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Hindi। तारकेश्वर प्रसाद : एक अनकही कथा–3/ डॉ. तुषारकांत

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तारकेश्वर प्रसाद : एक अनकही कथा-3

“फॉरवर्ड” की शुरुआत हो चुकी थी।मशीनमैन,कटर ,प्रूफ बनानेवाले ,सभी स्थानीय थे।एक गार्ड था जो भोजपुरी धड़ल्ले से हिंदी की टोन में बोलता और एक बाबूजी।दो मंजिला छोटा सा घर था ।नीचे मशीन और सारे कार्य होते और ऊपर एक ही कमरा और दालान था।यहीं इंटरवियू हुआ था और वो संपादक का कमरा था जिसमें एक कोने में छोटा टेबुल और कुर्सी इन्हें दी गई थी।उम्र तो कम थी पर भारी और कसरती होने के कारण ये उम्र से ज्यादा के नजर आते थे।”चाँद” में 1935 में निकले लेख में इनकी तस्वीर भी थी जिसे आगे मैं पोस्ट करूँगा।ये भी संयोग से बड़े भाई के पास छिन्न-भिन्न मिला और जिसकी फोटो मेरे पास है।
सुभाष बाबू उन दिनों काफी सक्रिय थे और अंग्रेजी राज के गुप्तचर की नजर इस कार्यालय पर थी तो वे वहां कम आते और आने की कोई पूर्व सूचना या समय नही रहता था।तारकेश्वर बाबू को कहीं रहने की जगह तो थी नहीं।नीचे खाली कमरे ,जो 10/10 का होगा,उसीमे जमीन पर बिस्तर लगता और ये और दरबान दोनों सोते थे।खाना दरबान बनाता। उस समय कलकत्ता ही ऐसा महानगर था जो साहित्य का केंद्र था।वहीं से “मतवाला” साप्ताहिक पत्र निकलता था जिसके संपादक थे आचार्य शिवपूजन सहाय , श्री सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” और महादेव प्रसाद सेठ।इसमें बाबूजी की कहानी प्रकाशित होती थी और एक के 7 रुपये मिलते थे।”विशाल-भारत” बनारसी प्रसाद चतुर्वेदी निकाल रहे थे।उसमे भी इनके लेख निकले।”विश्वमित्र”में भी लिखते।इतना हो जा रहा था कि दो जून का भोजन मिल जाये।तो ,ये “फारवर्ड” की रचनाओं को देखते ,सजाते और अचानक सुभाष बाबू प्रकट होते और सारा देख कर जो मन लायक होता ,उसे छापने की इजाजत देते।
बाबूजी सुनाए कि एक रात वे सोये थे ।दरबान भी सोया था ,वो नशा का आदि था तो रात में बेहोशी की अवस्था मे रहता। अचानक किवाड़ में हल्की थाप पड़ी।ये हड़बड़ा कर उठे ,दरबान को हिलाया ,उसपर कोई असर न हुआ।तब ये धीरे से बोले ” कौन ?”
ताड़ा-ताड़ी खोल”–
इन्होंने खोल दिया।एक व्यक्ति काली पतलून और कोट में हैट पहने इन्हें ठेलता हुआ अंदर घुसा और अंग्रेजी में फुसफुसाता हुआ आदेश दिया कि फ़ौरन ऊपर से सब कागजात और प्रेस में तैयार अखबार लेकर दोनों यहां जाओ ,और एक पुर्जा दिया इनके हाथों में और जिस तेजी से आया था उसी तेजी से अंतर्ध्यान हो गया । वे स्वयं सुभाष बाबू थे ।इन्होंने जबरन दरबान को उठाया और आनन-फानन में ऊपर के कमरे को खोल जितने कागज थे ,बोरे में डाला ,नीचे प्रेस से भी बंडलों को बोरे में डाल खींचते हुए , अंधेरे में भागे।