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कविता/ आजकल /डॉ. कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’

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आजकल
डॉ कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’

धड़कने बदल रही करवटें आजकल।
चाँद के माथे पर हैं सलवटें आजकल।
यों तो अपना ही था वो मेरा, दोस्तों!
महफिलों की जुबाँ नफ़रतें आजकल।

आँखें चुपचाप हैं, दिल भी खामोश है।
देखो तो सदमें में हैं गुरबतें आजकल।
जिसको देखो वही रंग-रलियों में है।
कहाँ राँझे सी हैं उल्फ़तें आजकल।

पत्थरों से लड़ी, मैं नदी की तरह।
उसकी सागर सी हरकतें आजकल।
बस समंदर ही था मेरा राहे सफर।
हर नदी से उसे मोहब्बतें आजकल।                -डॉ कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’

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