Vivekanand। विवेकानंद : नव वेदांत

विवेकानंद : नव वेदांत

स्वामी विवेकानंद ने ‘वेदांत’ को काफी व्यापक संदर्भों में स्वीकार किया है और इसके अंतर्गत प्रायः समस्त भारतीय दार्शनिक संप्रदायों का समावेश मान लिया है। उनके शब्दों में, ‘वेदांत भारत के सभी संप्रदायों में प्रविष्ट है।… वेदांत ही हमारा जीवन है, वेदांत ही हमारी साँस है, मृत्यु तक हम वेदांत के ही उपासक हैं …।’’1 वास्तव में विवेकानंद यह मानते थे कि वेदांत के आदर्शों को व्यावहारिक रूप में प्रस्तुत करके ही भारत विश्वगुरू की प्रतिष्ठा को वापस पा सकता है। साथ ही वे व्यावहारिक वेदांत के आधर पर एक ऐसा दर्शन विकसित करना चाहते थे, जो समस्त संघर्षों को दूर कर मानव जाति को बहुमुखी संपूर्णता के उस स्तर तक उठा सके, जो उसका प्राप्य है।2
उन्होंने वेदांत की विभिन्न व्याख्याओं की उपयोगिता को स्वीकार किया है और उसकी एक नई बुद्धिगम्य, वैज्ञानिक और व्यावहारिक व्याख्या की। इससे अद्वैत वेदांत का यथार्थ और युगानुकूल रूप लोगों के सामने आया, जिसे नववेदांत कहते हैं। यह समकालीन भारतीय दर्शन और विश्व समुदाय को विवेकानंद की महत्त्वपूर्ण देन है।
नव वेदांत की आवश्यकता: विवेकानंद उस परंपरा के विरोधी थे, जिसके अनुसार वेदांत अत्यंत जटील तत्त्वमीमांसीय सिद्धांत है, जिसे थोड़े लोग ही समझ सकते हैं। इसलिए वेदांत के ज्ञान को जन-जन तक पहुँचाने के लिए उन्होंने नववेदांत को शिक्षा दी।
विवेकानंद कहते हैं कि साधारण जन को हमेशा पतन के सिद्धांत सिखाए गए हैं। हम उन्हें आत्मा का सत्य सुनाएँ। अब वे भी जानें कि क्षुद्र से क्षुद्र व्यक्ति में भी आत्मा है-अमर आत्मा, जिसे न तलवार भेद सकती है, न अग्नि जला सकती है और न ही हवा सुखा सकती है। सर्वथा निर्मल, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान आत्मा सबों में है।3
व्यावहारिक वेदांत की ओर पहला कदम: विवेकानंद के अनुसार व्यावहारिक वेदांत की दिशा में पहला कदम वेदांत के उत्कर्षकारी विचारों को शास्त्राीयता के खोल से मुक्त करना है। वे कहते हैं, ”वेदांत का ज्ञान दीर्घकाल से गुफाओं और वनों में कैद रहा है। अब यह भार मेरे ऊपर पड़ा है कि उसे निर्वासन से निकालूँ और पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन में पहूँचाउँ।… अद्वैत का ढोल हर स्थानों पर बाजारों में, मैदानों में गूँजेगा।“4
इसी तरह हाबर्ड विवि में एक व्याख्यान में उन्होंने कहा कि अमूर्त अद्वैत का हमारे जीवन में काव्यात्मक हो जाना आवश्यक है। अत्यधिक जटिल पौराणिकता में से मूर्त नैतिक रूप निकलने चाहिए और भ्रांतिकारी योगवाद में से अत्यंत वैज्ञानिक तथा व्यावहारिक मनोविज्ञान प्रकट होना चाहिए।5
