BNMU। तारकेश्वर प्रसाद:एक अनकही कथा-4

तारकेश्वर प्रसाद : एक अनकही कथा-4

बनारस पहुँचे और सीधे बेनियाबाग के लिए पैदल ही चल पड़े ।बनारस स्टेशन से कोई तीन किलोमीटर की दूरी पर एक मुहल्ला है ,बेनियाबाग। पूछते-पूछते पहुंच गए।अब सड़क की दोनों ओर कुछ कच्चे,कुछ पक्के घर बने हुए थे।ये एक-एक घर को देखते आगे बढ़ रहे थे।घर के आगे कोई दिख नही रहा था जिससे कुछ पूछते। ऐसे ही आगे के घर के बरामदे पर दोनों हाथ पीछे से कमर पर रखे ,दुबले-पतले ,पर, अधपकी घनी मूंछों वाले व्यक्ति को सिर नीचे किये ,टहलते हुए देखा।जीना छोटा ही था।धड़धड़ा के चढ़ गए और उन सज्जन से पूछा —
“सर,प्रेमचंद जी का कौन -सा घर है ?”
उन्होंने नजरें उठाई और प्रश्नवाचक निगाहों से इन्हें देखा।
” मैं बाहर से आया हूँ और मुझे प्रेमचंद जी के यहाँ जाना है ,तो वही पूछ रहा था कि इसी बेनियाबाग में वे रहते हैं ,बता सकते हैं कहाँ है उनका घर ?” एक ही सांस में उन सज्जन से तारकेश्वर बाबू ने पूछा।
वे गहरी नजरों से देखते हुए प्रतिप्रश्न किया–
” कहाँ से आये हैं? पहचानते हैं प्रेमचंद को ?”
” जी ,भागलपुर ,बिहार से आये हैं । पहचानते तो नहीं,पर वे मुझे जानते हैं।आप बता दें ,मैं मिल लूंगा ।”
फिर प्रश्न किया उन सज्जन ने–
” क्या नाम है आपका ?”
इन्हें अब कोफ्त होने लगी थी।पर अपनी भावनाओं को जज्ब करते हुए बोले-
” जी ,मेरा नाम तारकेश्वर प्रसाद है और घर भागलपुर।”
वे थोड़ा ठिठके और थोड़ा आश्चर्य से पूछा –
” अच्छा ,तो आप तारकेश्वर जी हैं ,लिखते हैं न ?
” जी “।
” मैं हूँ भाई ,प्रेमचंद” !और ठहाका लगाया।
“तुम तो बड़े छोटे हो ,कितनी उम्र है ?”
“जी ,यही कोई 20 -,21 वर्ष “।
” वाह ,हम तो समझ रहे थे कोई मैच्योर आदमी होगा तारकेश्वर प्रसाद ” और फिर ठहाका !
“आओ -आओ ,बैठो भाई ,तुमने तो मुझे आश्चर्य में डाल दिया , इतनी कम उम्र में परिपक्व लेखन कर लेते हो ,वाह !”
तारकेश्वर बाबू ने उनके पैर छुए तो स्नेह से उन्होंने सर पर हाथ फेरा और बरामदे में बिछी चौकी पर बिठा दिया।फिर,अंदर की ओर मुँह कर बोले ” लोटे में पानी दीजिये जरा”। और लोटे में पानी लिए शिवरानी जी आईं और इन्हें देखा।ये उठकर उनके भी पैर छुए।उन्होंने इन्हें प्रश्नवाचक निगाहों से देखा।जवाब दिया प्रेमचंद ने-
“ये तारकेश्वर है ,जो लिखता है जागरण और हंस में “। वे मुस्कुराईं और कहा बैठो ,मैं लाती हूँ कुछ ।और फिर अंदर चली गईं।
प्रेमचंद ने हाथ-धुलवाया और हाल-चाल लेने लगे।तारकेश्वर बाबू ने खाना खाया और बाहर के कमरे जो,ठीक आगे था जीने के,उसमें प्रेमचंद इन्हें ले गए।
दरअसल वो ऑफिस था उनका।उन्होंने जब इनसे पूछा कि क्या तुम प्रकाशन में मेरा हाथ बँटाओगे ,तो ये खुश हो गए।बाबूजी बताते थे कि वे साहित्य ही नहीं ,जीवन और समाज की छोटी-से-छोटी घटनाओं ,रीति-रिवाजों ,अंधविश्वासों ,सभी पर पैनी नजर रखते थे और ऐसा करने को प्रेरित भी करते थे। 1934 के जून महीने में ये प्रेमचंद के यहां गए और फरवरी 1935 तक उनके साथ रहे।इस दरम्यान इनके कई लेख ,कहानियाँ जागरण और हंस में छपीं। 1925 में कम्युनिष्ट पार्टी की स्थापना हुई भारत मे और रूसी साहित्य धीरे-धीरे आने लगा।दास्तवस्की की किताबें भी अंग्रेजी में अनूदित होकर आईं।प्रेमचंद जी ने तारकेश्वर बाबू से कहा कि तुम दास्तोवस्की पर एक अच्छा सा लेख लिखो।इन्होंने उनका आदेश सर-आंखों पर लिया और एक सप्ताह में एक विस्तृत लेख ,वहीं प्रेमचंद के घर मे उनके साथ रहकर लिखा।उसे जागरण के लगातार ग्यारह अंकों में धारावाहिक रूप में निकाला गया।उस वक़्त की एक घटना का जिक्र बड़े रोमांचक तरीके से बाबूजी किया करते थे। उन्होंने सुनाया था कि जब 7-8 कड़ियाँ उस लेख की निकल चुकीं तो एक दिन अचानक वहां जैनेन्द्र जी का पदार्पण हुआ। वे चाय की चुस्कियों के साथ प्रेमचंद जी से औपचारिक -अनौपचारिक बातें करने लगे।ये भी वहीं खड़े थे।अचानक ही जैनेन्द्र जी ने प्रेमचंद से पूछा–
” ये दास्तोवस्की पर लगातार कौन लिख रहा है।आप जागरण के हर अंक में निकाल रहे हैं ?”
” ये लिख रहा है ,तारकेश्वर “, प्रेमचंद ने कहा।
जैनेन्द्र जी ने गौर से तारकेश्वर बाबू को देखा।बोले-
” आप ही हैं ,तारकेश्वर जी ,आपकी तो कई कहानियाँ पढ़ी है मैने ,अच्छा लिख लेते हैं।”
और इसके बाद उन्होंने इन्हें बगल की कुर्सी पर बैठने को कहा ,पर ये संकोच वश बैठे नहीं पर जैनेन्द्र जी ने जबरन इन्हें अपनी बगलवाली कुर्सी पर बिठाया और कई बातें समझाईं और हौसला बढ़ाया।
वहीं बेनियाबाग में रहते हुए यशपाल के भी करीब आये।अमृतलाल नागर, नरोत्तम प्रसाद नागर, भगवती चंद्र वर्मा, रामकुमार वर्मा, पांडेय बेचन शर्मा उग्र आदि के संपर्क में रहे।
क्रमशः