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Vikas aur Manvadhikar विकास और मानवाधिकार

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13. विकास और मानवाधिकार

भूमंडलीकरण के रथ पर सवार आधुनिक मानव ‘विकास’ की बुलंदियों पर है। आज उसके पास हैऋ आकाश को मुंह चिढ़ाते बहुमंजिले मकान, धरती की छाती लांघते द्रुतगामी वायुयान और हवा में बातें करते विकसित संचार-समान। वह अंतरिक्ष में चक्कर लगा रहा है, कर रहा है समुद्रतल पर क्रीड़ा और घूम रहा है लेकर दुनिया को अपनी मुट्ठी में! वह नदियों को रोक सकता है, पहाड़ों को तोड़ सकता है और हवाओं का रूख मोड़ सकता है। उसने धरती के सभी जीवों को अपने वश मंे कर लिया है और प्रकृति-पर्यावरण को जितने के लिए लगा रहा है जोर! यह है आधुनिक विकास के विश्वविजयी अभियान की कुछ कहानियाँ!!

मगर, इस कहानी का दूसरा पहलू बड़ा ही भयावह है। पूरी दुनिया में प्रायः हर जगह लोगों के मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। आज भी हम सभी लोगों को भोजन, वस्त्रा, आवास एवं चिकित्सा और शिक्षा, रोजगार एवं सुरक्षा आदि उपलब्ध कराने में नाकामयाब हैं। वास्तव मंे, अभी भी सबों को गरिमापूर्ण जीवन जीने और समुचित विकास का अवसर उपलब्ध कराने का लक्ष्य अधूरा है।

यहाँ यह विशेषरूप से उल्लेखनीय है कि मानवाधिकार का मामला सभी लोगों के सर्वांगीण विकास से जुड़ा हुआ है। जब तक लोगों के बुनियादी मानवाधिकारों की रक्षा नहीं होगी, तब तक उसका संपूर्ण विकास अवरोधित एवं कुंठित ही रहेगा।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की मदद से हमने सिद्धांततः सभी लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की क्षमता प्राप्त कर ली है और इसे जोरशोर से प्रचारित भी किया जा रहा है, लेकिन व्यवहार में दुनिया की हालात काफी नाजूक है। उदाहरण के लिए दुनिया के 77 प्रतिशत लोग अविकसित या विकासशील देशों में रहते हैं, जिन्हें दुनिया के कुल संसाधनों का महज 15 प्रतिशत हिस्सा मिलता है, जबकि शेष बचे 23 प्रतिशत लोग जो कि विकसित देशों में रहते हैं, दुनिया का 85 प्रतिशत हिस्सा हजम कर जाते हैं। इसमें भी यदि केवल अमेरिका की बात की जाए, तो असंतुलन का यह ग्राफ और भी भयावह है। भारत में भी अमीरों एवं गरीबों के बीच विषमता की खाई काफी गहरी एवं चैड़ी हो गई है। यहाँ के 40 सबसे अमीर पूँजीपतियों की कुल संपत्ति लगभग एक हजार 404 करोड़ है, जबकि 78 प्रतिशत लोगों की दैनिक औसत आय महज 18 रूपये है।

इससे यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि विकास का सारा लाभ कुछ खास देशों या वर्गों तक सीमित है। आमलोग इससे वंचित ही हैं। इसे संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा 1991 में जारी एक रिपोर्ट के माध्यम से भी समझा जा सकता है। इस रिपोर्ट के अनुसारऋ

पण् प्रत्येक वर्ष 1 करोड़ 40 लाख बच्चे पाँच वर्ष की उम्र के पहले ही कुपोषण

एवं बीमारियों की वजह से दम तोड़ देते हैं।

पपण् प्रत्येक वर्ष लाखों युवा असामयिक मौत के शिकार होते हंै, क्योंकि उन्हें

बचाने का पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं होता है।

पपपण् करीब 150 करोड़ लोगों को अनिवार्य चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हंै।

पअण् करीब 150 करोड़ लोगों को शुद्ध पेयजल भी उपलब्ध नहीं है।

इसलिए सरकार और समाज की यह महती जिम्मेदारी है कि वह विकास की योजनाएँ बनाते हुए एवं उसके क्रियान्वयन के क्रम में सबों के मानवाधिकारों का ध्यान रखे। इसमें भी कमजोर एवं पिछड़े वर्ग के हक-अधिकारों का संरक्षण विशेष रूप से जरूरी है। क्योंकि, अक्सर ऐसा देखने में आता है कि सरकार और प्रभु वर्ग विकास के नाम पर लोगों के मानवाधिकारों की धज्जियाँ उड़ाता है।