नव वेदांत का आधार: विवेकानंद शंकर के दर्शन को जीवन जगत की सबसे संतोषजनक व्याख्या मानते थे। इसलिए उन्होंने अद्वैत वेदांत को ही नववेदांत का आधार बनाया। उनके अनुसार अद्वैत वेदांत उन मौलिक सिद्धांतों के अनुरूप है, जिस पर किसी सच्चे दर्शन को आधरित होना चाहिए।
अद्वैत वेदांत का सार: अद्वैत वेदांत का सार है कि ‘ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है और जीव एवं ब्रह्म में भेद नहीं है।’ (ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः) विवेकानंद इसे स्वीकार करते हैं और इसकी नई, वैज्ञानिक और व्यावहारिक व्याख्या करते हैं। अद्वैत वेदांत की पारंपरिक व्याख्या के विपरीत वे बताते हैं कि यह सिद्धांत बंजर एकता की बजाय ‘अनेकता में एकता’ का है और यहाँ जगत का सर्वथा अस्वीकार नहीं किया गया है।
विवेकानंद का कहना है कि वेदांत सभी सत्ताओं को सत्य मानता है, लेकिन उनमें अभिव्यक्ति की मात्रा भिन्न-भिन्न है। वे प्राणिविज्ञान के विकास सिद्धांत का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि यह सच है कि अमीबा विकसित होकर बुद्ध बनता है। जीवन विकसित होता हुआ क्रमशः उच्च से उच्चतर स्तर तक उठता जाता है। पर विज्ञान हमें यह भी तो बताता कि ब्रह्मांड में उर्जा का कुल जोड़ हमेशा समान रहा है (उर्जा संरक्षण का सिद्धांत)। इसलिए यदि बुद्ध परिवर्तन की प्रक्रिया का एक छोर है, तो दूसरी छोड़ पर अमीबा भी कुछ रहा होगा। …संभावना के रूप में पैरों तले रेंगते कीडे-मकोड़े से लेकर साधु-महात्मा तक सबों में यह असीम शक्ति, असीम निर्मलता और सब कुछ असीम विद्यमान है। अंतर केवल अभिव्यक्ति की मात्रा का है। कीड़े में उस असीम के छोटे से अंश की अभिव्यक्ति है, मनुष्य में उससे अधिक और ईश्वर में सबसे अधिक।6
यहाँ सवाल उठता है कि यदि अद्वैत वेदांत सभी सत्ताओं को किसी-न-किसी रूप में सत्य मानता है, तो जगत को मिथ्या/माया क्यों कहा गया है?
विवेकानंद का उत्तर टैगोर और राधकृष्णन की तरह ही यह है कि मिथ्या का अर्थ ‘भ्रम’ नहीं है, यदि ‘भ्रम’ को ‘यथार्थ का उलटा’ माना जाय। वे कहते हैं कि इस विषय में वेदांत बौ द्धधर्म से अधिक यथार्थवादी है। बौद्ध धर्म कहता है- ‘प्रतीत करो कि यह सब भ्रम है। अद्वैत वेदांत कहता है, ‘प्रतीत करो कि भ्रम में ही यथार्थ है।’7
विवेकानंद के अनुसार माया जीवन जगत की सापेक्षिक सत्यता की सूचक है। इसका तात्पर्य यह है कि ब्रह्म परम सत्य है, क्योंकि वह त्रिकाल बाधित है। लेकिन जगत सापेक्षिक सत्य है, क्योंकि जगत त्रिकाल बाधित नहीं है। जगत स्वतंत्रा रूप से सत्य नहीं है, यह ब्रह्म पर आधरित होने के कारण ही सत्य है। वास्तव में, जगत सत्य एवं मिथ्या, यथार्थ एवं अयथार्थ का अपरिभाष्य मिश्रण है। जगत ‘शुद्ध भ्रम’ नहीं है, बल्कि अंतर्विरोधें से भरा है, इसके विपरीत ब्रह्म में कोई अंतर्विरोध नहीं है।
