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Bhumandalikaran aur Samajik Nyay

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5. भूमंडलीकरण और सामाजिक न्याय 
दरअसल, भूमंडलीकरण की पूरी प्रक्रिया मुट्ठीभर पूँजीपतियों के निरंतर विकास और उनके हितों की सुरक्षा सुनिश्चित करती है। ‘पूँजी’ ही इसका देवता है और मुनाफा ही ‘मोक्ष’। इसके लिए पूरी दुनिया एक बाजार है और दुनिया के सारी प्राकृतिक संपदाएँ, मनुष्य एवं मनुष्येतर प्राणी महज एक बिकाऊ ‘माल’।1 इसमें किसी भी चीज का उतना ही मूल्य है, जितना उसका बाजार भाव। भूमंडलीकरण के समर्थक उसी व्यक्ति को महत्व देते हैं, जिसमें ‘क्रयशक्ति’ होती है या जो बाजार का ‘हितैषी’ होता है। जाहिर है कि इसमें बहुसंख्यक जनता की अपेक्षाओं एवं आकांक्षाओं का गला घोंट दिया जाता है। गिरीश मिश्र एवं ब्रज कुमार पांडेय ने ठीक ही लिखा है, ”वर्तमान भूमंडलीकरण के अंतर्गत आर्थिक गतिविधियों का संचालन बाजार की शक्तियों के द्वारा होता हे। इसमें आपकी अहमियत तभी होगी, जब आपके पास क्रयशक्ति होगी। … स्पष्ट है कि समाज के साधनविहीन या कमजोर लोगों के पास कम क्रयशक्ति होगी।“2
भूमंडलकरण के पैरोकार खुलेपन एवं आधुनिकता के नाम पर एक अजीब किस्म की अपसंस्कृति को दुनिया भर में फैला रहे हंै। इस तरह यह न केवल आर्थिक एवं राजनैतिक वरन् सांस्कृतिक वर्चस्व की भी साजिश है। इसमें दुनिया की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक प्रक्रियाओं के एकबद्ध या एकीकृत होने का अर्थ परस्पर ‘सम्मानजनक सहयोग’ नहीं, वरन् दुनिया का ‘अमेरिकीकरण’ मात्रा है।3 आज भूमंडलीकरण का अर्थ पिछड़े अथवा विकासशील कहे जाने वाले देशों की अर्थनीति को अमेरिका की अर्थनीति के मातहत संचालित करना और उन पर अमेरिका द्वारा अपनाए गए विकास-माॅडल एवं उसे हासिल करने के तरीकों को थोपना है। विकसित देशों का अगुआ अमेरिका अपनी सरपरस्ती में चलने वाली विश्वबैंक एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी वैश्विक आर्थिक संस्थाओं और बहुराष्ट्रीय कंपनियों (जिन्हें अब परराष्ट्रीय कंपनियाँ भी कहा जाता है) की मार्फत भूमंडलीकरण की मुहिम (साजिश) को अंजाम देता है।4 इस मुहिम में कई तरह की विसंगतियाँ एवं विषमताएँ हैं।
भूमंडलीकरण ने व्यापार एवं विदेशी निवेश आदि में भी असमानता को बढ़ावा दिया है। … विश्व के कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का दो तिहाई हिस्सा अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान में ही केंद्रित है। इसी तरह विश्व की सर्वोच्च बहुराष्ट्रीय कंपनियों के 90 प्रतिशत मुख्यालय पूर्वोक्त तीनों भौगोलिक क्षेत्रों में ही केंद्रित हैं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि अमेरिका अपने देश के किसानों एवं पशुपालकों को भारी मात्रा में सब्सिडी देता है, जबकि वह भारत एवं अन्य देशों की सरकारों को ऐसा करने से रोकता है। अमेरिकी कंपनियों में भारतीय प्रतिभाओं के बढ़ते वर्चस्व से डरकर वहाँ भारतीयों के काम करने में रोड़ा अटकाने के मामले भी सामने आ रहे हैं। सब तरह से यह स्पष्ट हो रहा है कि खुली प्रतिस्पर्धा के नाम पर अमेरिका वैसी बाजी खेलना चाहता है, जिसमें उसकी जीत पूर्वनियोजित हो। इस तरह भूमंडलीकरण का दुहरापन और इसके अंतर्विरोध भी प्रकट हो रहे हैं।5
