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सुप्रीम कोर्ट का नया फैसला।‌ प्रेमकुमार मणि 

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सुप्रीम कोर्ट का नया फैसला

 

प्रेमकुमार मणि

 

कल यानि 1अगस्त ’24 को आये सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों में शामिल समूहों का आतंरिक वर्गीकरण राज्य सरकारें कर सकती हैं, महत्वपूर्ण है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए. सन 2000 में ही जब बिहार परिवर्तन मोर्चा का कुछ साथियों के साथ मिल कर हम ने गठन किया था तब इस बिंदु पर हमारा ध्यान गया था. पिछड़े, दलित और मुसलमानों के बीच इस वर्गीय विभाजन की जरूरत थी. पिछड़े वर्गों का एक तबका, जिसे उच्च शूद्र कहा जा सकता है, पेशा से कृषक था. ज़मींदारी उन्मूलन और अन्य भूमि सुधारों, साथ ही लोकतान्त्रिक राजनीति में इन के बढ़ते प्रभाव ने, न केवल इनका संतोषजनक नगरीकरण किया था, बल्कि सरकारी-गैर सरकारी नौकरियों और अन्य आधुनिक पेशों से जुड़ कर समाज में इनकी सम्मानजनक स्थिति बन गई थी. कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़े वर्गों का एक विभाजन अति पिछड़े वर्ग में किया था और सरकारी नौकरियों में किये गए बीस फीसद आरक्षण में से उनके लिए बारह फीसद तय किया गया था. मुंगेरी लाल कमीशन द्वारा प्रस्तावित कुल छब्बीस फीसद आरक्षण में तीन-तीन फीसद क्रमशः महिलाओं और आर्थिक तौर से पिछड़े वर्गों केलिए था, जिसे आज EWS कहा जाता है. उत्तर भारतीय राजनीति में कोटा-पॉलिटिक्स का यह आरम्भ ही था.

पिछड़े वर्ग में तो आतंरिक विभाजन हो गया था (जो कि अखिल भारतीय स्तर के मंडल ढांचे में अभी नहीं हुआ है ) लेकिन अनुसूचित जातियों के संवर्ग में यह नहीं था. हम लोगों ने यह मांग उठाई कि वहां भी यह होना चाहिए. दलित समूह के बीच उनके अधिक पिछड़े हिस्से के लिए हम ने महादलित और अति दलित शब्द पर विचार किया और अंततः महादलित शब्द तय माना गया. मुसलमानों के बीच उसके पिछड़े हिस्से का एक वर्गीकरण पसमांदा नाम से अली अनवर कर चुके थे. इसे भी हम ने स्वीकार किया. इस तरह अति पिछड़े, महादलित और पसमांदा समूहों के सम्यक विकास को हमने राजनीतिक एजेंडा बनाया, क्योंकि बिहारी समाज के बुनियादी परिवार्तन केलिए यह जरूरी था.

 

2004 में जब कांग्रेस के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी तब नीतीश कुमार दिल्ली से आकर पटना में जमे. उन्होंने मोर्चा की गतिविधियों में गहराई से रुचि ली. इस के सभी कार्यक्रमों को अपने जनतादल यूनाइटेड का कार्यक्रम घोषित किया. यह उनसे गहरे जुड़ाव का एक कारण बना.

 

2005 के आखिर में वह बिहार के मुख्यमंत्री बने. उनके चुनाव में इस सामाजिक समीकरण ने केंद्रीय भूमिका निभाई थी. इसलिए सरकार में आने के बाद उन्होंने अत्यंत पिछड़े वर्ग केलिए एक आयोग और दलितों के अधिक पिछड़े हिस्सों केलिए महादलित मिशन गठित किया. अत्यंत पिछड़े वर्गों और महिलाओं केलिए भी पंचायती राज व्यवस्था में क्रमशः बीस और पचास फीसद स्थान आरक्षित किये. इन सब ने उन्हें सामाजिक परिवर्तन का नायक बना दिया. इस के पुराने नायक लालू प्रसाद 2009 और 2010 के चुनावों में लगभग हाशिये पर धकेल दिए गए. यह अलग बात है कि नीतीश कुमार ने ही इस के बाद एक प्रतिक्रांतिकारी रुख लिया और सवर्ण आयोग का गठन कर बैठे. तब से ही उनके राजनीतिक पतन का भी दौर शुरू हुआ. 2010 वाली मजबूत स्थिति में फिर वह कभी नहीं आ सके. तब उनकी पार्टी बिहार की सबसे बड़ी पार्टी तो थी ही,दूसरे नंबर की पार्टी भाजपा को भी पीछे रहने केलिए मजबूर किये हुए थी. बिहार विधान सभा में महाबली लालू प्रसाद सिमट कर बाईस पर आ गए थे और रामविलास पासवान केवल तीन पर. यह राजनीतिक ताकत इसी विखण्डन से निकली थी.

