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जेपी क्रांति को नैतिक व शास्वत प्रक्रिया मानते थे – रघु ठाकुर

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जेपी क्रांति को नैतिक व शास्वत प्रक्रिया मानते थे – रघु ठाकुर
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.लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती पर याद किया गया

. लेखक शिवदयाल की पुस्तक ‘ जयप्रकाश : परिवर्तन की वैचारिकी ‘ का हुआ विमोचन
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भोपाल, 11 अक्टूबर। ‘ लोकनायक जयप्रकाश नारायण समाज को मानसिक रूप से बदलने में विश्वास रखते थे। वे क्रांति को नैतिक और शास्वत प्रक्रिया में देखना चाहते थे। यदि वे कुछ समय और जीवित रहते तो निश्चित ही उस सम्पूर्ण क्रान्ति के अगले चरण के लिए तत्पर होते जो डॉ राममनोहर लोहिया की ही सप्तक्रांति का दूसरा नाम था।‌ जेपी ने हम सबसे बातचीत में इसकी रूपरेखा बनाई थी, लेकिन उन्हें समय नहीं मिला।’

सुप्रसिद्ध समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर ने आज भोपाल के गांधी भवन में जयप्रकाश नारायण की जयंती पर हुए वैचारिक विमर्श ‘ सप्तक्रांति से सम्पूर्ण क्रान्ति ‘ में यह विचार रखे।
समता ट्रस्ट व गांधी भवन ने मिलकर यह आयोजन किया था जिसमें माधवराव सप्रे समाचारपत्र संग्रहालय के संस्थापक विजयदत्त श्रीधर विशेष रूप से उपस्थित थे।
‘ जयप्रकाश: परिवर्तन की वैचारिकी ‘ पुस्तक का इस कार्यक्रम में विमोचन हुआ व पटना से आये इस पुस्तक के लेखक शिवदयाल ने विस्तार से जेपी की विचार व जीवन यात्रा पर प्रकाश डाला।
आयोजन की अध्यक्षता गांधी भवन के सचिव दयाराम नामदेव ने की। कार्यक्रम का संचालन महेश सक्सेना ने व धन्यवाद ज्ञापन समता ट्रस्ट के अध्यक्ष मदन जैन ने किया। मंच पर शिवदयाल जी की जीवनसंगिनी आभा सिन्हा, श्रीमती नामदेव व डॉ शिवा श्रीवास्तव की भी उपस्थिति रही। डॉ शिवा श्रीवास्तव ने शिवदयाल जी का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया।
अतिथियों का स्वागत गांधी भवन के अंकित मिश्रा ने किया।

रघु ठाकुर ने आपातकाल, सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन व जेपी के दर्शन पर विस्तार से बोलते हुए कहा कि वे ऐसे समाज की कल्पना करते थे जिसमें घृणा और गैरबराबरी न हो। उनसे बड़ा मार्क्सवाद का जानकार शायद ही कोई रहा हो लेकिन वे इस नतीजे पर पहुंचे कि मार्क्सवाद में एक भी पंक्ति बेहतर इंसान बनाने के विषय में नहीं है।
लेखक शिवदयाल जी के विषय में रघुजी ने कहा उनके परिवार के तीन सदस्य आपातकाल में जेल में रहे। कार्यक्रम में मंच के पीछे लगे बैनर को ‘ ऐतिहासिक ‘ बताते हुए उन्होंने कहा इसमें गांधीजी, लोहिया, विनोबा और जेपी एक साथ हैं। जेपी की क्रांति को लोकचेतना व लोकसंगठन का संवाहक बताते हुए रघु ठाकुर ने कहा सरकारें बदलती रहती हैं लेकिन लोगों के मन के बड़े होने की प्रक्रिया निरंतर चलनी चाहिए।

