गुरू पूर्णिमा पर विशेष, तस्मै श्री गुरूवे नमः!

तस्मै श्री गुरूवे नमः

आज गुरु पूर्णिमाँ के शुभ अवसर पर अपने कुछ गुरूओं को याद करना मैं अपना परम कर्तव्य समझता हूँ।

मेरे जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव मेरी नानी माय सिया देवी का है। मेरी सबसे पहली शिक्षिका है। उनके अत्यधिक प्रेम ने ही मुझे बिगाड़ा (बेपरवाह बनाया) और इसी ने मुझे संवारा भी (जिम्मेदार भी बनाया)। इसी तरह नाना जी स्वतंत्रता सेनानी राम नारायण सिंह के द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन की कहानियों और पौराणिक कथाओं से मेरी वैचारिकी का निर्माण हुआ। दादा-दादी, माँ-पिताजी, मौसियों, मामाओं एवं बड़ी बहनों से भी मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला है। मैंने अपने कुछ दोस्तों से भी बहुत कुछ सीखा है। किसी दार्शनिक ने कहा है, “मैं जिस किसी से भी मिलता हूँ, वह किसी न किसी चीज में मुझसे बेहतर होता है। मैं उनसे वही सीखता हूँ।” मैं भी अपने जीवन में इसका अनुशरण करने की कोशिश करता हूँ। लेकिन आज मैं अपने उन शिक्षकों को याद करने जा रहा हूँ, जिनसे मैंने औपचारिक रूप से शिक्षा ली है।

1. प्राथमिक शिक्षा

मेरी शुरूआती पढ़ाई-लिखाई दूरन सिंह मध्य विद्यालय, माधवपुर (खगड़िया) में हुई। वह एक बोरी-चट्टी वाला ग्रामीण सरकारी विद्यालय (‘बोरिस पब्लिक स्कूल’) था। वहाँ प्रथम से सप्तम वर्ग तक पढ़ा। मुझे याद है कि पंचम वर्ग तक हम बैठने के लिए साथ में बोरा लेकर जाते थे। स्कूल का फर्स विद्यार्थी लोग खुद झाड़ू लगाकर साफ करते थे। फिर भी पूरा बोरा धूल से भर जाता था और घर वापसी तक हम भी धूल धूसरित हो जाते थे।

हम खड़ी कलम एवं दवात से लिखते थे। प्रतिदिन एक पेज हिंदी और एक पेज अंग्रेजी ‘लिखना’ लिखते थे। शिक्षक उसे चेक करते थे और हमारी गलतियों को सुधारते थे। हम अखबारों से कठिन शब्दों को नोट करते थे। साथ ही बीबीसी हिंदी सेवा सुनकर भी अपनी भाषा सुधारते थे।

एक बार हमारे कक्षा में एकांकी ‘बलकरन’ को बढ़ाने के क्रम में हमारे शिक्षक ने इस एकांकी का मंचन कराया था। मैं उसमें तैमूर लंग बना था। हमारे विद्यालय के शिक्षक रामचन्द्र बाबू एवं अनंत बाबू बड़े ही बेहतरीन अभिनेता थे। हमारे विद्यालय के रंगमंच पर प्रत्येक वर्ष सरस्वती पूजा पर आयोजित नाटकों में दोनों की महती भूमिका होती थी। दोनों नाटकों के दृश्यों के बीच-बीच में प्रहसन आदि प्रस्तुत करते थे। कभी-कभी रामचंद्र बाबू मुझे अपने कंधे पर बैठाकर विद्यालय के बरामदे में घुमाते थे। हरेन्द्र बाबू, राधाकांत बाबू आदि से जुड़े कई संस्मरण भी अविस्मरणीय हैं। लेकिन मैं उन संस्मरणों को छोड़कर यहाँ एक शिक्षिका, जो रिश्ते में मेरी नानी लगती थीं, का जिक्र करना चाहूंगा। इनसे मुझे हमेशा विशेष स्नेह मिलता था। वो मुझे अक्सर ‘चाॅकलेट’ भी देती थीं। उनका छोटा बेटा निशांत भी मेरा अभिन्न क्लास फ्रेंड है। मेरे मामा जी अग्निदेव प्रसाद सिंह और देवी जी अक्सर हम दोनों (मुझे और निशांत) को किसी अंग्रेजी मीडियम स्कूल में दाखिला कराने की योजना बनाते रहते थे। लेकिन ये योजनाएँ कभी जमीन पर नहीं उतर पाईं।

