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हे प्रेमचंद हमारे प्रेमचंद !  (३१ जुलाई को उनकी जयंती पर)  -डॉ. हितेन्द्र पटेल 

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हे प्रेमचंद हमारे प्रेमचंद !

(३१ जुलाई को उनकी जयंती पर)

-डॉ. हितेन्द्र पटेल

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प्रेमचंद के युग और आज के युग की चुनौतियों में बुनियादी अंतर नहीं है। थोड़ा अटपटा लगेगा लेकिन तत्वतः हम आज भी बहुत अलग समाज में नहीं रह रहे हैं। अंतर बाहरी है।

अपने समय के जिन सवालों से वे जिस तरह संवाद करते हैं उसमें एक जेन्युइनेस है। इस कारण वे इस समय की भी बात करते हैं। समाज में आज भी बुनियादी प्रश्नों : किसान क्या करे कि वह संतोष से जी सके, मध्य वर्ग कैसे अपने दुचित्तेपन से ऊपर उठ सके, शिक्षा कैसे सामाजिक दायित्व का पालन कर सके, धनाढ्य लोग कैसे शांति से रह सके, स्त्री पुरुष अपने अपने आकाश को लेकर कैसे सुख से रह सके ? यही सारे प्रश्न उस समय भी थे और आज भी हैं। छुआछूत, साम्प्रदायिकता आदि के रूप बदले हैं इसका अस्तित्व बना हुआ है।

 

इन सभी प्रश्नों पर प्रेमचंद ने साहित्य संस्कृति के अनुरूप संवाद किया है, लोगों को सोचने के लिए प्रेरित किया है। वे साहित्य में सु को प्रतिष्ठित करने की कोशिश अनवरत करते रहे। प्रेमचंद का संग अपने भीतर की अच्छाई को समझने में सहायक हो सकता है। इसलिए उनपर चर्चा में विचार और अनुभूति दोनों स्तरों पर चल जा सकता है और अपने को बेहतर बनाया जा सकता है। आदर्श और यथार्थ के बीच सु प्रवृत्ति हेतु रचाव प्रेमचंद में शुरु से आखिर तक रहा। दुर्भाग्य से उनकी रचना के भीतर की इस प्रवृत्ति पर हम यथेष्ठ ध्यान नहीं दे सके और मनोनुकूल विचार तत्त्व को लेकर उनकी यथार्थवादी प्रवृत्तियों को ही उनके विकास के रूप में देखकर उनके साहित्य का सम्यक मूल्यांकन नहीं कर सके। उसके लिए आज भी प्रयास करना संभव है। किसान को केंद्र में रखने की उनकी कोशिश को हमने ठीक से समझा नहीं। होरी के बेटे के शहर जाने को हमने संकेतक माना और इसको बहुत महत्त्व दे दिया।

प्रेमचंद का हृदय सूरदास से लेकर होरी के साथ ही है। मस्तिष्क उनका तीस के दशक के उथल पुथल वाले समय में खास तरीके से वाम रुझान लेता दिखलाई पड़ता है। वह उनका मूल भाव नहीं है। सोजे वतन का राष्ट्रीय भाव, सूरदास का संतोषी भारतीय किसान मन, मंत्र का वह प्रश्नकर्ता, निर्मला की वेदना और अमरकांत का स्वप्न अगर ध्यान में रखें तो प्रेमचंद सिर्फ महाजनी सभ्यता के ही लेखक नहीं हैं वे एक विराट मानवीय चेतना संपन्न लेखक हैं जिसमें करुणा तत्त्व भी बहुत प्रबल है। वे एक भारतीय लेखक हैं जिनको सिपाही और मजदूर के रूप में देखना अपर्याप्त है। वे 1857 के उस लेखक जैसे सिपाही थे जिसके हृदय में किसान मन है, उसने बस सिपाही की वर्दी पहन रखी है। भीतर से वह किसान ही है। सारी उम्र मजदूरी करने वाला मजदूर कभी भी वर्किंग क्लास का सदस्य न बन सका ऐसा मजदूर भी हमने देखा है। वह मजदूरी करता है ताकि अपनी जमीन छुड़ा सके और सपरिवार संतोष से जी सके। वे ऐसे ही मजदूर थे। किसान मन को प्रेमचंद का लेखक मन छोड़ नहीं सका। किसान की मृत्यु की थीसिस प्रेमचंद के साथ नहीं जाती। इसलिए आज भी उनका साहित्य फिर से पढ़ते हुए हम नया सोच सकते हैं। उनके समीक्षकों ने उनके साहित्य की अधूरी व्याख्या की है।

प्रेमचंद को पढ़ना ज्यादा जरूरी है। उनके ऊपर लिखा हुआ भी पढ़ें लेकिन उससे अधिक हमें मिलता है उनके साहित्य को पढ़ते हुए।

 

प्रेमचंद का साहित्य उनपर लिखे हुए से बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है। हम प्रेमचंद के पास सीधे जाएंगे तो हमें और अधीन मिल सकता है ऐसा मेरा अनुमान है।

श्यामसुंदर घोष की एक बात का स्मरण होता है। वे गोड्डा कॉलेज में पढ़ाते थे। उन्होंने प्रेमचंद पर किताबें लिखी हैं। उन्होंने कहा था कि जैसे शेक्सपीयर का साहित्य उनके देश के शिक्षित लोगों के लिए जरूरी पाठ है जिससे सबका परिचय होना चाहिए वैसे ही प्रेमचंद के साहित्य से सबका परिचय होना चाहिए, भले ही वो साहित्य का विद्यार्थी न हो। उसको बढ़ाते हुए हम कह सकते हैं कि जैसे बंगाल में रवींद्रनाथ ठाकुर के साहित्य से परिचय वैज्ञानिक या दार्शनिक से भी अपेक्षित है वैसे ही हिंदी प्रदेश के किसी भी शिक्षित को प्रेमचंद साहित्य से परिचित होना चाहिए।

मैं तो मानता हूं कि हिंदी प्रदेश के किसी भी इतिहास के छात्र के लिए प्रेमचंद इतिहासकार से भी ज्यादा उपयोगी हो सकते हैं। स्वदेशी युग से भारतीय लेखक की स्वतंत्रता के समय ( तीस के दशक के उत्तरार्ध ) के ऐतिहासिक यथार्थ से परिचय के लिए हिंदी प्रदेश के लिए प्रेमचंद इतिहासकार से भी अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकते हैं।

 

उनकी पुस्तकों को घर में रखें और अपने बच्चों को भी पढ़ने के लिए प्रेरित करें।

प्रेमचंद हमारे लिए राष्ट्रीय धरोहर हैं। इसमें यह जोड़ दूं कि प्रेमचंद के स्मरण का एक अर्थ यह भी होना चाहिए कि हम प्रेमचंद युगीन अन्य साहित्यिकों को भी उनके साथ रखें यदि हम उनकी विरासत को अपने साथ रखना चाहते हैं। प्रेमचंद भी ऐसे ही सोचते थे।

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