विवेकानंद के अनुसार अद्वैत वेदांत की निम्न विशेषताएँ हैं –
1. तर्कसंगता: अद्वैत वेदांत तर्क की कसौटी पर खड़ा उतरता है। यह सामान्य के माध्यम से विशेष की व्याख्या करता है और मानता है कि किसी भी पदार्थ की व्याख्या भीतर से होनी चाहिए, बाहर से नहीं।8
2. मौलिकता: अद्वैत वेदांत अपने मूल (जड़) से निरंतर आबद्ध दर्शन है। इसकी जड़ें उपनिषदों के महान विचार में है। यह विचार विराट सुसंगति, सबकी एकता और आत्मा की अमरता में विश्वास करात है।9
3. सार्वभौमिकता: वेदांत के विचार शाश्वत हैं, जो अन्य व्यक्तियों अथवा अवतारों के सहारे के बिना स्वयं अपनी नींव पर खड़े हैं। … केवल वेदांत को ही सार्वभौमिक धर्म माना जा सकता है; क्योंकि यह सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है, व्यक्तियों का नहीं। किसी व्यक्ति पर आधरित धर्म को विश्व की सभी जातियाँ अपना आदर्श नहीं मान सकती।10
4. एकता: वेदांत की प्रमाणिकता मानव के चिरंतन स्वभाव में है। इनकी नैतिकता मनुष्य की आध्यात्मिक एकता पर आधरित है।11
विवेकानंद के शब्दों में, ‘मूलतः मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद नहीं है, सभी समानरूपेण दिव्य हैं। यह ऐसा ही है, जैसे पीछे एक अनंत समुद्र है और उस अनंत समुद्र में हम एवं तुम लोग इतनी सारी लहरें हैं और हममें से हर एक उस अनंत को बाहर व्यक्त करने के निमित्त प्रयत्नशील हैं।’12
5. वैज्ञानिकता: विवेकानंद ने वेदांत को वैज्ञानिकता की कसौटी पर कसने का प्रयास किया। उन्होंने वेदांत को वैज्ञानिक रूपकांे के द्वारा समझाने की कोशिश की। वेदांत दर्शन की चर्चा करते हुए वे प्रायः विज्ञान के किसी न किसी क्षेत्रा, यथा-भौतिकी, खगोल, गणित, जीवविज्ञान आदि में चले जाते थे। वे तो यहाँ तक कहते थे कि धर्म भी एक विज्ञान है। जिस तरह प्राकृतिक विज्ञान भौतिक जगत के नियमों का अनुसंधन करता है, उसी प्रकार धर्म नैतिक एवं तत्वमीमांसीय जगत के सत्यों से संबद्ध है। धर्म मनुष्य के आंतरिक स्वभाव के भव्य नियमों की खोज करता है। विज्ञान एवं धर्म, दोनों ही एकता हेतु खेाजरत हैं और दोनों ही अपनी-अपनी दिशाओं में मनुष्य एवं मनुष्यता की मुक्ति हेतु प्रयास करते हैं। एक अर्थ में, समस्त ज्ञान ही धर्म है और एक अन्य अर्थ में समस्त ज्ञान ही विज्ञान है।13
6. उपयोगिता: सामान्यतः सिद्धांतों के बिल्कुल ठीक होने पर भी उसे कार्यरूप में परिणत करना मुश्किल होता है। ऐसे में प्रायः महान आदर्शवादी सिद्धांत भी महज वाक्जाल या बौद्धिक व्यायाम भर बनकर रह जाते हैं। लेकिन, वेदांत महज एक कोरा आदर्शवादी बौद्धिक सिद्धांत मात्रा नहीं, वरन एक जीवंत व्यावहारवादी कर्म-दर्शन है। यही वेदांत की सर्वप्रमुख विशेषता है और इसी के आधार पर यह एक धर्म (विश्वधर्म) के रूप में प्रतिष्ठित हो सकता है। विवेकानंद के शब्दों में, ”वेदांत यदि धर्म के स्थान पर आरूढ़ होना चाहता है, तो उसे संपूर्ण रूप से व्यावहारिक होना चाहिए।“