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि विद्यालय से इतर गाँव के अन्य शिक्षकों से भी मैंने बहुत कुछ सीखा है। उनमें भोला झा ‘भवेश’, अवधेश कुमार, विनोद कुमार मिश्र, पंकज कुमार आदि के नाम शामिल हैं

उच्च विद्यालय

आठवीं कक्षा में मेरा नामांकन श्रीकृष्ण उच्च विद्यालय, नयागाँव (खगड़िया) से हुआ। यहाँ के एक शिक्षक धीर प्रशांत से मुझे पत्र-पत्रिकाओं में लिखने की प्रेरणा मिली। उनके द्वारा गाया जाने वाला सामूहिक गीत आज भी मैं अक्सर गुनगुनाता हूँ, “नौजवानों भारत की तकदीर बना दो। फूलों के इस गुलशन से कांटों को हटा दो।” यहाँ यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि मेरी स्कूली पढ़ाई खत्म हो जाने के कई वर्षों बाद भी सर से मेरा पत्राचार रहा। उनके एक पत्र की यह पंक्ति मुझे हमेशा प्रेरणा देती है, “तुम चढ़ो स्वप्न की सीढ़ी पर, सारा आकाश तुम्हारा है।” जब मैं मधेपुरा आया, तो मैंने सर के गाँव मुरलीगंज (मधेपुरा) के एक मित्र से उनका फोन नंबर लिया। अब सर से अक्सर आशीर्वाद मिलता है।

हाईस्कूल के अन्य शिक्षकों श्याम सुन्दर कुंवर, जनार्दन कुंवर, अंगद कुमार सिंह, रंजीत कुमार सिंह, रामचंद्र प्रसाद, निरंजन सिंह ‘निराकार’, यूसुफ अली, प्रह्लाद कुमार एवं एकमात्र शिक्षिका, जिनकी बेटी मेरे साथ पढ़ती थीं आदि से जुड़े संस्मरण भी अविस्मरणीय हैं।

स्नातक

तिलकामाँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर के तत्कालीन कुलपति प्रोफेसर डॉ. रामाश्रय यादव के कार्यकाल में मेरा नामांकन प्रतिष्ठित टी. एन. बी. काॅलेज, भागलपुर में हुआ। यहाँ दर्शनशास्त्र (प्रतिष्ठा) की पढ़ाई के दौरान मुझे दर्शनशास्त्र विभाग के अध्यक्ष डाॅ. दिवाकर पाठक का विशेष स्नेहाशीष प्राप्त हुआ। वे मेरे लिए ‘प्रोफेसर’ के पर्याय हैं। मुझे याद आता है उनका करीने से सजा बाल और उससे भी अधिक सजा-संवरा व्याख्यान। चमचमाता जूता और उससे भी अधिक विचारों की चमक। आकर्षक छवि एवं प्रेरणादायी व्यक्तित्व। वे मुझे हमेशा अच्छा अंक लाने और उससे भी अधिक अच्छा व्यक्ति बनने को प्रेरित करते थे। मेरे स्नातक प्रथम खंड के परीक्षा परिणाम में मुझे अंग्रेजी (सब्सिडियरी) में 58 अंक आया था, तो सर ने कहा या बहुत कम है कम से कम 60 तो आना ही चाहिए था।

डॉ. दिवाकर पाठक सर ने कॉलेज पत्रिका के लिए एक आलेख ‘दर्शनशास्त्र की उपयोगिता’ लिखा था। यह आलेख सर बोलते गए और मैं उसे लिपिबद्ध करता गया। मेरी अच्छी लेखनी को देख कर सर ने कहा कि इसे टंकित कराने की कोई आवश्यकता नहीं है और उन्होंने आलेख सीधे छपने के लिए दे दिया।

सर से मैं अपने भाषणों को चेक करवाता था। वे हमेशा उपयोगी सलाह देते थे। एक बार उन्होंने मुझसे कहा था, “युवावस्था में कम-से- कम दो किताबें लिखना। युवावस्था के विचारों का विशेष मूल्य है।” आज मुझे इस बात का दुख है कि मोबाइल नंबर उपलब्ध नहीं रहने के कारण फिलवक्त सर से मेरा भौतिक संपर्क नहीं है, लेकिन विभाग के अन्य शिक्षकों डाॅ. शंभु प्रसाद सिंह, डाॅ. नीलिमा कुमारी एवं डाॅ. अशोक कुमार सिंह से आज भी मेरा पारिवारिक संबंध है।