जेपी से जुड़ा संस्मरण सुनाते हुए रघु जी ने कहा कि आपातकाल से ठीक पहले जबलपुर में उमड़ी नौजवानों की भीड़ से जेपी ने कहा था कि सागर में रघु ठाकुर पानी के सवाल पर आंदोलन कर रहे हैं, सबको वहां होना चाहिए।
रघु ठाकुर ने कहा जेपी ने कभी आर एस एस को को कोई प्रमाणपत्र नहीं दिया था। यह गलत प्रचार है कि उन्होंने कभी कहा कि आर एस एस फासिस्ट है तो वे भी फासिस्ट हैं।
यह भी विडम्बना है कि आपातकाल में जेपी के आग्रह के बावजूद उन्हें जेल में अकेले रखा गया, फिर बाद में एक कर्मचारी को भेज दिया। अंग्रेजों के शासन में भी लाहौर जेल में अनुरोध करने पर लोहिया जी को उनके साथ रखा गया था जिससे वे बातचीत कर सकें।
लेखक शिवदयाल ने पुस्तक ‘ जयप्रकाश परिवर्तन की वैचारिकी ‘ पर बोलते हुए कहा यह पुस्तक रघु ठाकुर जी को समर्पित की गई है जो भारतीय राजनीति में रचनात्मक विपक्ष के उसी तरह प्रतीक हैं। हमें उन नायकों को ईमानदारी से याद करना चाहिए जो सत्ताविरक्त थे, जिन्हें सत्ता से कोई मोह नहीं था।यह समय सबको साथ रखने का समय है। आज संसदीय लोकतंत्र उल्टी दिशा में चला गया है जहां नैतिकता के लिए जगह नहीं बची। लोकतंत्र नैतिक होगा तभी राजनीति लोकाभिमुख होगी।
शिवदयाल ने जेपी की वैचारिकी व जीवन यात्रा पर विस्तार से बोलते हुए कहा कि जेपी समाजवाद को जबरदस्ती लागू करने के पक्ष में कभी नहीं रहे। वे बड़े स्तर पर लोक शिक्षण को जरूरी मानते थे जिससे ऐसे लोकतांत्रिक मूल्य विकसित हों जिनसे सबका जीवन शुभ हो। स्वतंत्रता, उपनिवेशवाद से मुक्ति, साध्य साधन की पवित्रता में उनका विश्वास निरंतर एक वैचारिक प्रक्रिया से विकसित हुआ था। वे कहते थे कि समाजवाद लागू करने के लिए मूलभूत मानवीय मूल्यों की तिलांजलि नहीं दी जा सकती। मनुष्य मात्र की स्वतंत्रता उनके जीवन का आकाशदीप और चरम मूल्य बना। कांग्रेस के अंदर सन् 1934 में जो कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनी जेपी उसके एक नायक थे। 1940 में सीएसपी की एक रिपोर्ट तैयार करते हुए सामाजिक न्याय की बात उठाई थी। कैदियों के मानवाधिकार पर उन्होंने जोर दिया। स्वराज्य की रूपरेखा उनकी आंखों के सामने स्पष्ट थी, लेकिन मानते थे कि वो सपना काफी दूर है।
पुस्तक ‘ जयप्रकाश – परिवर्तन की वैचारिकी ‘ के विषय में उन्होंने बताया कि यह जेपी के 1934 से 1979 तक के लेख, साक्षात्कार आदि पर आधारित है। भारतीय समाजवाद की जिस विचारधारा को धूमिल करने की कोशिश की जा रही है उस विरासत को बचाने की जरूरत बताते हुए शिवदयाल जी ने कहा साल 1934 में ही कांग्रेस के अंदर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का जन्म हुआ था उसके कार्यकारी महासचिव जेपी थे। सीएसपी के नायक आचार्य नरेन्द्र देव, अच्युत पटवर्धन, यूसुफ मेहर अली, डॉ राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण आदि ने भारत की स्वतंत्रता के बाद एक समतामूलक शोषणविहीन व अहिंसक समाज का सपना देखा था। इन नायकों की विरासत का जो कुछ श्रेष्ठ है उसे साथ लेकर चलने की जरूरत है। 1942 में जेपी ने युद्धविरोधी भाषण दिया। हजारीबाग जेल से वे अपने साथियों के साथ भाग निकले, फिर भूमिगत आंदोलन चलाया। 1945 में फिर गिरफ्तार हुए और लाहौर जेल में कैद रहे।