आज विकास की मौजूदा नीतियाँ भी मानवाधिकारों के हनन का कारण बन गई हैं। विकास के नाम पर मशीनीकरण एवं प्रोद्यौगिकीकरण की रफ्तार बढ़ती जा रही है, उत्पादन के साधनांे और पूँजी का विकेंद्रीकरण हो रहा है। इससे बहुसंख्य जनता के लिए आर्थिक एवं सामाजिक अधिकारों का हनन हो रहा है। सच्चिदानंद सिन्हा के शब्दों में, ”एक तरफ थोड़े से लोगों के लिए विलासिता के अनेक साधन उपलब्ध हैं। उत्पादकता इतनी बढ़ गई है, जिसकी कुछ पहले कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। लेकिन यह सब मनुष्यों के स्थान पर मशीन को लाकर हो रहा है। अतः, ज्यादा से ज्यादा लोग बेरोजगार हो समाज के हाशिए पर फेंके जा रहे है, जिनके लिए आजीविका पाने की कोई संभावना नहीं है।“1

जाहिर है कि आधुनिक विकास नीतियाँ बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का हनन कर रही हंै। इसकी वजह से बढ़ते विस्थापन ने मानवीय गरीमा को नुकसान पहुँचाया है और करोड़ों लोगों का जीवन खतरे में डाल दिया हैं। सच्चिदानंद सिन्हा के शब्दों में, ”औद्योगिक सभ्यता की भौतिक संसाधनों को निगलने की भूख सीमाहीन है। इसलिए, दुनिया भर के जंगल और जमीन, जिससे लोगों को आजीविका प्राप्त होती थी, वहाँ के निवासियों से छीनकर उद्योग और औद्योगिक परियोजनाओं के हवाले किया जा रहा है, ताकि संसाधनों की उनकी भूख मिटाई जा सके। इसके लिए बेरहमी से करोड़ों लोगों को उनके पारंपरिक परिवेश से विस्थापित किया जा रहा है। उनके अधिकारों को हर जगह औद्योगिकरण की दौड़ में रौंदा जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ ऐसी सरकारों को कायम रखने और प्रोत्साहित करने में लगी हैं, जो आम लोगों का दमन कर इन कंपनियों को संसाधन जुटाने की पूरी छूट दे सके।“2 इस तरह आधुनिक विकास नीति के तहत लगाई गई बड़ी-बड़ी परियोजनाएँ लाखों की संख्या में लोगों के विस्थापन का कारण बनी है। इन लोगों का कहीं भी उचित पुनर्वास नहीं हुआ है। अधिकांश विस्थापित गरीब और आदिवासी समुदाय के लोग हैं। इनको विस्थापित कर इनके जीवन और आजीविका चुनने की स्वतंत्राता का घोर हनन हुआ है।3

आधुनिक विकास नीतियाँ प्रकृति-पर्यावरण विरोधी भी साबित हुई हंै और यह भी मानवाधिकारों के हनन का बड़ा ही गंभीर मामला है; क्योंकि सबों को स्वच्छ एवं संतुलित पर्यावरण एवं परिवेश उपलब्ध कराना भी मानवाधिकारों के संरक्षण की दृष्टि से अनिवार्य है। लेकिन अधिकाधिक विकास की दौर में हमने मनुष्य एवं प्रकृति के समधुर संबंधों को बिगाड़ दिया है। हम अपने भोग की तृप्ति के लिए अपनी जीवन-रक्षक प्रकृति को ही नष्ट करने पर तुले हैं। डाॅ. राम सिंह सैनी ने ठीक ही लिखा हैै, ”प्रकृति मनुष्य को आज्ञा देती है कि वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का सावधानीपूर्वक दोहन करे। बुद्धिमतापूर्ण दोहन से प्रकृति स्वयं ही इन खर्च होते संसाधनों की भरपाई कर देती है। लेकिन, जब मनुष्य स्वार्थ एवं लालसावश इन प्रकृतिप्रदत्त संसाधनों का अत्यधिक एवं अनावश्यक छेड़छाड़ करता है, तो प्रकृति के विभिन्न घटकों का संतुलन बिगड़ जाता है और संपूर्ण पर्यावरण-तंत्रा अस्थिर हो जाता है। इसी अस्थिरता के कारण पर्यावरण-प्रदूषण एवं पर्यावरण-असंतुलन का संकट उत्पन्न हो जाता है।“4 ‘ग्लोबल वार्मिंग’, ‘ग्लोबल कूलिंग’, सुनामी, ओजोन परत में छेद आदि ऐसे ही भयानक पर्यावरणीय संकट हैं, जो न केवल मानवाधिकार, वरन् मानव-अस्तित्व के लिए भी गंभीर चुनौती बन गए हैं।