काॅलेज के दर्शनेतर शिक्षकों से भी मेरे अच्छे संबंध रहे और उनमें से प्रायः सभी लोगों का भी मुझे विशेष आशीर्वाद प्राप्त रहा है। इनमें प्रो. (डाॅ.) फारूक अली, प्रो. (डाॅ.) योगेन्द्र, डाॅ. मिथिलेश कुमार सिन्हा, डाॅ. मनोज कुमार, डाॅ. बदरुद्दीन शबनम, डाॅ. मुस्फिक आलम, डाॅ. संजीव ठाकुर, डाॅ. आलोक चौबे, डाॅ. अर्चना कुमारी आदि प्रमुख हैं। इन शिक्षकों के मार्गदर्शन में मैंने काफी सामाजिक कार्यों में भाग लिया और शतरंज, डीबेट एवं एल्यूकेशन (स्वतःस्फूर्त भाषण) प्रतियोगिता में काॅलेज का प्रतिनिधित्व किया। मुझे एल्यूकेशन (वर्ष 2005) में पूर्वी क्षेत्र अंतर विश्वविद्यालय युवा महोत्सव में द्वितीय और राष्ट्रीय युवा महोत्सव में चतुर्थ स्थान प्राप्त हुआ था।

स्नातकोत्तर

स्नातकोत्तर दर्शनशास्त्र विभाग, तिलकामाँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर में औपचारिक विद्यार्थी जीवन का सबसे अहम केंद्र रहा। यहाँ हमें विशेष रूप से विभागाध्यक्ष गुरूवर डाॅ. प्रभु नारायण मंडल का मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद प्राप्त हुआ। आप विधिवत वर्ग-तालिका के अनुरूप कक्षा संचालन को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे। प्रतिदिन पाँच कक्षाएँ संचालित होती थीं और प्रत्येक गुरूवार को विभागीय सेमिनार का आयोजन किया जाता था। इससे हमारे बौद्धिक विकास में काफी मदद मिली। विभाग के सभी शिक्षक डाॅ. प्रतिमा गांगुली, डाॅ. राजेश रंजन तिवारी, डाॅ. मृत्यंजय कुमार एवं डाॅ. पूर्णेंदु शेखर अपने-अपने विषय में बेहतर करने को तत्पर रहते थे। स्नातकोत्तर की पढ़ाई के दौरान मुझे कई दर्शनेतर शिक्षकों कि भी हमेशा आशीर्वाद मिलता रहा है। इनमें प्रो. (डाॅ.) परमानंद सिंह, प्रो. (डाॅ.) बहादुर मिश्र, प्रो. (डाॅ.) विजय राय, प्रो. (डाॅ.) सी. पी. सिंह, प्रो. (डाॅ.) विजय कुमार, प्रो. (डाॅ.) श्रीभगवान सिंह, प्रो. (डाॅ.) प्रेम प्रभाकर, प्रो. (डाॅ.) दामोदर महतो, डाॅ. गिरिशचंद्र पांडेय आदि प्रमुख हैं।

इन सभी शिक्षकों से मेरा आत्मीय लगाव है। सबों के बारे में यहाँ विस्तार से लिखना संभव नहीं है।

शोध का निर्णय
मैंने एम. ए. की पढ़ाई के दौरान ही तय कर लिया था कि मुझे पी-एच. डी. शोध करना है, डाॅ. भीमराव अंबेडकर के दर्शन पर। मैंने इस बात को ध्यान में रखकर मन ही मन शोध-निदेशक का चयन शुरू किया।

मुझे ऐसे शिक्षक की तलाश थी, जो विषय के अधिकारिक विद्वान हों, सामाजिक न्याय की पृष्ठभूमि से आते हों और जिनकी डाॅ. अंबेडकर के विचारों में आस्था भी हो।

शोध-निदेशक का चयन
———-
उक्त कसौटी के आधार पर स्नातकोत्तर दर्शनशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर डाॅ प्रभु नारायण मंडल मेरी पहली पसंद थे। लेकिन मुझे किसी तरह पता चला कि प्रभु सर पी-एच. डी. नहीं कराते हैं। मुझे लगा कि चूंकि वे विभागाध्यक्ष हैं, इसलिए पी-एच. डी. करा ही नहीं सकते हैं। ऐसे में मजबूरन मैं अपने शोध निदेशक के रूप में प्रभु सर के अतिरिक्त अन्य नामों पर विचार कर रहा था। अपने एक शिक्षक से मेरी प्रारंभिक बातचीत भी हुई थी। इसी बीच मुझे पता चला कि प्रभु सर पी-एच. डी. करा सकते हैं, लेकिन समयाभाव में नहीं कराते हैं।

फिर तो मैंने तय कर लिया कि मुझे प्रभु सर को ही शोध निदेशक बनाना है। बस मैंने तुरंत सर को फोन लगा दिया। बातचीत कुछ इस प्रकार हुई-

