स्नातकोत्तर दर्शनशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर डाॅ प्रभु नारायण मंडल मेरी पहली पसंद थे। लेकिन मुझे किसी तरह पता चला कि प्रभु सर पी-एच. डी. नहीं कराते हैं। मुझे लगा कि चूंकि वे विभागाध्यक्ष हैं, इसलिए पी-एच. डी. करा ही नहीं सकते हैं। ऐसे में मजबूरन मैं अपने शोध निदेशक के रूप में प्रभु सर के अतिरिक्त अन्य नामों पर विचार कर रहा था। अपने एक शिक्षक से मेरी प्रारंभिक बातचीत भी हुई थी। इसी बीच मुझे पता चला कि प्रभु सर पी-एच. डी. करा सकते हैं, लेकिन समयाभाव में नहीं कराते हैं।

फिर तो मैंने तय कर लिया कि मुझे प्रभु सर को ही शोध निदेशक बनाना है। बस मैंने तुरंत सर को फोन लगा दिया। बातचीत कुछ इस प्रकार हुई-

मैं- “मुझे डाॅ. अंबेडकर के दर्शन पर आपके निदेशन में शोध करना है।”

सर-“लेकिन मुझे तो पता चला है कि आपने किसी दूसरे शिक्षक से शोध निदेशक बनने का अनुरोध किया है।”

मैं- “जी। मुझे पता था कि आप पी-एच. डी. नहीं करा सकते हैं। इसलिए एक सर से प्रारंभिक बात किया हूँ। लेकिन अभी तुरंत पता चला है कि आप करा सकते हैं। इसलिए मुझे आपके निदेशन में ही पी-एच. डी. करनी है।”

सर-“अरे प्रायः विद्यार्थी खुद से काम नहीं करना चाहते हैं। इसलिए पी-एच.डी. कराना बंद कर दिए हैं। लेकिन आपको पी-एच. डी. कराने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मुझे पता है कि आप सब कुछ अपने से कर सकते हैं।”

मैं-“बहुत-बहुत-बहुत आभार सर।”

3. शोध-विषय का चयन
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फिर मैंने प्रभु सर से मुलाकात की। हमने आपस में काफी चर्चा की और पहले हमारा विषय तय हुआ, ‘जाति आधारित समाज और सामाजिक न्याय : डाॅ. भीमराव अंबेडकर के विशेष संदर्भ में’। मैंने इस पर शोध प्रारूप तैयार किया। सर ने कई बार करेक्शन किया। फिर जब शोध प्रारूप लगभग फाइनल हो गया, तो हम दोनों ने विषय पर पुनः गंभीरता से विचार-विमर्श किया। अंततः मेरा विषय तय हुआ, ‘वर्ण-व्यवस्था और सामाजिक न्याय : डाॅ. भीमराव अंबेडकर के विशेष संदर्भ में’। बकौल प्रभु सर यह पहले वाले से ज्यादा ‘फिलाॅशोफिकल’ था।

बहरहाल टाॅपिक में थोड़े संशोधन के अनुरूप शोध-प्रारूप में भी थोड़ा संशोधन हुआ। फिर ज्यादा ‘फिलाॅशोफिकल’ बनाने के लिए सर ने इसके प्रथम अध्याय में ‘न्याय की अवधारणा : प्राच्य एवं पाश्चात्य’ जोड़ दिया।

वैसे मुझे याद है कि एक बार मेरे एम. ए. का परीक्षाफल आने के पहले ही प्रभु सर ने मुझसे किसी प्रसंग में कहा था कि मैं डाॅ. अंबेडकर पर शोध करूँ। लेकिन शायद मेरा डाॅ. अंबेडकर के सामाजिक-राजनीतिक विचारों की ओर अतिरिक्त झुकाव मेरे कैरियर की दृष्टि से उचित नहीं लग रहा था। वैसे वे मेरी बालसुलभ जिद के आगे मजबूर थे, लेकिन ‘टाॅपिक’ को ‘फिलाॅसोफिकल’ बनाने का कोई भी ‘स्कोप’ छोड़ना नहीं चाहते थे।

