महामारी/ प्रेम प्रभाकर

महामारी
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प्रेम प्रभाकर

‘दुहाई! कोरोना माय की।’
‘रच्छा करो, कोरोना माय! भूल-चूक, लेनी-देनी, …तुरुटी को छिमा करो! आपका जो भी कौल-करार है, सब पूरा करेंगे, देवि!…हां, माता हुकूम करो!’
कलेसरा बहू कल रात ही जैसे-तैसे बाल-बच्चों के साथ गांव पहुंची है। दिल्ली से मुसहरी गांव पहुंचने में पूरे परिवार को हफ्ते भर से ज्यादा दिन लग गए। मगर, यह क्या संझा-बाती का वक्त है और मुसहरी के सीमाने पर ही गांव के लड़के लाठी-पैना लेकर कलेसरा परिवार का रास्ता टेक रहा है। ऐं ! साथ में मंगरूवा भी है! उन लड़कों की वह अगुवाई भी कर रहा है! उनमें से एक ल‌ड़का ललकार कर कहता है– ”आपलोग गांव नहीं घुस सकते! चौदह दिनों तक गांव के बाहर ही रहिए! मोदी का साफ-साफ हुकूम है कि यदि परदेश से आया कोई आदमी जबरदस्ती गांव घुसने की कोशिश करे तो उसे गोली मार दो!”
वे दोनों, यानी कलेसरा और उसकी बहू, थकथका कर खजूर गाछ के नीचे बैठ गए। मगर, बच्चों का क्या वे चिल्ल-पों करने से बाज नहीं आ रहे थे। कलेसरा सोचने लगा, ‘पोसा हुआ कुत्ता भी काटता है! मंगरूवा के हाथ में जब कोई रोजी-रोजगार नहीं था तो मैंने ही उसे अपने साथ दिल्ली ले आया, उसकी रोजी-रोटी का इंतजाम किया, आज वही मंगरूवा हमारे परिवार को गांव नहीं घुसने दे रहा!’
यूं मंगरूवा भी बेपीर न था। उसने कलेसरा को समझाया। ”भैया आपके और भौजी के उपकार को मैं भुला नहीं सकता। मगर क्या करूं ? अभी महामारी है इसलिए हमारी लाचारी भी समझिए। आपको बगल के ही इस्कूल ही में ठहराऊंगा। भी ही…हित-परेम आपसे न है भैया, बाकी करोना तो यह सब नहीं न देखेगा!” यूं कोरोना शब्द के उच्चारण के साथ उसने गाली का तकिया कलाम भी लगाया था, पर वह आपको सुनाना ठीक नहीं रहेगा।
फिर मंगरूवा समझावन के अंदाज में बोला–”यह तो छुतहर रोग है न,भैया! आपको खाने और सोने-बिछाने में कोई दिक्कत नहीं होगी, मैं और ‘छोटकी’ आपकी सेवा में एक पांव पर खड़े मिलेंगे।” यह सुनकर कलेसर और उसकी बहू का सारा गुस्सा धीरे-धीरे काफूर होने लगा।
शुरु में बच्चों और उनके माता-पिता को स्कूल से थोड़ी दूर पर ही रखा गया। खाने-पीने, सोने- बिछाने, लोटा-पानी का सारा इंतजाम पहले से कर रखा गया था। गांव में दसगर्दा टब, तिरपाल, जाजिम, मसनद आदि का सही इस्तेमाल पहली बार हो रहा था। टब में पानी भर दिया गया था। नाश्ते के लिए चूड़ा- मूढ़ी थाल में परोस दिया गया और बच्चों,और दोनों प्राणियों के लिए अलग-अलग सोने-खाने का इंतजाम कर दिया गया। तब सबको अपने-अपने कमरे में जाने कहा गया था। रात का भोजन भी एकाध घंटे में आ गया था।
परिवार में एक को छोड़कर बाकी सभी सदस्यों की रात मोटा-मोटी ठीक ही गुजरी। मगर, कलेसरा बहू का तन-मन रात भर ऊख- बिख करता रहा। जैसे-तैसे सुबह हुई। उसे देह में काफ़ी दर्द और बेचैनी महसूस होने लगी थी।

