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त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये… (अभादप के सहसचिव का दायित्व देने के लिए आभार)

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*त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये…*

(अभादप के सहसचिव का दायित्व देने के लिए आभार)

गत दिनों राँची विश्वविद्यालय, राँची (झारखंड) में संपन्न हुई अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के 69वें अधिवेशन की आमसभा में लिए गए निर्णय के आलोक में परिषद् की नई कार्यकारिणी का गठन किया गया है। इनमें मुझे भी सहसचिव के रूप में शामिल किया गया है। इसके लिए मैं नवगठित कार्यकारिणी के माननीय अध्यक्ष प्रो. अम्बिका दत्त शर्मा (सागर) एवं सम्माननीय सचिव प्रो. किस्मत कुमार सिंह (आरा) के प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। इसके साथ ही कार्यकारिणी में शामिल अन्य सम्मानित सदस्यों सहित सभी पार्षदों को भी बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ।

यहां मैं यह बताना चाहता हूँ कि मैं वर्ष 2007 में अपने गुरुवर प्रो. पूर्णेन्दु शेखर जी के माध्यम से परिषद कि आजीवन सदस्य बना। आगे वर्ष 2008 में पहली बार गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार में आयोजित परिषद के राष्ट्रीय अधिवेशन में शामिल हुआ। यह अधिवेशन कई मायनों में मेरे लिए अविस्मरणीय है।

इसकी कुछ बानगी है-
1. मैं भागलपुर से दिल्ली के रास्ते रेलगाड़ी से हरिद्वार जंक्शन पर उतरा। वहां स्टेशन के बाहर हमारे लिए बस लगी हुई थी। मैंने देखा कि एक दुबला-पतला लंबा व्यक्ति एक बड़ा-सा बंडल उठाकर बस में रख रहा है। कुछ ही देर बाद मुझे पता चला कि ये परिषद के सचिव प्रो. अम्बिका दत्त शर्मा साहेब हैं। मैं लपकते हुए प्रणाम करने के लिए उनके चरणों में झुका। उन्होंने मुझसे कहीं अधिक फूर्ति दिखाई और मुझे अपनी विशाल भुजाओं से लगभग जकड़ते हुए अपनी बाहों में भर लिया। उनकी लंबाई अधिक होने के कारण उनकी छाती से मेरा कान टकराया और मुझे एक संदेश सुनाई पड़ा, परिषद के लिए कार्य करो।’
2. मैंने धर्म-दर्शन विभाग में ‘नवबौद्ध धर्म : न पलायन, न प्रतिक्रिया, वरन् परिवर्तन की प्रक्रिया’ विषयक आलेख प्रस्तुत किया। इस आलेख को विभागाध्यक्ष गुरुवार प्रो. सरोज कुमार वर्मा जी की अनुशंसा पर प्रोफेसर विजयश्री स्मृति युवा पुरस्कार मिला। इससे मुझे काफी प्रोत्साहन मिला।
3. इस आलेख को तत्कालीन प्रधान संपादक प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल जी ने ‘दार्शनिक त्रैमासिक’ में स्थान देकर मुझे उत्साहित किया और तत्कालीन अध्यक्ष प्रो. एस. दुबे ने अपने अध्यक्षीय कॉलम में भी इसकी तारीफ करके मुझे अतिरिक्त आशीर्वाद दिया।
4. इसी अधिवेशन में मेरी मुलाकात विश्वविद्यालय प्रकाशन, सागर के भाई राजेश केसरवानी जी से हुई थी। उनके प्रोत्साहन से ही वर्ष 2009 में मेरी पहली पुस्तक ‘भूमंडलीकरण : नीति और नियति’ (संपादित) प्रकाशित हुई थी।
5. इसी अधिवेशन में मेरी मुलाकात रांची विश्वविद्यालय, रांची की प्रोफेसर राजकुमारी सिन्हा से हुई और मेरे किसी शुभ प्रारब्ध के कारण उन्होंने मुझे अपना ‘बेटा’ कहना शुरू कर दिया। अगले वर्ष यह अधिवेशन पुण्यभूमि जम्मू में हुआ और वहां भी संयोगवश मुझे कुछ मंदिरों में उनके साथ पूजा-अर्चना का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जहां उन्होंने देवी-देवताओं से मेरे अच्छे कैरियर के लिए मन्नतें मांगी। मेरी स्पष्ट मान्यता है कि मुझे आज तक जो कुछ भी मिला है, उसमें मेरी मेहनत का अंश थोड़ा-सा है, जबकि आशीर्वाद एवं मन्नतों का बहुत ज्यादा।

संक्षेप में, मैं वर्ष 2008 से 2025 तक लगातार परिषद के सभी अधिवेशनों में शामिल रहा हूँ। इस बीच कई लोगों का आशीर्वाद एवं स्नेह मिलता रहा हूँ और कई खट्टे-मीठे अनुभव हुए हैं। इन सबों के जिक्र करने का यहाँ अवकाश नहीं है। लेकिन मैं ‘दार्शनिक त्रैमासिक’ के निवर्तमान प्रधान संपादक गुरुवर प्रो. रमेशचंद्र सिन्हा साहेब तथा परिषद के निवर्तमान अध्यक्ष गुरुवर प्रो. जटाशंकर जी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना अपना पुनित कर्तव्य समझता हूँ। इन दोनों से मुझे हमेशा शिष्यवत मार्गदर्शन एवं पुत्रवत संरक्षण मिलता रहा है। इस आलेख के लिए यह महज एक औपचारिक सूचना-भर है कि दोनों के आशीर्वाद से मैं लगभग छः वर्षों (2019-2025) तक परिषद की शोध-पत्रिका ‘दार्शनिक त्रैमासिक’ के संपादक मंडल का सदस्य भी रहा हूँ।

अंत में, यूं कहें कि जब से परिषद से जुड़ा हूँ, इसी का होके रह गया हूँ और आज एकेडमिक जगत में जो कुछ भी प्राप्त कर सका हूँ, सब इसकी सेवा का ही फल है। मेरे लेखक-संपादक से लेकर असिस्टेंट प्रोफेसर बनने तक की सभी छोटी-बड़ी उपलब्धियों में परिषद का महत्वपूर्ण योगदान है और संप्रति सहसचिव का दायित्व भी उसी की एक कड़ी है। “त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये” (गोविन्द, आपका ही सब दिया हुआ है, जो आपको ही समर्पित कर रहे हैं।)

बहुत-बहुत आभार।

-सुधांशु शेखर, मधेपुरा

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