Hindi। तारकेश्वर प्रसाद : एक अनकही कथा

वर्षों पहले मैंने दैनिक जागरण के साप्ताहिक आयोजन जागरण सिटी में एक आलेख लिखा था- “तारकेश्वर प्रसाद : जिनसे मिलकर आश्चर्यचकित हुए थे प्रेमचंद”। आज भी वह आलेख मेरे जेहन में मौजूद है। आज फेसबुक पर तारकेश्वर बाबू के सुपुत्र तुषार कांत जी का यह संस्मरण देखकर काफी अच्छा लगा। हम आपसे वो की सेवा में से प्रस्तुत कर रहे हैं।                            -सुधांशु शेखर, संपादक

कुछ ही दिनों पूर्व आदरणीय डॉ. गंगेश गुंजन और बड़े भाई तथा मशहूर उपन्यासकार ,कथाकार आदरणीय रंजन कुमार ने स्नेहादेश दिया था कि तुम अपने पिता स्व तारकेश्वर प्रसाद ,जो प्रेमचंद काल के भागलपुर के कथाकार-पत्रकार रहे हैं, के संस्मरण लिखो।

खुद रंजन जी के पूर्व स्मृतिशेष मुकुटधारी अग्रवाल जी ने भी बाबूजी के बारे में लिखने को प्रेरित किया ,पर मैं कर न सका था। स्व मुकुटधारी अग्रवाल रोज फ़ेसबुक के माध्यम से भागलपुर की साहित्यिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक विरासतों पर लगातार लिख रहे थे।बहुत सारे प्रसंगों के विवरण उन्होंने दिए, जिनसे हमने अपने पूर्वजों को जाना-समझा। उनके अचानक हुए निधन से हम हतप्रभ रह गए ! अब अपने भागलपुर की थाती कौन सुनाएगा! तभी मानो चमत्कार की भांति बड़े भाई रंजन कुमार फ़ेसबुक पर भागलपुर की चहुमुखी विरासत को अपने संस्मरण के माध्यम से उकेरने आ गए। फ़ेसबुक पर पहले से ही वे काफी सक्रिय रहे हैं।
फ़ेसबुक पर कुछ दिनों पूर्व मैंने बाबूजी के बारे में एक पोस्ट डाला था, जिसकी प्रतिक्रिया में उद्भट विद्वान और आकाशवाणी भागलपुर में “शतदल” और “युववाणी” जैसे प्रोग्राम के जनक, जिसकी 1975 से इतनी लोकप्रियता थी कि लोग रेडियो के पास स्वतः खिंचे चले आते थे, भागलपुर के युवाओं के तत्कालीन रोलमॉडल डॉ. गंगेश गुंजन जी की बात मैं कर रहा हूँ, जो सम्प्रति दिल्ली में हैं और हिंदी साहित्य तथा रेडियो नाटक ,नाटक के बड़े नाम हैं, ने भी मुझे बाबूजी पर लिखने कहा।
इन सभी आदरणीय बड़े भाइयों के आदेशपालन के लिए मैं फ़ेसबुक के इन पन्नों पर उपस्थित हुआ हूँ और आशा करता हूँ कि फ़ेसबुक के सभी बड़े /छोटे साथियों का प्यार/आशीर्वाद मिलेगा !

तारकेश्वर प्रसाद : एक अनकही कथा
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13 जनवरी 1913 को भागलपुर के बूढ़ानाथ पथ स्थित एकमंज़िले मकान में ,जिसके आगे एक बड़ा और छत वाला बरामदा और 6 फिट चौड़ी 60 फिट लंबी देहरी हुआ करती थी ,में स्व अयोध्या प्रसाद की छठी संतान के रूप में तारकेश्वर प्रसाद जी का जन्म हुआ था।इनसे छोटी एक बहन और हुई।अर्थात सात भाई-बहनों में ये छठे नंबर पर थे।स्व अयोध्या प्रसाद सिविल कोर्ट में सुपरिंटेंडेंट के पद पर कार्यरत थे । अब ये पद नही होता पर अंग्रेजी राज की हुकूमत में था। ये मूल रूप से मोकामा के शिवनार के थे जहां पुरखों की जमींदारी हुआ करती थी ,जो बाद में रैयतों द्वारा धीरे-धीरे हड़प ली गई।
कायस्थ जाति ऐसे भी लड़ने-भिड़ने से कतराती है तो पूर्वजों ने संतोष कर लिया था। खैर , तारकेश्वर बाबू के पिता अपना मकान बना कर यहां बस गए।तारकेश्वर बाबू के एक ही भाई थे जो इनसे 20 साल बड़े थे ,नाम था स्व गिरेश्वर प्रसाद । ये मुंसिफ मजिस्ट्रेट थे और अपनी नौकरी में बड़े ईमानदार थे।ईमानदारी की वजह से ही जिस वक्त इनकी पोस्टिंग भभुआ में थी ,साज़िश पूर्वक इनकी हत्या कर दी गई थी।
तारकेश्वर बाबू की पांचवीं तक की पढ़ाई घर मे ही हुई थी।वे बताते थे कि बचपन मे वे शरारती हुआ करते थे।इन्हें पढ़ाने एक मौलवी साहब आते थे जो इन्हें उर्दू भी पढ़ाते थे ,अंग्रेजी भी और हिंदी के साथ अन्य विषय। वे पढ़ाते-पढ़ाते ऊँघने लगते ,तबतक तारकेश्वर बाबू फरार !अब मौलवी साहब ढूंढने निकलते।पिता से ज्यादा मां गुस्सेवर थीं।उसके बाद मिलने पर इनकी जबरदस्त ठुकाई होती।छठी कक्षा में इनका दाखिला स्थानीय टी.एन. जे.कॉलेजिएट स्कूल में हुआ।
तारकेश्वर प्रसाद:एक अनकही कथा–2