वास्तव में, अमेरिका का सभी महत्वपूर्ण आर्थिक, सामरिक एवं राजनैतिक निर्णय शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों और विशेष हित-समूहों (जिसमें आम लोगों की सहभागिता नहीं होती) के प्रभाव में होते हैं। बड़े-बड़े व्यवसायियों का सरकारी नीतियों, राजनीतिज्ञों और नीति-निर्माताओं पर अत्यधिक प्रभाव है। अमेरिका की ‘रिपब्लिकन’ एवं ‘डेमोक्रेटिक’ दोनों पार्टियों को ‘काॅर्पोरेट-जगत’ से सहायता मिलती है।6 इसलिए, चुनावी जीत हार का ‘काॅरपोरेट हित’ पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ता है।
भूमंडलीकरण के समर्थकों का मानना है कि लोककल्याण के नाम पर सब्सिडी, पेंशन एवं सहायता आदि के रूप में अमीर लोगों से प्राप्त राजस्व का गरीबों में वितरण अनुचित है। कृषि को दी जाने वाली ‘सब्सिडी’, लघु-कुटीर उद्योगों को दी जाने वाली मदद, वृद्धों-विधवाओं को दिया जाने वाला पेंशन एवं विकलांगों-वंचितों आदि को दी जाने वाली सहायता और कमजोर लोगों को मिल रहा आरक्षण बंद होना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि लोककल्याणकारी नीतियाँ आर्थिक कार्यकुशलता, समृद्धि एवं विकास में बाधक हैं और इसमें पूँजी एवं संसाधनों का इस्तेमाल अनुत्पादक एवं अनुपयोगी है। ऐसी ही साम्राज्यवादी व्याख्याओं को मानते हुए भारत सहित कई अन्य देशों की सरकारें लोककल्याण एवं सामाजिक न्याय के कार्यों में अरूचि दिखा रही है। अब ऐसी मान्यता विकसित हो रही है कि सरकार का काम मात्रा विकास (‘डेवलपमेंट’) एवं सुशासन (‘गुड-गवर्नेंस’) है। यहाँ विकास का अर्थ हैऋ भूमंडलीकरण, उदारीकरण एवं निजीकरण को बढ़ावा देना और सुशासन का मतलब हैऋ ‘काॅर्पोरेट-जगत’ के फलने-फूलने हेतु उपयुक्त वातावरण उपलब्ध कराना। यही कारण है कि सरकार का ‘लोक कल्याणकारी’ स्वरूप ‘काॅर्पोरेट कल्याणकारी’ स्वरूप में तब्दील हो गया है। इसी की बानगी है कि बैंकों द्वारा किसानों एवं छात्रों को कृषि एवं शिक्षा ऋृण देने में आना-कनी की जाती है, लेकिन बड़ी-बड़ी कंपनियों को रूपए लुटाने में दरियादिली दिखाई जाती है। संक्षेप में, भूमंडलीकरण के पैरोकार हर जगह दुहरे मापदंड अपनाते हैं। ये अपने लिए ‘सुख-समृद्धि’, ‘शांति’ एवं ‘न्याय’ चाहते हैं, जबकि दूसरों को इससे वंचित करते हैं। यह दुहरापन अमानवीय एवं आत्मघाती तो है ही, सर्वनाशी भी है।7 ऐसी दुहरी नीतियों के जरिये देश-दुनिया में सामाजिक न्याय नहीं लाया जा सकता है।