4. शोध-प्रारूप पर प्रतिक्रिया
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बहरहाल विभाग में मेरे प्री-पी-एच. डी. सेमिनार की तिथि तय हो गई। इसके पूर्व प्रचलित परंपरा के अनुसार मैंने शोध-प्रारूप की टंकित प्रति विभाग के सभी शिक्षकों को उपलब्ध करा दी। किसी को भी पसंद नहीं आया। सबों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कोई दूसरा ‘टाॅपिक’ लेने की सलाह दी। एक शिक्षका ने तो ‘टाॅपिक’ देखते ही मेरे शोध-प्रारूप की प्रति फेंक दी। मैं उसे उठाकर पुनः उन्हें दिया।

फिर हम दोनों के बीच बातचीत कुछ इस प्रकार हुई-

शिक्षिका- “ये क्या टाॅपिक लिए हो तुम ? अंबेडकर पर क्या रिसर्च होगा ? और ये प्रभु बाबू को क्या है। उनको बैठे-बिठाए एक पी-एच. डी. मिल जाएगी। काम तो तुम अपने से कर लोगे और उनका नाम हो जाएगा।”

मैं -“ऐसी बात नहीं है मैडम। मैंने खुद यह टाॅपिक चुना है।”

शिक्षिका-“तुम पढ़ने में अच्छे हो, ग्रीक फिलाॅसफी का कोई टाॅपिक लो।”

मैं-“मैडम टाॅपिक तो यही रहेगा। 8 मई को सेमिनार है।”

शिक्षिका- “ठीक है रखो। लेकिन मैं तो विरोध करूँगी। प्रभु बाबू को भी कहूँगी कि ये क्या करा रहे हैं। …और तुम तो खुद को बर्बाद कर ही रहे हो समाज को भी बर्बाद करोगे। वो प्रधानमंत्री तुम्हारी जाति का ही था न, जिसने आरक्षण लागू किया।”

मैं- “मैडम मैं जाति-पाति नहीं मानता हूँ और अभी आपसे बहस भी नहीं करना चाहता। प्रणाम।”

5. शोध-प्रारूप की प्रस्तुति
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मैंने 8 मई 2008 को स्नातकोत्तर दर्शनशास्त्र विभाग में अपना शोध-प्रारूप प्रस्तुत किया। इस अवसर पर विभागीय शिक्षकों के अलावा कई काॅलेजों के भी शिक्षक, कई शोधार्थी और दर्जनों विद्यार्थी उपस्थित थे। मैंने संतोषजनक प्रस्तुति दी।

6. फेलोशिप की प्राप्ति
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वर्ष 2009 में मुझे अपने शोध विषय पर आईसीपीआर, नई दिल्ली का जूनियर रिसर्च फेलोशिप (जेआरएफ) प्राप्त हुआ। मैंने जेआरएफ के रूप में दो वर्ष तक स्नातकोत्तर दर्शनशास्त्र विभाग, टीएमबीयू में अध्यापन का कार्य किया। मुझे 24 मार्च 2012 को पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त हुई। इसी दिन मेरे भाई हिमांशु शेखर सिंह को भी पी-एच. डी. की डिग्री मिली, जिसके शोध का विषय ‘डाॅ. अंबेडकर और एम. एन. राय का मानववाद : एक समीक्षात्मक अध्ययन’ है।

7. शोध-पत्र की प्रस्तुति और पुरस्कार
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आगे मैंने नवंबर 2008 में गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार में आयोजित अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के वार्षिक अधिवेशन में भाग लिया। वहाँ मैंने ‘नव बौद्धधर्म : न पलायन, न प्रतिक्रिया, वरन् परिवर्तन की प्रक्रिया’ विषयक शोध-पत्र प्रस्तुत किया। यह शोध-पत्र को धर्म दर्शन विभाग में युवा वर्ग द्वारा प्रस्तुत आलेखों में सर्वश्रेष्ठ चुना गया और इसके लिए मुझे ‘विजयश्री स्मृति युवा पुरस्कार’ प्राप्त हुआ।