7. लोकधर्मिता: विवेकानंद ने वेदांत के लोकधर्मी आदर्शों एवं व्यावहारों को आगे बढ़ाने की कोशिश की। उन्होंने आम जनता को दुख-दारिद्रय से मुक्ति दिलाने हेतु निरंतर संघर्ष किया है और ‘पहले रोटी फिर धर्म’ की वकालत की। उनके अनुसार, ”…जो जाति रोटी को तड़प रही है, उसके हाथ में दर्शन एवं धर्म ग्रंथ परोसना उसका मजाक उड़ाना है।“15
उन्होंने व्यक्तिगत मुक्ति की बजाय सर्वमुक्ति की वकालत की और ईश्वर को भी लोकधर्मी स्वरूप में ही स्वीकारने पर जोर दिया। इस क्रम में उन्होंने तो यहाँ तक कहा, ‘मैं ऐसे ईश्वर में विश्वास नहीं करता, जो स्वर्ग में तो मुझे अनंत आनंद देगा, पर इस जगत में मुझे रोटी भी नहीं दे सकता।“62
निष्कर्ष: विवेकानंद कहते हैं कि जगत के दोनों पक्ष हैं- माया और यथार्थ, वासना और विवेक। हमें माया के बीच से रास्ता निकालकर माया के परे तक पहुँचना है। संसार माया है। यह कहकर कर्म और संघर्ष छोड़ देने से काम नहीं चलेगा।
इस तरह विवेकानंद ने नववेदांत के माध्यम से बताया कि अद्वैत वेदांत एक शुष्क तत्वमीमांसीय सिद्धांत नहीं, वरन् एक सरलतम जीवन दर्शन है। इसको सामान्य व्यक्ति भी अपना सकते हैं। उनका विश्वास था कि नववेदांत विश्व का कल्याण करेगा और भारत को पुनः विश्वगुरू की प्रतिष्ठा दिलाएगा।
संदर्भ
1. विवेकानंद, स्वामी; वेदांत, रामकृष्ण मइ, नागपुर (महाराष्ट्र) 1965, पृ. 12.
2. नरवणे, विश्वनाथ; आधुनिक भारतीय चिंतन, अनुवादकः नेमिचंद्र जैन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण: 1968, पूर्वोक्त, पृ. 103.
3. रोलाँ, रोम्या; विवेकानंद, लोक भारती, प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 219 (उद्धृत).
4. विवेकानंद, स्वामी; हार्वर्ड श्विविद्यालय में भाषण, 25 मार्च 1896.
5. नरवणे, विश्वनाथ; आधुनिक भारतीय चिंतन, पूर्वोक्त, पृ. 97.
6. विवेकानंद, स्वामी; सेलेक्टेड वक्र्स, पृ. 249.
7. नरवणे, विश्वनाथ; आधुनिक भारतीय चिंतन, पूवोक्त, पृ. 103.
8. विवेकानंद, स्वामी; कम्पलीट वक्र्स, खंड-1, पृ. 372.
9. विवेकानंद, स्वामी; लेक्चर्स प्रो. कोलम्बो टु अल्मोड़ा, पृ.9.
10. वही, पृ.167.
11. वही.
12. विवेकानंद, स्वामी; वेदांत, पूर्वेक्त, पृ. 49.
13. नरवणे, विश्वनाथ; आधुनिक भारतीय चिंतन, पूर्वोक्त, पृ. 107.
14. विवेकानंद, स्वामी; ‘व्यावहारिक जीवन में वेदांत’, विवेकानंद साहित्य, खंड-8, अद्वैत आश्रम, कोलकाता (पश्चिम बंगाल), पृ. 3.
15. दिनकर, रामधरी सिंह; संस्कृति के चार अध्याय, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश), 2010, पृ. 429.
16. नरवणे, विश्वनाथ; आधुनिक भारतीय चिंतन, पूर्वोक्त, पृ. 106.