दस साल पहले की मुसहरी और आज की मुसहरी में कितना फर्क आ गया है! वह भी जमाना था जब टोले में टपोसी मारती कुछ झोपड़ियां और कच्चे मकान हुआ करते थे। अब ढूंढ़ने पर कहीं कच्चा मकान नहीं मिलता है। तब टोले की बहू-बेटी बड़घरी टोले की भौजाई हुआ करती थी। अब किसकी मजाल कि इस टोले की लड़की-औरत पर बुरी नजर से देखने की जुर्रत करे। लेकिन दस साल कबल का नजारा ही अलग था। छोटहन घरों के बहू-बेटी का जीना मुहाल हो जाता था। उन्हीं दिनों की बात है जब कलेसरा बहू नयी-नयी शादी कर गांव आयी थी। चिबोली बोलने वाले लोग उसकी बहू को लक्ष्य कर कहते कि कलेसरा का भाग माने कि अंधे के हाथ बटेर लगना। सचमुच पूरे मुसहरी में उस जैसी कोई दूसरी खूबसूरत औरत नहीं थी। लंबा कद, गोरा और भरा बदन, लम्बोतरे चेहरे पर बरछी की तरह सुडौल नाक, आलू के फांक-सी बड़ी-बड़ी आंखें, लंबे घने केश और चाल में एक विनम्रता किन्तु स्वाभिमान का पुट! अपने टोले सहित पास-पड़ोस के टोलों के शोहदे कलेसरा बहू को लेकर अपनी-अपनी खिचड़ी पकाते रहते थे। हालांकि गांव की भली औरतों की राय इस मामले में एकदम अलग थी। उन्हें लगता कि कलेसरा बहू बड़घरी की बहूजी जैसे लगती है तो कुछ का मानना था कि ‘बड़घरी’ से भी सुन्दर है कलेसरा बहू! मगर रूप रंग, स्वभाव चाहे जितना अच्छा हो, यदि वह गरीब परिवार और छोटी जाति का हो, तो उसका जीवन संकटपूर्ण बनाने के लिए दबंग लोग सदा तत्पर रहते हैैं। बड़घरी के कितने लंपट लार टपकाते फिरते थे।
जब बड़घरी के दबंग सरपंच कामेश्वर सिंह के मुंह से यह बोल निकल गया कि ‘केस हो या मुकदमा यदि कलेसरा बहू को अपनी सेज पर न चढ़ाया तो मेरी मर्दानगी बेकार है’। तो उसके इस दुस्संकल्प से मुसहरी के समझू बूढ़ा बेचैन हो उठे थे। उन्होंने गांव के हालात को गहराई से ताड़ लिया था। उन्होंने घर जाकर वृद्धा पेंशन से बचाए रुपए की तस्दीक की। उन्होंने कलेसरा को घर पर बुलाकर समझाया, “तुम दोनों दिल्ली भाग जाओ, बेटा कलेसर! अब और अनर्थ देखा नहीं जाता।… जब अनहोनी होने की पूरी गुंजाइश हो और उससे मुक़ाबला करने की ताकत नहीं हो तो उससे बच निकलने में ही भलाई है।… बड़घरी में खट-खटकर तुम्हारे मां-बाप खफ गए! गिन-चुनकर दो भाई-बहन बचे थे। उसमें भी बेटी सुगिया को बड़घरी की धरती खा गयी कि आसमान निगल गया, भगवान जाने!”