8. आलेख प्रकाशन
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‘नव बौद्धधर्म : न पलायन, न प्रतिक्रिया, वरन् परिवर्तन की प्रक्रिया’ विषयक मेरा आलेख बाद में अखिल भारतीय दर्शन परिषद् की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘दार्शनिक त्रैमासिक’ (जनवरी-मार्च, 2009, संपादक- डाॅ. रजनीश कुमार शुक्ल) में प्रकाशित हुई।

कुछ वर्षों बाद मैंने अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के एक अन्य सम्मेलन में आयोजित संगोष्ठी में अपना आलेख ‘मार्क्सवाद : डाॅ. अंबेडकर की दृष्टि में’ प्रस्तुत किया। इसे संगोष्ठी के अध्यक्ष प्रो. (डाॅ.) आर. पी. श्रीवास्तव सहित अन्य लोगों ने सराहा और इस आलेख को भी ‘दार्शनिक त्रैमासिक’ में स्थान मिला। आगे मेरा एक दूसरा आलेख ‘अंबेडकर की दृष्टि में वेदांत’ सुप्रसिद्ध दार्शनिक पांडेय जी की स्मृति में प्रकाशित पुस्तक ‘वेदांत दर्शन के आयाम’ में प्रकाशित हुआ। इसे पुस्तक के संपादक प्रो. (डाॅ.) अम्बिकादत शर्मा सहित अन्य लोगों से सराहना मिली।

9. पुस्तक-प्रकाशन
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6 दिसंबर 2014 को मेरी पुस्तक ‘सामाजिक न्याय : अंबेडकर-विचार और आधुनिक संदर्भ’ का प्रकाशन हुआ। वर्ष 2016 में भारत सरकार के सौजन्य से डाॅ. भीमराव अंबेडकर का 125 वीं जयंती वर्ष मनाया गया। इस क्रम में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय और डाॅ. अंबेडकर प्रतिष्ठान के सहयोग से यह पुस्तक देश-विदेश के कई महत्वपूर्ण विचारकों तक पहुंची।

खास बात यह कि इस पुस्तक की एक हजार प्रति में से आज मेरे पास मात्र एक प्रति बची है। करीब दो सौ प्रतियाँ बिकीं और बाकि मैंने बङे-बङे दार्शनिकों, लेखकों, पत्रकारों एवं कुछ युवा मित्रों को भेंट कर दिया। इसका मुझे सुफल प्राप्त हुआ।

कई बड़े-बड़े विद्वानों ने इस पुस्तक की समीक्षा की। इनमें प्रोफेसर डाॅ. रमेश चंद्र सिन्हा, प्रोफेसर डाॅ. प्रभु नारायण मंडल, डाॅ. शैलेश कुमार सिंह एवं डाॅ. श्यामल किशोर प्रमुख हैं।

10. असिस्टेंट प्रोफेसर का साक्षात्कार
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2016 में बिहार लोक सेवा आयोग, पटना में असिस्टेंट प्रोफेसर के साक्षात्कार के दौरान साक्षात्कार बोर्ड के चेयरमेन साहेब मेरे पी-एच. डी. टाॅपिक से भङक गए। उन्होंने खुद डाॅ. अंबेडकर और आरक्षण पर अपनी भड़ास निकाली और मुझसे बिना कुछ पुछे मुझे चंद मिनटों में चलता कर दिया।

फिर तो जो होना था, वही हुआ। जहाँ अन्य सामान्य अभ्यर्थियों को 15 में 12-14 अंक मिले, वहीं मुझे महज 7 अंकों से संतोष करना पङा।

फिर भी साक्षात्कार बोर्ड को धन्यवाद; क्योंकि यदि और एक अंक भी कम मिलता, तो चयन मुश्किल था। धन्यवाद इसलिए भी; क्योकि यदि एक अंक अध अन्य विश्वविद्यालय में चला जाता और मुझे बी. एन. मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा में आने का सौभाग्य नहीं मिल पाता।

कुल मिलाकर, मेरे जीवन में डाॅ. अंबेडकर का महत्वपूर्ण स्थान है। मैं उन्हें कृतज्ञतापूर्वक सादर नमन करता हूँ।

जय भीम! जय भारत!!

-डाॅ. सुधांशु शेखर, 06 दिसंबर, 2018