मैं- “मुझे डाॅ. अंबेडकर के दर्शन पर आपके निदेशन में शोध करना है।”

सर-“लेकिन मुझे तो पता चला है कि आपने किसी दूसरे शिक्षक से शोध निदेशक बनने का अनुरोध किया है।”

मैं- “जी। मुझे पता था कि आप पी-एच. डी. नहीं करा सकते हैं। इसलिए एक सर से प्रारंभिक बात किया हूँ। लेकिन अभी तुरंत पता चला है कि आप करा सकते हैं। इसलिए मुझे आपके निदेशन में ही पी-एच. डी. करनी है।”

सर- “अरे प्रायः विद्यार्थी खुद से काम नहीं करना चाहते हैं। इसलिए पी-एच.डी. कराना बंद कर दिए हैं। लेकिन आपको पी-एच. डी. कराने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मुझे पता है कि आप सब कुछ अपने से कर सकते हैं।”

मैं- “बहुत-बहुत-बहुत आभार सर।”

शोध-विषय का चयन

फिर मैंने प्रभु सर से मुलाकात की। हमने आपस में काफी चर्चा की और पहले हमारा विषय तय हुआ, ‘जाति आधारित समाज और सामाजिक न्याय : डाॅ. भीमराव अंबेडकर के विशेष संदर्भ में’। मैंने इस पर शोध प्रारूप तैयार किया। सर ने कई बार करेक्शन किया। फिर जब शोध प्रारूप लगभग फाइनल हो गया, तो हम दोनों ने विषय पर पुनः गंभीरता से विचार-विमर्श किया। अंततः मेरा विषय तय हुआ, ‘वर्ण-व्यवस्था और सामाजिक न्याय : डाॅ. भीमराव अंबेडकर के विशेष संदर्भ में’। बकौल प्रभु सर यह पहले वाले से ज्यादा ‘फिलाॅशोफिकल’ था।

बहरहाल टाॅपिक में थोड़े संशोधन के अनुरूप शोध-प्रारूप में भी थोड़ा संशोधन हुआ। फिर ज्यादा ‘फिलाॅशफिकल’ बनाने के लिए सर ने इसके प्रथम अध्याय में ‘न्याय की अवधारणा : प्राच्य एवं पाश्चात्य’ जोड़ दिया।

वैसे मुझे याद है कि एक बार मेरे एम. ए. का परीक्षाफल आने के पहले ही प्रभु सर ने मुझसे किसी प्रसंग में कहा था कि मैं डाॅ. अंबेडकर पर शोध करूँ। लेकिन शायद उन्हेें डाॅ. अंबेडकर के सामाजिक-राजनीतिक विचारों की ओर मेरा अतिरिक्त झुकाव मेरे कैरियर की दृष्टि से उचित नहीं लग रहा था। वैसे वे मेरी बालसुलभ जिद के आगे मजबूर थे, लेकिन ‘टाॅपिक’ को ‘फिलाॅसोफिकल’ बनाने का कोई भी ‘स्कोप’ छोड़ना नहीं चाहते थे।

शोध-प्रारूप पर प्रतिक्रिया
—————
बहरहाल विभाग में मेरे प्री-पी-एच. डी. सेमिनार की तिथि तय हो गई। इसके पूर्व प्रचलित परंपरा के अनुसार मैंने शोध-प्रारूप की टंकित प्रति विभाग के सभी शिक्षकों को उपलब्ध करा दी। किसी को भी पसंद नहीं आया। सबों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कोई दूसरा ‘टाॅपिक’ लेने की सलाह दी। एक शिक्षका ने तो ‘टाॅपिक’ देखते ही मेरे शोध-प्रारूप की प्रति फेंक दी। मैं उसे उठाकर पुनः उन्हें दिया।

फिर हम दोनों के बीच बातचीत कुछ इस प्रकार हुई-

शिक्षिका- “ये क्या टाॅपिक लिए हो तुम ? अंबेडकर पर क्या रिसर्च होगा ? और ये प्रभु बाबू को क्या है। उनको बैठे-बिठाए एक पी-एच. डी. मिल जाएगी। काम तो तुम अपने से कर लोगे और उनका नाम हो जाएगा।”

मैं -“ऐसी बात नहीं है मैडम। मैंने खुद यह टाॅपिक चुना है।”

शिक्षिका-“तुम पढ़ने में अच्छे हो, ग्रीक फिलाॅसफी का कोई टाॅपिक लो।”

मैं-“मैडम टाॅपिक तो यही रहेगा। 8 मई को सेमिनार है।”