यहाँ यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि जिन देशों ने भूमंडलीकरण के जरिए तथा कथित समृद्धि पाई है, वहाँ भी सामाजिक न्याय की दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई है। उलटे वहाँ आंतरिक जनतंत्रा, मानवाधिकार एवं समानता की बलि चढ़ाई गई है।8 वास्तव में, भूमंडलीकरण के प्रचारक इसकी श्रेष्ठता का झूठा दंभ भर रहे हंै, मगर यह प्रक्रिया अंदर से खोखली हो चुकी है और इसका गतितत्व समाप्त होने को है। उसके अंतर्विरोध भी खुलकर सामने आ रहे हैं। मसलन, अरबपतियों की बढ़ती संपत्ति और बिल्डिंगों की बढ़ती ऊँचाई के साथ ही ‘गरीबों’ एवं ‘स्लमों’ की संख्या भी बढ़ती जा रही है। विषमता की खाई दिन-प्रतिदिन गहरी और चैड़ी होती जा रही है। जगह-जगह इसको लेकर असंतोष भी भड़क रहा है। अब लोग यह समझने लगे हैं कि पश्चिमी सभ्यता द्वारा ‘प्रायोजित विकास’ झूठा एवं क्षणभंगुर है। सचमुच में यह पूरी प्रक्रिया गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, शोषण, विषमता एवं हिंसा का ही भूमंडलीकरण है।9
भूमंडलीकरण ‘काॅर्पोरेट-जगत’ के ‘चिंतन’ को दुनिया के केंद्र में बनाए हुए हंै और आम लोगों की ‘चिंताओं’ को दरकिनार करने में कामयाब हो रहे हंै। जाहिर है कि शेयर के उतार-चढ़ाव एवं आर्थिक समझौते सुर्खियों में छाए हैं, जबकि गरीबी, बेरोजगारी, कुपोषण, भुुखमरी एवं आत्महत्या की मजबूरी सामान्य खबर बनकर रह गई है। ऐसा कहा जा रहा है कि गरीबी तो लोगों के कर्मों का फल है, जो निठल्ले हैं, वही गरीब हैं। जो अयोग्य हैं, वही बेरोजगार हैं। कुपोषण इसलिए है; क्योंकि स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण नहीं किया गया है। भुखमरी की खबरें झूठी हैं और आत्महत्या करने वाले कायर एवं बुजदिल हैं। एक खौफनाक माहौल बनाया गया है कि बड़े-बड़े ‘अरबपति’ ही मंदी झेल रहे हैं, तो ‘एैरू-गैरू-नथ्थू-खैरू’ की क्या बिसात है। इसलिए, सरकारी खजाने का सारा धन पूँजीपतियों की शानोशौकत को बचाने के लिए खर्च होना चाहिए, वरन् दुनिया बेरंगी हो जाएगी। दरअसल, संपन्न तबकों को दी जाने वाली कई तरह की रियायतें आर्थिक विशेषज्ञों की नजर में विकास के लिए जरूरी ‘प्रोत्साहन’ है, जबकि कमजोर तबकों को दी जाने वाली सहायता हैऋ विकास में रोड़े अटकाने वाली ‘सब्सिडी’। यही हैऋ भूमंडलीकरण के विकास का अर्थशास्त्राऋ 85 प्रतिशत लोगों की ‘कब्र’ पर 5 प्रतिशत लोगों के लिए सुख की ‘सेज’। शेष 10 प्रतिशत ‘सेज’ के लिए ‘वाच डाॅग’, ‘बाॅडी गार्ड’, ‘ब्राॅकर’ एवं ‘लाॅबिस्ट’ होंगे।
नए दौर में साम्राज्यवाद का हथियार उपभोक्तावाद एवं दलालीवाद है। कवि दिनेश कुमार शुक्ल के शब्दों में, ‘जंगी बेड़ों पर चढ़कर नहीं/आएंगे इस बार तुम्हारे भीतर से वो’। यह स्पष्टतः दिखने भी लगा है। तभी तो महात्मा गाँधी सहित तमाम स्वतंत्राता सेनानियों एवं शहीदों के संघर्षों एवं कुर्बानियों को नदरअंदाज करते हुए भारत के प्रधानमंत्राी देश पर विदेशियों की बर्बर सरकार को ‘सुशासन’ एवं ‘विकास’ का ‘सर्टिफिकेट’ दे आए। ऐसे साम्राज्यवाद के नव-भाष्यकार ‘हिंद स्वराज्य’ के लिए क्या करेंगे? लेकिन, यह जरूरी नहीं कि जनता के वोट से चुने हुए प्रधानमंत्राी या अन्य जनप्रतिनिधि जनहित हेतु प्रतिबद्ध हो हीं।