कॉलेजिएट स्कूल में कक्षा 6 में ही अन्य लड़कों के साथ दो लड़कों का और दाखिला हुआ था जो इनके अभिन्न मित्र बन गए।एक थे स्मृति शेष सत्येन्द्र नारायण अग्रवाल और दूसरे थे स्मृतिशेष श्री रंग तिवारी ! आगे बढ़ने से पूर्व इनका संक्षिप्त परिचय देना जरूरी है।सत्येन्द्र बाबू का घर नयाबाजार में सड़क के उत्तर ,शारदा चित्र मंदिर के पास था।ये प्रसिद्ध अग्रवाल परिवार के धनाढ्य थे और कालांतर में विधायक,विधान सभा के उपसभापति भी हुए।एक और बात ,भागलपुर विश्वविद्यालय के दो कुलपति ऐसे हुए जो औपचारिक रूप से मात्र स्नातक थे ; एक -राष्ट्रकवि रामधारी सिंह”दिनकर” ,और दूसरे – स्व सत्येन्द्र नारायण अग्रवाल ! अब तारकेश्वर बाबू के दूसरे साथी स्व श्रीरंग तिवारी जी के बारे में। श्रीरंग तिवारी जी का ज्यादातर समय उनके गांव में ही बीता।मैं तब एम.ए. हिंदी की परीक्षा दे चुका था। परीक्षा में हेड डॉ शशिशेखर तिवारी से नकल के मुद्दे पर ठन गई थी।लड़के धड़ल्ले से नक़ल कर रहे थे और मैं उनके खिलाफ खड़ा हो गया। मेरे साथ चंद्रेश,बांके और कई साथी हो गए।उस समय भागलपुर से” नई बात ” प्रकाशित हो रही थी ।दैनिक पत्र।संपादक राजेन्द्र जी और उप संपादक थे योगेंद्र जी ,आशुतोष जी ,किशन कालजयी जी और प्रसून लतांत जी। उस नई बात में नकल की खबर मैंने लिख दी जो मेरे नाम से ही मुखपृष्ठ पर छपी।देखकर आदरणीय गुरुदेव डॉ शशिशेखर तिवारी अगले पेपर में चपरासी को मुझे बुलाने को कहा पर मैं नही गया ।उस दिन प्रश्नपत्र एक घंटे विलंब से बंटा।राधा बाबू ने समझाया कि हेड से झगड़ा नही करते।पर कई संगठन और लोग पक्ष में थे।
उसी के कुछ दिन बाद गुरुदेव तिवारी जी ने एक लड़के को मेरे घर भेजा कि आपको बुला रहें हैं चलिये।रिजल्ट आया नही था। खैर,कई अंदेशे दिल मे लिए लालबाग स्थित उनके क़वार्टर पहुंचा।सामने ही सर खड़े थे ,एक कमरे की ऒर इशारा कि जाओ।गया।देखा एक बुजुर्ग सज्जन बैठे अखबार पढ़ रहे थे।उन्होंने अखबार रखा और बड़ी सख्त आवाज में पूछा , ” क्या नाम है ,और बाप का क्या नाम है ?” मैंने सकपका कर अपना और बाबूजी का नाम बताया।वे खिलखिला कर हंसे और कहा –मैं तारकेश्वर का बचपन का दोस्त और तुम्हारे हेड का बाप हूँ।वे और कोई नही ,स्मृतिशेष श्री रंग तिवारी जी थे ,गुरु डॉ शशिशेखर तिवारी के पिताजी!
संदर्भ स्वरूप ये वर्णन देना मुझे अनिवार्य लगा। तो जब ये तीन दोस्त आठवीं कक्षा में थे तो मिलकर एक हस्तलिखित पत्रिका निकाली जिसे देख सभी शिक्षक और प्रिंसिपल प्रसन्न हुए।आठवीं के वर्गशिक्षक आदरणीय स्मृति शेष पं .रामेश्वर झा “द्विजेन्द्र” थे। उन्होंने इनकी प्रतिभा पहचानी और साहित्य की ओर झुकाव देख “भगवान पुस्तकालय” नियमित जाने की सलाह दी।भगवान पुस्तकालय की स्थापना और बाबूजी के जन्म का वर्ष एक ही था ,जिसका जिक्र बाबूजी बराबर किया करते।भगवान पुस्तकालय की स्थापना बिहपुर के सम्मानित जमींदार पं भगवान प्रसाद चौबे ने की थी।उन्हीं के नाम पर” भगवान पुस्तकालय “नाम रखा गया।उस पुस्तकालय के प्रथम पुस्तकाध्यक्ष आदरणीय स्मृति शेष गुरुदेव और मेरे पिता के सबसे करीबी शिष्य-जैसे डॉ विष्णु किशोर झा “बेचन” के पिता थे। नाम स्मरण कर नही पा रहा ,इसलिये तुरत अभी नही दे पा रहा।बाबूजी उन्हें ,जो भी लिखते ,पढ़ने देते और उनके आदेशों का अक्षरशः पालन करते।