शिक्षिका- “ठीक है रखो। लेकिन मैं तो विरोध करूँगी। प्रभु बाबू को भी कहूँगी कि ये क्या करा रहे हैं। …और तुम तो खुद को बर्बाद कर ही रहे हो समाज को भी बर्बाद करोगे। वो प्रधानमंत्री तुम्हारी जाति का ही था न, जिसने आरक्षण लागू किया।”

मैं- “मैडम मैं जाति-पाति नहीं मानता हूँ और अभी आपसे बहस भी नहीं करना चाहता। प्रणाम।”

शोध-प्रारूप की प्रस्तुति
———
मैंने 8 मई, 2008 को स्नातकोत्तर दर्शनशास्त्र विभाग में अपना शोध-प्रारूप प्रस्तुत किया। इस अवसर पर विभागीय शिक्षकों के अलावा कई काॅलेजों के भी शिक्षक, कई शोधार्थी और दर्जनों विद्यार्थी उपस्थित थे। मैंने संतोषजनक प्रस्तुति दी।

फेलोशिप
मेरा यह सौभाग्य है कि मुझे भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली द्वारा पी-एच. डी. कार्य के लिए फेलोशिप प्राप्त हुई। मेरे साक्षात्कार में दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली में दर्शनशास्त्र विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष प्रो. (डाॅ.) अशोक वोहरा और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में दर्शनशास्त्र विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष प्रो. (डाॅ.) आर. पी. सिंह विषय विशेषज्ञ थे। मुझे दोनों का आशीर्वाद प्राप्त हुआ।

शोध-पत्र की प्रस्तुति और पुरस्कार

मैंने नवंबर 2008 में गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार में आयोजित अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के वार्षिक अधिवेशन में भाग लिया। वहाँ मैंने ‘नव बौद्धधर्म : न पलायन, न प्रतिक्रिया, वरन् परिवर्तन की प्रक्रिया’ विषयक शोध-पत्र प्रस्तुत किया। यह शोध-पत्र को धर्म दर्शन विभाग में युवा वर्ग द्वारा प्रस्तुत आलेखों में सर्वश्रेष्ठ चुना गया और इसके लिए मुझे ‘विजयश्री स्मृति युवा पुरस्कार’ प्राप्त हुआ। साथ ही दार्शनिक त्रैमासिक के प्रधान संपादक प्रो. (डाॅ.) रजनीश कुमार शुक्ल ने इसे प्रकाशित कर मेरा हौसला बढ़ाया। परिषद् के अध्यक्ष प्रो. (डाॅ.) एस. पी. दुबे ने अपने काॅलम में इस लेख की चर्चा कर मुझे आशीर्वाद दिया।

अखिल भारतीय दर्शन परिषद् और बिहार दर्शन परिषद् के सदस्य के रूप में मैंने ‘गुरूकुल’ में जीवन भर के लिए दाखिला ले लिया है। इन दोनों संस्थाओं में काम करते हुए मुझे कई लोगों से काफी कुछ सीखने को मिला है। इनमें प्रो. (डाॅ.) रमेश चंद्र सिन्हा, प्रो. (डाॅ.) इंद्रदेव नारायण सिन्हा, प्रो. (डाॅ.) सोहनराज तातेड़, प्रो. (डाॅ.) राजकुमारी सिन्हा, प्रो. (डाॅ.) जटाशंकर, प्रो. (डाॅ.) पूनम सिंह, प्रो. (डाॅ.) अम्बिकादत शर्मा, प्रो. (डाॅ.) महेश प्रसाद सिंह, प्रो. (डाॅ.) बी. एन. ओझा, प्रो. (डाॅ.) नरेश कुमार अम्बष्ट, प्रो. (डाॅ.) रामाशंकर आर्य, प्रो. (डाॅ.) नरेश प्रसाद तिवारी, प्रो. (डाॅ.) अमरनाथ झा, प्रो. (डाॅ.) ज्ञानंजय द्विवेदी, प्रो. (डाॅ.) सरोज कुमार वर्मा, प्रो. (डाॅ.) शैलेश कुमार सिंह एवं डाॅ. श्यामल किशोर प्रमुख हैं।

विशेष
पूर्व सांसद, पूर्व कुलपति एवं सुप्रसिद्ध गाँधीवादी विचारक प्रो. (डाॅ.) रामजी सिंह का जीवन एवं दर्शन हमारे लिए प्रेरणा स्तंभ है। मेरा यह सौभाग्य है कि मुझे लंबे समय तक उनके सानिध्य का सुअवसर प्राप्त हुआ है।