कलेसर की एक बहन ही तो बची थी सुगिया। काम-धाम में होशियार! पांच साल पहले की बात है। माय के श्राद्ध का अभी कर्ज उतरा भी नहीं था कि अचानक एक दिन बाबू ट्रैक्टर के धक्के से जख्मी क्या हुए कि पन्द्रह दिन बीतते-न- बीतते सदा के लिए उन्होंने आंखें बंद कर लीं। उनके किरिया- करम में बड़घरी के मनोहर बाबू का कुछ कर्जा चढ़ गया था। इसी वजह से बारह बरस की जवान सुगिया को मनोहर बाबू के घर पर काम करने जाने देने की मजबूरी बन गई, क्योंकि उन्होंने यही शर्त रख दी थी। कोई दो साल बाद उन्हीं के यहां काम करती हुई वह अचानक एक दिन गायब हो गई तो फिर कभी नहीं मिली। थाना-पुलिस सब हुआ, मगर गरीबों की कहां सुनवाई होती है, भला! सारी कार्रवाई का नतीजा ढाक के तीन पात ही निकला।
समझू बूढ़ा कलेसरा को दीन-दुनिया समझा रहे थे। “हम गरीबन का कोई राखनहार नहीं है बेटा! तीन साल तो गुजर गए, सुगिया का कुछ अता-पता चला? तुम्हें अपनी इज्जत बचानी है, तो दिल्ली भाग जा! यहां गांव में हम गरीब मजदूरों को लिए कौन अशर्फी झड़ रहा है।… लौटना है तो ताकत बनाकर लौट।”
कलेसरा गांव की हक़ीक़त नहीं समझता हो सो बात तो थी नहीं । हाथ में एक पैसा नहीं, आखिर कैसे परदेश की राह धरे! वहीं जब समझू बूढ़ा ने एक हजार का कड़कड़िया नोट उसके हाथ में थमा दिया तो उसके दिमाग की बत्ती जल उठी। उसे याद आया, उसके दोनों साले तो दिल्ली में ही हैं। वे बार-बार कहते भी हैं कि गांव में कौन-सा कोशल गड़ा है जिसे जोगने के लिए आप वहां पड़ हुए हैं? यहां दोनों प्राणी आ जाइए! यहां काम की कोई कमी नहीं है।
…और एक दिन ससुराल जाने के बहाने गांव से दोनों प्राणी निकले तो दिल्ली पहुंचकर ही दम लिया। सही में सालों ने उसकी काफी मदद की और वह रोजी-रोजगार में लग गया। वहीं उसे एक बेटी और एक बेटा हुआ। बेटी तो दिल्ली की सरकारी स्कूल में पांचवीं क्लास में पढ़ रही है, बेटे की दाखिले की बात सोच रहा था कि कोरोना का महाकाल आ गया। जिस फैक्ट्री में काम कर उसने गांव में कच्चा-पक्का मकान बनाया और कट्ठा-दो-कट्ठे कर एक बीघा जमीन बना ली थी। आज वही स्रोत सूख गया। अचानक आए कोरोना में फैक्ट्री बंद हो गयी। फैक्ट्री मालिक महीने भर तो थोड़ा-बहुत दरमाहा देता रहा। मगर जैसे ही लाॅकडाउन की मियाद बढ़ने लगी मालिक ने पल्ला झाड़ लिया। क्या करें, कहां जाए?
हित-प्रेमी भी कितने दिन साथ देते। निदान घर आने में एक ही फायदा यह दिखा। मगर कैसे? ट्रेन तो चलती नहीं। ट्रक-बस-आॅटो-
पैदल चलने की ठान ली पूरे परिवार ने। मरना ही है तो परदेश में क्यों जन्मभूमि में क्यों नहीं?