नई पत्रिकाएं ,नई किताबें वे इन्हें पढ़ने बोला करते। पुस्तकालय में ही कलकत्ते से निकलने वाला पत्र “हिन्दू पंच” आता था। वे नवमी कक्षा में थे उस समय और अपनी एक तुकबंदी भेजी छपने को हिन्दू पंच में।दिसंबर के (1927) अंक में छपी। फिर गुरुवर बेचन जी के पिताजी ने इन्हें कहानी लिखने की सलाह दी ।मास्टर साहब , द्विजेन्द्र जी को बाबूजी मास्टर साहब ही कहा करते थे, ने भी कहानी लिखने की प्रेरणा दी।1928 में उसी हिन्दू पंच में इनकी पहली कहानी छपी।उसके बाद तो इनका रुख साहित्य की तरफ ही मुड़ गया।मैट्रिक की परीक्षा दी। पास हुए।फिर टी.एन. जे.कॉलेज से इंटरमीडिएट किया।लिखते भी रहे ,छपते भी रहे।घरवाले सब इनकी साहित्यिक रुझान से इत्तिफ़ाक़ नही रखते थे।
उनलोगों ने प्रथम तो इन्हें हतोत्साहित किया और सरकारी नौकरी करने के लिये जबरन तैयार करने लगे।तबतक इनकी कहानियां अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी आने लगी।इण्टरमीडिएट पास कर गए। बी.ए. में टी.एन. जे. कॉलेज में ही दाखिला हुआ।भगत सिंह से प्रभावित तो थे ही। इन्हें भी देशप्रेम ने और साहित्य-प्रेम ने घेर लिया।एक दिन बिन बताए घर से गायब हो गए।पहुंच गए कलकत्ते ।”विश्वमित्र” में छप रहे थे तो पहचान बन चुकी थी।इन्हें संवाददाता के रूप में काम मिला जो इनके अनुसार बेकार लगा।पर पैसे के लिये कर लिया।वहीं से साथ-साथ पत्रकारिता और प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी में डिप्लोमा साथ-साथ किया।फाइन आर्ट्स में भी अच्छी रुचि थी तो ये स्व अवनींद्र नाथ ठाकुर ( गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर के छोटे भाई) के पास पहुंच गए।उनसे चित्रकारी सीखी।कहानी लेखन ,समाचार लेखन आदि से उपार्जित पैसे से काम चल रहा था। उसी दरम्यान विश्वमित्र के लिये स्व शरत बाबू का साक्षात्कार लेने का कार्य इन्हें सौंपा गया।शरत जी बांग्ला ही बोलते थे ,टूटी-फूटी हिंदी बोलते थे।पूरा इंटरव्यू बांग्ला में ही लिया और खुद हिंदी अनुवाद कर के विश्वमित्र में छपवाया।गर्व से बाबूजी ये बताते।71-72 के आसपास विष्णु प्रभाकर भागलपुर आये थे और सत्येन्द्र अग्रवाल बाबू के यहां ठहरे थे।रोज सबेरे सत्येन्द्र बाबू और विष्णु जी हमारे यहां टहलते हुए आते और काफी देर तक बाबूजी से बातें होतीं।तब मैं स्कूल में पढ़ता था और साहित्य का “स” भी न जानता था ,पर उनकी बातें सुनता जरूर था।
तो कलकत्ते में रहते हुए एक दिन इन्हें एक विज्ञापन दिखा।कलकत्ते से एक पत्र निकलने वाला था अंग्रेजी में, जिसके लिये सब-एडिटर के एक ही पद के लिए आवेदन मांगा गया था ।जॉर्नलिज्म तो किये ही हुए थे और अंग्रेजी बहुत अच्छी थी।भर दिए आवेदन।इंटरवियू के लिये कई लोगों को बुलाया गया।लगभग सारे बंगाली ही थे ,इन्हें छोड़कर।ये मायूस हो गए।इनकी बारी आई।अंदर गए और जब इंटरवियू लेने वाले साहब को देखा तो देखते ही रह गए।वे और कोई नही ,खुद क्रांतिकारी सुभाष चंद्र बोस थे। इनका साक्षात्कार सफल हुआ और “फारवर्ड”में उपसंपादक के पद पर सुभाष जी ने इन्हें नियुक्त कर लिया।
क्रमशः

-डॉ तुषारकांत, प्रधानाचार्य, मिल्लत कॉलेज परसा     सिद्धू, कानू मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका, झारखंड