वजन अच्छा था पर दो बलिष्ठों ने किसी तरह ये कर लिया।बाद में वहां छापा पड़ा और कार्यालय बन्द हो गया।इन्हें उस कठिन परिस्थिति में भागलपुर की याद आई।पर पैसे तो थे नही।प्रेस से पूरी तनख्वाह तो कभी मिली नही । कुछ मिल जाता ,जिससे खाना तो हो ही जाता। निराला जी से और शिवपूजन जी से उसी क्रम में मुलाकात हुई।मतवाला में तीन रचनाओं का पारिश्रमिक बाकी था।पैसों की सख्त जरूरत थी।ये “मतवाला” के दफ्तर पहुंचे।शिवपूजन जी नही थे ।महादेव प्रसाद सेठ थे।इन्होंने उनसे दरख्वास्त की कि उनका बकाया पारिश्रमिक दे दिया जाय ,अत्यंत आवश्यकता है।पर,वे देने के मूड में थे नही।इसी वक्त अचानक एक आवश्यकता से अधिक लंबे और एक आवश्यकता से कम ऊंचाई वाले ,धोती-कुर्ता धारण किये व्यक्तियों ने प्रवेश किया।इनका परिचय पूछा।इन्होंने अपना परिचय दोनों के पैर छूते हुए दिया।एक निराला जी थे,एक शिवपूजन जी। निराला जी के जोर देने पर इन्हें उसी समय भुगतान हुआ । ये कलकत्ते से भागलपुर चल दिये। ये 1932 की बात थी और अवस्था 19 -20 की,धुन साहित्य -सेवा से आजीविका चलाने की।जिद्दी तो ऐसे,कि किसी की नहीं सुनते।मितभाषी थे। ज्यादा बोलते नहीं थे।
भागलपुर आते ही पहले तो डेढ़ वर्षों का हिसाब मांगा गया और बिना बोले भागने के लिए बहुत डांट पड़ी।सहने में माहिर थे।सह लिए ,लेकिन दिशा नही बदली।बाहर के कमरे में अलग रहने लगे।खूब लिखते और खूब छपते।भागलपुर के जिस माहौल को छोड़ गए ,वो फिर जुड़ने लगे।स्व माहेश्वरी सिंह ” महेश” , स्व सत्येन्द्र बाबू ,रामस्वरूप चतुर्वेदी ,पं सहदेव झा ,बुद्धि नाथ झा” कैरव”, स्व गौरी शंकर मिश्र “द्विजेन्द्र” ,पं जनार्दन प्रसाद झा “द्विज” आदि हमउम्र लोगों की मजलिस मास्टर साहब के नेतृत्व में कभी किसी के घर तो कभी किसी के घर लगने लगी।नही तो भगवान पुस्तकालय था ही। शहर उस समय आबाद था इन लोगों से।
प्रेमचंद तब साप्ताहिक रूप से “जागरण” निकाल रहे थे और मासिक “हंस”निकल ही रहा था।दोनों में इनके लेख और कहानियां निकलने लगी थीं। बाबूजी बोलते कि एक रचना के 5 रुपये मिलते थे।इसी तरह लिखते हुए 1933 गुजर गया।घर मे शादी के लिये दवाब होने लगा।तारकेश्वर बाबू की माँ ,यानी मेरी दादी का नैहर ठीक मेरे घर के सामने था या यों कहा जाय कि दादी को अपने भाइयों से ,जिनमे दो इनसे बड़े थे बाकी छोटे ,बहुत प्यार-लगाव था और यही वजह थी दादा को भागलपुर में पोस्टिंग के

बाद अपने ससुराल के सामने घर बनाना पड़ा।तो मां-पिता के अलावा बहुत लोग थे जिनका दवाब इन्हें मिलने लगा। और 1934 में ये शख्स बिना किसी को बोले ,फिर रफूचक्कर।इस बार ये सीधे बनारस पहुंच गए।
क्रमशः

डॉ. तुषारकांत, प्रधानाचार्य, मिल्लत कॉलेज, परसा, झारखंड

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