तो थक-हार कर कलेसरा पूरे परिवार पहुंच गया था गांव। रात स्कूल में क्या बितायी। कलेसरा बहू को सुबह होते न होते तेज़ बुखार चढ़ गया। वह अनाप-शनाप बड़बड़ाने लगी। टोले भर के लोग जुट गए।ढोल-झाल, फुलदरिया,सब पहुंच गए। सोशलडिस्टेंसी गयी बूट लादने!

टोले भर में हल्ला मच गया कि कलेसरा बहू की देह पर कोरोना माय असवार हो गयी हैं। बड़ी-बड़ी आंखें सूजकर उड़हुल का फूल हो गयी हैं।देह ऐंठ रही है। मुंह से जो-सो निकल रहा है। फुलदरिया उसके मुंह से निकले अस्पष्ट शब्दों का मनमाना भाष्य कर रहा है। गायन मंडली गा रही है—
पीपर तर ठाड़ी कोरोना मैया
लांबी-लांबी हे केश…
फुलदरिया लुत्तो भर पांजा कलेसरा बहू को जकड़े हुआ है। देवी गायन करनेवाले टेक पकड़ते हैं—
सिंह पर असवार मैया
रत-रत करय रे तरवार…
कोई जयकारा लगाता है–कोरोना मैया की जै!
सभी एक साथ तीन बार बोलते हैं—
जै! जै!! जै!!!
कलेसरा का कक्का लाखन महंथ और उसकी काकी से नहीं रहा गया। वे भी चले। दूर से ही सब नजारा देख मुंहफट लाखन महंथ बोल उठा–“भग्गल कर रही है कलेसरा बहू! स्साला! फुलदरिया बना है, लुत्तो बूढ़ा! …बुढ़ा गया, मगर औरत के दरस-परस का कोई मौका नहीं छोड़ता। देखो! कैसै भर पांजा पकड़ा है कलेसरा बहू को! …छि:!कलेसरा! तू मर्द नहीं मौगा है, मौगा!…और उसकी जोरू पक्की छिनार!” यह कहकर उसने गोंजा भर थूक ज़मीन पर फेंक दी।
“काहे ऐसा कुबोल बोलते हो, महंथ? तुम ससुर लगोगे उसका?” लाखन की पत्नी सिटपिटाती हुई बोली।
“चोप्प! सूझ नहीं रहा…कलेसरा बहू पूरे गोतिया की नाक कटाने पर तुली है।…कोरोना बीमारी है कि देबी? जब बड़-बड़ घोड़ी भांसल जाय नटघोड़ी पूछे केतना पानी?”
लाखन की पत्नी तैश में आ गई। बोली–“तुम जदि चार अच्छर पढ़े होते तो बड़घरी के बाबुओं का कान काटते! …लोकाचार भी कोई चीज़ होता है! इस दुनिया में सब कुछ होता है–देव भी और देवी भी, भगवान भी और शैतान भी! सब तुम्हारी तरह कबीराहा नहीं न हो जाएगा?”
दांत पीसते हुए महंत दहाड़ा–“तो तुम क्या सोच रही हो कि भाई के यहां से साड़ी-बिलाउज, लहठी- चूड़ी, सिन्दुर मंगवाकर तुम भी राक्षसी कोरोना देवी की पीपल गाछ के नीचे पूजा करोगी?”
तमस कर उसकी पत्नी बोली–इसमें हर्ज क्या है? …शास्तर पुराण झूठा थोड़े है? सारी दुनिया के लोग तो देवी-देवताओं की पूजा करते ही हैं। साक्षात् देवी को तुम झूठा बताते हो? तुम्हें जो मानना है मानो, मैं तो अपने आल-औलाद के लिए मैया को मनाऊंगी ही। छिमा देवी मैया! मेरे मालिक का माथा उल्टा है, इसे माफ कर दो माता!”
वह अरदास करने लगती है। महंत गुस्से से लाल-पीला होने लगता है।

अभी यह सब लीला चल ही रही थी कि सायरन बजाती एंबुलेंस, उसके पीछे पुलिस की गाड़ी और दो खाली बसें हड़हड़ाकर वहां पहुंच गयीं। गोल बिखरने लगा। कलेसरा बहू को एम्बुलेंस में बैठाया गया और कोई सौ औरत-मर्द को ठूंस-ठूंस कर बसों पर चढ़ाया गया। सभी गाड़ियां अस्पताल की ओर चल पड़ीं।
बाद में पता चला कि बड़घरी टोले वालों ने थाने में खबर कर दी थी।

तीन दिनों बाद गांव में खबर आई कि
अस्पताल ले गए लोगों में से 40 कोरोना पाज़िटिव निकला है। किन्तु सबसे बुरी हालत में कलेसरा बहू है।…अब तो दो हफ्ते बीत गये। बड़घरी टोले में घुनसून है कि सब तो ठीक होकर घर लौट गए मगर कलेसरा बहू को नहीं बचाया जा सका।
कलेसर अपने दो बच्चों के साथ पछाड़ खा-खाकर रो रहा है जबकि बड़घरी के पूर्व सरपंच कामेश्वर सिंह,
जो अब अधेड़ हो चुका है, उसे इस बात का मलाल हो रहा है कि हाथ में आई मछली पानी में डूबे गया!
पता नहीं, आज गांव में क्या हो गया? न कोई लाश, न कोई भोज-भात फिर भी कौए और चीलें बेतरह आकाश में मंड़रा रही हैैं। कामेश्वर सिंह अभी घर से निकला ही था कि उसके माथे पर चील ने बीट कर दी। वह दौड़कर वापस घर घुस गया।

(थोड़े संकोच के साथ आप मित्रों के सामने एक कच्ची कहानी आलोचना के लिए
पोस्ट कर रहा हूंं.)

संपर्क:
प्रेम प्रभाकर
पी-7, विश्वविद्यालय आवासीय परिसर
लालबाग-सराय
भागलपुर-812002
मो.9572933136
ईमेल: [email protected]