 

लेकिन यह विषयांतर हो रहा है. हमें अनुसूचित जातियों जनजातियों के वर्गीकरण पर विचार करना था. मैं केवल बिहार का उदाहरण रख रहा हूँ. उस में भी केवल अनुसूचित संवर्ग का. जनजातिसमूह बिहार विभाजन के बाद हमारे यहां नगण्य ( सिर्फ एक फीसद ) रह गया था. 2005 में अनुसूचित जातियों का जो आंकड़ा उपलब्ध था उसके अनुसार इस संवर्ग में कुल तेईस जातियां हैँ, जो कुल जनसंख्या की 16.5 फीसद थीं. इन में दुसाध और चमार आबादी में लगभग बराबर थे और दलितों की कुल आबादी के 62 फीसद से कुछ अधिक थे. सामाजिक तौर पर दो जातियां अधिक विकसित थीं – धोबी और पासी. पढाई- लिखाई और सरकारी नौकरियों में इनकी संख्या अन्य दलितों से बेहतर थीं. इसका कारण यह था कि इन के पेशों में नगदी आती थीं. धोबी कपड़ा की धुलाई के धंधे से जुड़े थे और पासी लोग ताड़ के उत्पाद और कुछ जलखेती ( खास कर सिंघाड़ा और मखाना ) कर के नगदी हासिल करते थे. इस कारण इनका नगरीकरण भी बेहतर हुआ और शिक्षा भी. इन दोनों की आबादी दलितों की कुल जनसंख्या के लगभग दस फीसद थीं. अब शेष लगभग 28 फीसद, दलित जिस में सबसे बड़ी आबादी 16 फीसद मुसहरों की थी, जीवन के सभी क्षेत्रों में बहुत पिछड़े थे. गाँव में कहा जाता था कि क्या आप ने किसी श्वेत बाल वाले मुसहर को देखा है? जवाब आता नहीं. सचमुच उजले बाल वाले मुसहर शायद ही मिलते थे. लेकिन दुखद पक्ष यह कि इसका कारण उनका बेहतर स्वास्थ्य नहीं था. दरअसल कम प्रोटीन वाले भोजन करते-करते उनका स्वास्थ्य इतना ख़राब हो जाता था कि कम उम्र में ही वे मर जाते थे.

 

नीतीश सरकार ने महादलित विभाजन में ईमानदार रुख नहीं अपनाया. धोबी और पासी जाति को इस में शामिल कर लिया गया ताकि राजनीतिक लाभ हासिल किया जा सके. दुसाधों पर राम विलास जी और चमारों पर बसप का प्रभाव था. दलितो के उतने ही वोट का समर्थन नीतीश हासिल कर लेना चाहते थे. वह सफल भी हुए. इसी तरह अत्यंत पिछड़े वर्ग के आन्तरिक विभाजन में भी हुआ. ये ऐसे उदाहरण हैं जिन से भविष्य में इस वर्गीकरण के राजनीतिक लाभ उठाये जाने के प्रसंग आएंगे. उसके बाद यह अनुभव होगा कि यह फैसला वर्चस्वशाली तबकों को बंदरबांट का अधिकार दे देगा. यह आशंका निश्चित ही बनी रहेगी.

 

लेकिन एक नीति के तौर पर इस फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए. सामाजिक न्याय और आरक्षण ऐसा मुद्दा है जिस का लगातार परिमार्जन नहीं हुआ तो यह एक नया जातिवाद गढ़ देगा. बहुत कुछ हो चुका है. मैं हमेशा कहता रहा हूँ कि बीमार आदमी को अस्पताल जरूर भेजो, लेकिन वहीँ छोड़ मत दो. आरक्षण और विशेषाधिकार देते समय इसकी अवधि भी तय की जानी चाहिए. संविधान में अवधि का प्रावधान है. लेकिन राजनीतिक लाभ केलिए इसे बढ़ाया जाता रहा है. यह बात बिलकुल जायज है कि जब तक सामाजिक असमानता रहेगी तब तक विशेषाधिकार बनाये रखना होगा. लेकिन किसी लोकतान्त्रिक समाज की यह जिम्मेदारी होती है कि वह यथाशीघ्र सामान्य स्थिति बहाल करे. सामाजिक न्याय से जुड़े मामलों पर बहुत स्थिर चित्त से हमें विचार करना चाहिए. विखंडित समाज हमारा आदर्श नहीं होना है. वैविध्य हमारी हकीकत है और एकता हमारा आदर्श. हम इस में एक सुसंगत तालमेल बनाना चाहेंगे, जैसे बाग़ के विभिन्न प्रजाति और रंगों के फूलों – वनस्पतियों के बीच होता है.

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