विकास और मानवाधिकार के संदर्भ में एक खास बात यह भी उल्लेखनीय है कि साम्राज्यवादी ताकतें विकास का मतलब सिर्फ मुट्ठी भर लोगों का विकास मानती हंै और इसमें बहुसंख्य लोगों के हितों का ख्याल नहीं रखा जाता है। साथ ही विकास का एक हौवा खड़ा किया जाता है और इसको लेकर सवाल उठाने वाले लोगों को आतंकवादी या नक्सली बताने से भी परहेज नहीं किया जाता है। उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ एवं झारखंड आदि राज्यों में विदेशी कंपनियों की परियोजनाओं का विरोध कर रहे लोगांे के साथ सरकारी व्यवहार इसका गवाह है। यहाँ यह भी गौरतलब है कि आतंकी एवं नक्सली भी सरकारी विकास योजनाओं का विरोध करने के क्रम में आम लोगों के निशाना बनाते हैं और सेना एवं पुलिस भी आतंकी एवं नक्सली के बहाने आम लोगों के मानवाधिकारों को निशाना बनाते हैं।

निष्कर्ष: भूमंडलीकरण के इस नव-साम्राज्यवादी समय में ‘विकास’ और ‘मानवाधिकार’ के बीच छत्तीस का आँकड़ा हो गया है; क्योंकि नव-साम्राज्यवादी ताकतों में विकास के नाम पर दुनिया की प्राकृतिक संपदाओं एवं मानव संसाधनों पर कब्जे की होड़ लग गई है। इस तरह प्रकृति-पर्यावरण को नुकसान पहुँचा कर लोगों के जीवन को संकट में डाला जा रहा है। दूसरी ओर जल, जंगल एवं जमीन आदि से लोगों के बेदखल कर उनकी आजीविका भी छीनी जा रही है। साथ ही विकास की इस अवधारणा ने बेरोजगारी, विषमता, विस्थापन एवं हिंसा को भी बढ़ावा दिया है। ऐसे में आज मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता एवं सम्मान बढ़ाने की जरूरत है। इस बावत सीमा सुरक्षा बल के आला अधिकारी आशीष कुमार का कहना है, ”आज विश्व के सामने आतंकवाद और मानवाधिकारों का हननऋ दो ऐसी चुनौतियाँ हैं, जिनसे दृढ़ निश्चय और एकजूटता से संघर्ष किए बिना, मानव जाति की लंबी उम्र सुनिश्चित नहीं की जा सकती है। … आज आवश्यकता है विश्वशांति की और इस दिशा में तभी प्रगति की जा सकती है, जब हम एक-दूसरे के मानवाधिकारों का सम्मान करें।“5 जाहिर है कि हमें सिर्फ अपने हक-अधिकारों के प्रति ही सजग नहीं रहना है, बल्कि दूसरों के हक-अधिकारों के संरक्षण हेतु भी प्रयास करने की जरूरत है।

 

संदर्भ

1. सिन्हा, सच्चिदानंद; ‘हम बनाम वे’ (आलेख), मानवाधिकारों का संघर्ष, संपादक: राज किशोर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2004, पृ. 52-53.

2. वही.

3. रंजन, सत्येंद्र; ‘भारत का अपना किस्सा है’, मानवाधिकारों का संघर्ष, वही, पृ. 68.

4. सैनी, डाॅ. राम सिंह; समकालीन परिपे्रक्ष्य में मानवाधिकारों के विविध आयाम; गगनदीप पब्लिकेशंस, दिल्ली, प्रथम संस्करण-2007, पृ. 545-546.

5. बोथम, मनोहर; अस्तित्व का संकट और मानवाधिकार, मेधा बुक्स, दिल्ली, प्रथम संस्करण-2008, पृ. 133.

-डॉ. सुधांशु शेखर की पुस्तक ‘भूमंडलीकरण और मानवाधिकार’ से साभार।♦

 

 

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