इधर, पुलिस, प्रशासन एवं सेना में तो भ्रष्टाचार एवं दलाली अब आम बात ही हो गई है। न्यायतंत्रा भी भ्रष्टाचार, ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद की गिरफ्त में है। कई माननीय न्यायधीशों पर घूस लेकर फैसले देने और आय से अधिक संपत्ति जमा करने के आरोप हैं। ऐसे में इनसे यह आशा कैसे की जाए कि वे ‘डाॅलर’ के सामने अपने दिल एवं दिमाग पर नियंत्राण रखकर जनहित का ख्याल कर सकेंगे! दुर्भाग्य से मुख्यधारा की मीडिया भी काॅर्पोरेट की कठपुतली है और उसका स्तर इतना गिर गया है कि पैसे लेकर खबर लिखने, विज्ञापन को खबरों के रूप में परोसने और भ्रष्टाचारियों के लिए ‘लाॅबिंग करने तक के कुकृत्यों को अंजाम दे रही है। ऐसे में भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक संघर्ष को सफल बनाने में लिए हमें भूमंडलीकरण की भोगवादी संस्कृति से लड़ने की जरूरत है।
आज हमें देश-दुनिया में सामाजिक न्याय एवं मानवाधिकार को केंद्र में रखकर संचालित किए जा रहे सभी छोटे-बड़े संघर्षों को एकत्रित करने, जोड़ने एवं समर्थन देने और भूमंडलीकरण को सिरे से खारीज करने की जरूरत है। हम भूमंडलीकरण की नीतियों का जनपक्षीय विश्लेषण करें और इसका एक बेहतर विकल्प प्रस्तुत करें। इस क्रम में यह विशेष रूप से रेखांकित किया जाए कि भूमंडलीकरण बहुसंख्यक लोगों के विरूद्ध होने के कारण ही अनुचित है और यह समाजिक-आर्थिक न्याय के प्रतिकूल है।10
सचमुच आज प्रचंड असंतोषयुक्त जागरूक जनता ही देश-समाज को संकट से निकाल सकती है। जनता को यह समझना-समझाना होगा कि भूमंडलीकरण धनी व प्रभावशाली वर्गों के लिए ‘नैनो’ कारों का आधिक्य उपलब्ध करा सकता है, लेकिन अधिक-से-अधिक कारों को बनाकर भी वह नागरिक यातायात की एक व्यवस्था नहीं बना सकता। वह एड्स एवं स्वाइन फ्लू के प्रचार और इसके इलाज के लिए महंगी पेटेंट दवाओं का निर्माण करके भी सार्वजनिक स्वास्थ्य को विकसित नहीं कर सकता। शाॅपिंग माॅल और सुपर स्टोर के जरिए प्रभु वर्ग के लिए उपभोक्ता वस्तुओं की उपलब्धता तो सुनिश्चित कर सकता है, लेकिन निम्न क्रयशक्ति वाले गरीबों को दाना-पानी नहीं दे सकता है। चाँद पर जाने के अभियानों एवं परमाणु कार्यक्रमों में अरबों रुपए खर्च कर सकता है, लेकिन सभी लोगों के लिए स्वच्छ प्रकृति-पर्यावरण एवं शांति-व्यवस्था की गारंटी नहीं दे सकता। यह दिखाने के लिए भले ही एकाध ‘अश्वेत’ को ‘श्वेत घर’ (‘ह्नाइट हाऊस’) पहँुचा दे और एक-दो ‘स्लमडाॅग’ को करोड़पति (‘मिलिनियर’) बना दे, लेकिन यह ‘सामाजिक न्याय’ एवं ‘सर्वोदय’ नहीं ला सकता।11 इसलिए आज भूमंडलीकरण के खिलाफ निर्णायक ‘हिंद-स्वराज’ का उद्घोष करने की जरूरत है।
संदर्भ
1. शेखर, सुधांशु; ‘भूमंडलीकरण ओर सामाजिक न्याय’, भूमंडलीकरण: नीति और नियति, संपादक: मुकेश कुमार एवं सुधांशु शेखर, विश्वविद्यालय प्रकाशन, सागर (मध्य प्रदेश), 2009, पृ. 145.
2. मिश्र, गिरीश एवं पांडेय, ब्रजकुमार; भूमंडलीकरण: मिथक या यथार्थ, अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर (बिहार), 2005, पृ. 33-34.
