Maa माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की मूरत क्या होगी!

नानी माय को भौतिक शरीर त्यागे तीन वर्ष हो गए। (पुण्यतिथि 21 अगस्त, 2020) लेकिन आजतक एक भी दिन वैसा नहीं है, जब मैंने अपने अंतर्मन में उनकी उपस्थिति महसूस नहीं की हो। मैं प्रतिदिन उनसे बातें करता हूँ, उनकी गोद में खेलता हूँ, उनके पास बैठकर हँसता हूँ। …और उनके आंचल में छुपकर रोता हूँ। दरअसल, मेरे स्वघोषित बौद्धिक मन को रोना पसंद नहीं है, लेकिन दुख की घड़ियाँ तो आते ही रहती हैं और रोना भी चाहे-अनचाहे आ ही जाता है। ऐसे में नानी के आँचल की छाँव मेरे मन को शकून देती है। जैसा कि मैंने अपनी पी-एच. डी. थीसिस के आत्मकथन में लिखा है, “नानी मेरी ‘पहली प्रेमिका’ एवं ‘पहली शिक्षिका’ है।” सच कहूँ, तो नानी माय एक मात्र वैसी शख्सियत हैं (थी नहीं समझा जाए), जिन्हें मैं पूरा-पूरा स्वीकार्य हूँ- तमाम खूबियों एवं कमियों के साथ। एकमात्र वही मुझे सच्चा प्यार करती हैं-बेशर्त एवं अपेक्षारहित। …और बिना किसी शिकायत एवं आरोप के। इस प्यार की ही बानगी है कि बचपन की मेरी सारी बदमाशियों से भी वह कभी तंग नहीं होती थीं। मैं नानी द्वारा काफी मेहनत कर बनाए गए मिट्टी के दिवाल, चूल्हे एवं कोठी तोड़ देता था। उसके चरखे का तकुआ टेढ़ा कर देता था और भी बहुत कुछ बदमाशियाँ करता था, लेकिन उसने कभी भी मुझे किसी चीज के लिए कुछ नहीं कहा। खुद कभी भी डाँटने का तो सवाल ही नहीं, दूसरा कोई डाँटे, यह भी उसे मंजूर नहीं। इसलिए पिता जी हमेशा कहते थे कि हमको नानी ने ही बिगाड़ा है। खैर, जब मैं बड़ा हो गया, तो मैं माय से पूछता था, “माय हम्मै बच्चा में खूब बदमाशी करै रहियौ नै।” वो तुरंत कहती थीं, “नै रे बदमाशी कहाँ करै रहीं।” फिर मैं खुद अपनी बदमाशियाँ गिनाता था। इसके बावजूद वह नहीं मानती थीं।

नानी माय के विचारों एवं कार्यों की मेरे ऊपर अमिट छाप है। साफ-साफ कहें, तो मेरी वैचारिक निर्मिति में माय की अहम भूमिका है। जैसा कि मैंने पहले अन्यत्र लिखा है कि मुझे लिखने-पढ़ने की प्रेरणा मेरे नाना जी स्वतंत्रता सेनानी श्री राम नारायण सिंह से मिली है। यह बिल्कुल सही भी है। लेकिन मेरे लेखन को वैचारिक दिशा मेरी माय के विचारों से मिली है।