3. शेखर, सुधांशु; ‘हिंद स्वराज्य: संदर्भ भूमंडलीकरण’, दार्शनिक त्रौमासिक, वर्ष: 57, अंक: 3, जुलाई-सितंबर 2011, प्रधान संपादक: डाॅ. रमेश चन्द्र सिन्हा, अखिल भारतीय दर्शन परिषद्, भारत, पृ. 174
4. सिंह, प्रेम; उदारीकरण की तानाशाही, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008, पृ. 87.
5. वही.
6. शेखर, सुधांशु; ‘भूमंडलीकरण, लोकतंत्रा और अमेरिका’, भूमंडलीकरण और लोकतंत्रा, पूर्वोक्त, पृ. 245.
ख्मसलन, यदि भूमंडलीकरण ‘ग्लोबल विलेज’ है, तो इसमें एक जगह (देश) से दूसरे जगह (देश) जाने की खुली छूट क्यों नहीं है? क्यों दो देशों के बीच लगे कंटीले तारों का घेरा दिन-प्रतिदिन गहरा ही होता जा रहा है और हर देश अपनी-अपनी सैन्य क्षमताएँ बढ़ाने में लगा है? जब पूरी दुनिया एक हो गई है, तो पता नहीं, हम किसके खिलाफ युद्ध की तैयारियाँ कर रहे हैं? साहित्यकार रांगेय राघव के शब्दों में, ”पहला डंडा आदमी ने जानवर मारने को उठाया था, जिससे उसने दूसरे कबीले के आदमी का सिर तोड़ा! और तब से तलवार, बंदूक, तोप होता हुआ वह एटम बम तक आ गया है। बम बनाने की तुक ही क्या है! दोनों तरफ से आत्मरक्षा और इसका नतीजा?“ नतीजा हम सबों को पता है। न्यूक्लियर युद्ध में कोई राष्ट्र न विजयी होगा और न दूसरा पराजित। वह तो संपूर्ण सृष्टि का ही सर्वनाश कर देगा। अब सवाल यह है कि इतना सब कुछ जानते हुए भी अमेरिका और परमाणु हथियार संपन्न अन्य राष्ट्र ‘व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि’ (‘सीटीबीटी’) को पूरी तरह अंगीकार क्यों नहीं कर रहे हैं? क्या अमेरिका और अन्य परमाणु शक्तियाँ यह चाहती हैं कि उनके पास दुनिया को डराने के लिए परमाणु हथियार तो रहे, लेकिन कोई दूसरा नया राष्ट्र परमाणु हथियार नहीं बना पाए? क्या यह दुहरी नीति दुनिया में शांति ला सकेगी? क्या भय द्वारा स्थापित शांति स्थायी हो सकती है? सवाल यह भी है कि अमेरिका-इजराईल जैसे देशों की तानाशाही और उनके द्वारा बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों के हनन की उन्हें क्या सजा दी जाए? फिर साम्राज्यवादी मुल्कों ने दुनिया के देशों का उपनिवेशकाल में जितना शोषण किया और मूलनिवासियों (‘रेड इंडियन्स’, नीग्रो, आदिवासी आदि) के साथ जो अन्याय हुए हैं, उसकी क्षतिपूर्ति कैसे होगी?,
7. वही.
8. शेखर, सुधांशु; सामाजिक न्याय: अंबेडकर-विचार और आधुनिक संदर्भ, दर्शना पब्लिकेशन, भागलपुर (बिहार), 2014, पृ. 183.
9. शेखर, सुधांशु; ‘हिंद स्वराज्य: संदर्भ भूमंडलीकरण’, दार्शनिक त्रौमासिक, वर्ष: 57, अंक: 3, जुलाई-सितंबर 2011, पूर्वोक्त, पृ. 177.
10. मिश्र, गिरीश एवं पांडेय, ब्रजकुमार; भूमंडलीकरण: मिथक या यथार्थ, पूर्वोक्त, पृ. 37.
11. शेखर, सुधांशु; ‘भूमंडलीकरण और सामाजिक न्याय’, भूमंडलीकरण: नीति और नियति, पूर्वोक्त, पृ. 148

-डॉ. सुधांशु शेखर की पुस्तक ‘भूमंडलीकरण और उसके से साभार।

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