नानी के जीवन-मूल्यों की कुछ बानगी निम्न है-

1. देशभक्ति : नानी ने अपने हाथ में ‘जय हिन्द’ गुदबाया था। इससे उनके देशप्रेम को सहज ही महसूस किया जा सकता है। साथ ही इससे हम ‘जय हिन्द’ की महत्ता एवं लोकप्रियता का भी ही अनुमान लगा सकते हैं।
2. सत्संग : माय (नानी) एक धार्मिक महिला थीं। वे हिन्दू धर्म के सभी कर्मकांडों का पालन करती थी, तबियत खराब होने के बावजूद गंगास्नान करती थीं, शिवालय जाती थीं और जीतिया आदि सभी व्रत करती थीं। प्रत्येक मंगलवार को गाँव में होने वाले साप्ताहिक ‘सत्संग’ में भाग लेती थीं। हम दोनों की नियमित बातचीत का एक प्रमुख प्रसंग ‘सत्संग’ रहता था। वे अक्सर हमारे दरवाजे पर भी साप्ताहिक ‘सत्संग’ का प्रेमपूर्वक आयोजन करती थीं।
3. सेवा : माय (नानी) छुआछूत एवं भेदभाव की विरोधी थीं। उनका सभी जाति एवं धर्म के लोगों के प्रति प्रेम था। हमारा दलित हलवाहा मितो एवं उनकी पत्नी हमारे पारिवारिक सदस्य जैसे थे। हमारे नाना जी के दो अभिन्न सहकर्मी स्वतंत्रता सेनानी द्वय भूमि मंडल एवं मो. सादिक नवाद अक्सर हमारे घर आते थे और नानी उन्हें प्रेम से चाय-नास्ता देती थीं। सचमुच वो त्याग, तपस्या, प्रेम एवं सेवा की प्रतिमूर्ति थीं। उनकी धार्मिकता प्रेरणादायी है।
4. सच्चा प्रेम : मेरी माय (नानी) तबियत खराब होने के बावजूद जीतिया व्रत का उपवास करती थी। एक बार मैंने व्रत करने मना किया, तो मेरा मन रखने के लिए कह दिया, “ठीक है”। लेकिन उन्होंने मेरे से छुपाकर जीतिया किया और कल उन्होंने दवाई भी नहीं ली। यह जानकर मुझे अपनी ‘झूठी नानी’ के ऊपर बहुत गुस्सा आ गया। मैंने नानी से ‘एक्सपलानेशन’ पूछा। उन्होंने कहा,” तोय खूब हमर तबियत कै देखें । हमरा लेली बाल-बुतरू के जीवन ज्यादा जरूरी छै।” ‘झूठी नानी’ के इतने ईमानदार एवं बेबाक उत्तर ने मेरा मुँह बंद कर दिया।
5. विश्वास : एक बार मैंने बारी-बारी से माय एवं मम्मी, दोनों से कहा कि “मैं दोनों में से एक से ही बात करूँगा।” मेरे इस प्रस्ताव को सुनते ही दोनों ने खारिज कर दिया। लेकिन मैं अडिग हो गया और दोनों को अपने प्रस्ताव पर मंतव्य देने के लिए बाध्य कर दिया। … नानी ने कहा, ” जन्म देने वाली माँ का पहला अधिकार है। मम्मी से ही बात करो। मेरी बेटी की खुशी में ही मेरी खुशी है।” मम्मी ने कहा, ” नानी ने ही तुमको पाला-पोषा है। नानी से ही बात करो। मैं नानी से ही तुम्हारे बारे में पता कर लूँगी।” इस तरह दोनों के उत्तर से मेरी राजनीतिक चाल फेल हो गयी।
6. स्वाबलंबन : माय जीवन के अंतिम दिनों में भी किसी पर आश्रित नहीं रही। वह प्रायः अपने सभी दैनिक काम खुद करती थीं। वे चरखा कातती थीं। खुद जांता चला कर आटा, सत्तु, बेसन आदि तैयार करती थीं। वह दूध से मक्खन निकालने का भी काम करती थीं। इसके अलावा चरखा भी चलाती थीं। वह गाँव की अन्य महिलाओं के साथ नियमित रूप से पास के बाजार कन्हैयाचक स्थित खादी भंडार जाती थीं और काते सूत के बदले पैसा एवं रूई प्राप्त करती थीं।
7. मितव्ययिता : माय (नानी) मित्वययिता में विश्वास रखती थीं। वह हर चीज बड़ी हिफाजत से खर्च करती थीं। यहाँ तक की कुएँ से लाए गए पानी की फिजूलखर्ची भी उसे पसंद नहीं थी। खानपान के मामले में भी वह काफी मितव्ययी थी। वह कम तेल-मसाले से स्वादिष्ट भोजन बनाती थी और चाहती थी कि अन्य लोग भी ऐसा करे। यदि कोई कभी सब्जी आदि में तेल-मसाले को कम बताकर माय से शिकायत करे, तो माय कहती, “खस्सी के जान जाए, खबैया के स्वादे नै।”
8. सादगी : माय सादगी पसंद थीं। मैंने उसे कभी भी दूसरों की देखादेखी करते नहीं देखा। वह दूसरों से माँगकर कुछ अच्छा पहने-ओढ़ने के खिलाफ थी। वह चाहती थी कि हमारे पास जो कपड़े हैं, हम उसे ही साफ-सुथड़ा करके ढ़ंग से पहनें। यदि कभी कोई अपने कपड़े को छोड़कर दूसरे के कपड़े पहन ले, तो नानी कहती, “आपन गुदड़िया के बारह बाट, पर के चुनरिया लेके गेलहो हाट।”
9. स्वच्छता : माय सच्चे अर्थों में स्वच्छाग्रही थी। वह बिना गंगा स्नान किए अन्न ग्रहण नहीं करती थीं। वह प्रत्येक दिन अहले सुबह खुद पूरे आंगन-दरवाजे की सफाई करती/ कराती थीं। प्रत्येक पर्व-त्योहार पर सभी जगह मिट्टी एवं गोबर से लेप लगाती थीं। कभी-कभी किसी बात पर गुस्सा होकर मैं दिवारों पर लात मारकर उसे खराब कर देता था, तो नानी उसकी मरम्मत करती थीं।
10. समझ : यहाँ यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि माय निरक्षर थीं, उसने कागज एवं कलम छुआ भी नहीं था, लेकिन उसकी समझ-बूझ बेमिशाल थीं।

संक्षेप में, माय मेरी प्रेरणा स्रोत हैं। मैंने अपने लेखन में भी जगह-जगह जिक्र किया है। सर्वप्रथम मैंने ‘युवा संवाद’ पत्रिका में छपे अपने लेख ‘भूमंडलीकरण का मारा, प्यारा गाँव हमारा’ में नानी गाँव और नानी की बातें लिखी थीं। मैंने फेसबुक पर जो सबसे पहला बड़ा पोस्ट लिखा है, वह भी माय से ही संबंधित है, ‘झूठी नानी का सच्चा प्रेम’। इस पोस्ट के साथ एक ‘फोल्डर’ है, जिसमें माय की कुछ स्मृतियाँ कैद हैं। उनकी और भी बहुत बातें हरवक्त मेरे जेहन में कौंधती रहती हैं। मैं उन्हें एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित कराऊँगा।

आभार : मैं ‘बिहार दर्शन परिषद्’ के अध्यक्ष प्रोफेसर डाॅ. बी. एन. ओझा और महासचिव डाॅ. श्यामल किशोर सहित पूरी कार्यकारिणी के प्रति आभारी हूँ। परिषद् ने वर्ष 2017 से नानी की याद में ‘सिया देवी (खगड़िया) स्मृति व्याख्यान-माला’ की शुरुआत की है। इसके तहत प्रत्येक वर्ष परिषद् के वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर दर्शन के किसी विद्वान द्वारा एक व्याख्यान प्रस्तुत किया जाएगा। इस कड़ी में पहला व्याख्यान परिषद् के पूर्व अध्यक्ष और दर्शनशास्त्र विभाग, तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर डाॅ. प्रभु नारायण मंडल ने ‘सदगुण विमर्श’ शीर्षक से प्रस्तुत किया। गुरूवर प्रोफेसर डाॅ. प्रभु नारायण मंडल के प्रति विशेष रूप से कृतज्ञता।

संक्षेप में, नानी माय की बहुत-बहुत बातें हैं। या यूँ कहें कि मेरे जीवन की सारी बातें उनकी ही हैं। एक गाने के शब्द उधार लेकर कहूँ, “हे माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की मूरत क्या होगी…।” “माँ तुझे सलाम।”