‌ सर्व सेवा संघ से छपी किताब ‘ Inside Lahore fort ‘ उस कारावास कहानी का वर्णन मिलता है। जेपी की विचार सरणि का परिचय उनकी विचार यात्रा में मिलता है। पूंजीवाद के गढ़ अमेरिका में वे पढ़ने गए और प्रखर मार्क्सवादी बनकर देश वापस लौटे। लेकिन बाद में लोकतांत्रिक समाजवाद, महात्मा गांधी व सर्वोदय का असर उन पर गहरा हुआ। समाजवाद के एक ही स्वरूप को वे मानते थे जिसका चरम मूल्य स्वतंत्रता था। जवाहरलाल नेहरू में समाजवादियों को बहुत सम्भावना दिखती थी और समाजवादी उन्हें अपना मानते थे, पर बाद में मोहभंग हुआ और समाजवादी कांग्रेस से अलग हुए।‌ यह वही समय था जब कांग्रेस के नेता तक चुके थे और सोशलिस्ट ऊर्जा से भरे हुए थे।‌ आचार्य जेबी कृपलानी कांग्रेस के अध्यक्ष थे। वे चाहते थे कि प्रधानमंत्री नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष की उपेक्षा न करें। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।‌ कृपलानी ने पद छोड़ दिया। तब कांग्रेस अध्यक्ष के लिए जेपी का नाम सुझाया गया। जेपी तैयार नहीं हुए। तब डॉ राजेन्द्र प्रसाद अध्यक्ष बने। 1952 के चुनाव में सोशलिस्टों को गहरी निराशा मिली । जेपी सर्वोदय की ओर चले गए। 1952 में ही रेलकर्मियों की मांगों को लेकर पूना में जेपी ने बत्तीस दिन का उपवास किया। सरकार ने वादा करके अनशन तुड़वाया और बाद में वादे से पलट गई। द्वंदात्मक भौतिकवाद की देवी से मुक्त होकर जेपी सर्वोदय में गये पर सर्वोदय के साथ सार्वजनिक जीवन से उनका जुड़ाव बना रहा। बंगलादेश के मुक्ति युद्ध के समय विश्व के विभिन्न देशों में भारत का पक्ष रखने के लिए आधिकारिक रूप से उन्हें भेजा गया। संयुक्त राष्ट्र संघ के अध्यक्ष ऊ थांट को भारत के पक्ष से उन्होंने परिचित कराया। चंबल , नागालैंड जैसे अशांत क्षेत्रों में शांति कायम करने व भावात्मक एकता स्थापित करके राष्ट्रनिर्माण का काम किया। ऐसे जेपी को आपातकाल के समय सीआईए एजेंट और गद्दार तक कहा गया। स्वतंत्र भारत में जेपी को बंदी बनाया गया। ठीक ऐसा ही डॉ राममनोहर लोहिया के साथ हुआ। स्वतंत्र भारत में लोहिया १२ बार जेल गए। सरकार ने उन्हें नहीं छोड़ा, मजिस्ट्रेट ने ही छोड़ा। एक मामूली आपरेशन यहां के चिकित्सक ठीक से नहीं कर सके और लोहिया की जान चली गई। यह कैसी विडम्बना है कि जिन जयप्रकाश नारायण को दुनिया के देशों भारत की सरकार ने अपना पक्ष रखने प्रतिनिधि बनाकर भेजा उन्हीं जेपी के सामने लोकतंत्र का दायरा ऐसा सिमटा कि जब 25 जून 1974 को जेपी ने कहा कि सुरक्षाबलों को भी संविधान सम्मत आचरण करना चाहिए तब सरकार ने घबड़ाकर उन्हें जेल में डाल दिया। इससे पहले 6 मार्च को दिल्ली में युवाओं का जुलूस निकला और जनता का मांगपत्र लोकसभा अध्यक्ष को सौंपा गया। पूरी तैयारी के साथ आंदोलन हुआ।‌ शिक्षामंत्री व मुख्यमंत्रियों को ज्ञापन सौंपे गए लेकिन सत्तापक्ष ने इस आंदोलन को बदनाम करने की पूरी कोशिश की। 12 जून को इलाहाबाद हाईकोर्ट के प्रधानमंत्री के प्रतिकूल फैसला आया और 25 जून को इमर्जेंसी की घोषणा हो गई।
श्री शिवदयाल ने दु:ख व्यक्त करते हुए कहा आज लेखक रचनाकारों की कोई हैसियत नहीं। सत्ता का मोह छोड़कर जब लोग राजनीति से जुड़ेंगे तभी कुछ बेहतर होना सम्भव है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण चाहते थे कि भारत की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक समाजवादी राज्य में फलित हो। जेपी को याद करते हुए हमें इस दिशा में काम करने की जरूरत है कि लोकतंत्र को कैसे मजबूत करें, लोकवृत्त को कैसे बड़ा करें, युवाओं को कैसे जोड़ें, राजनीति को सब कुछ न मान कर जीवन के सांस्कृतिक पक्ष को कैसे सामने लायें। आज रघु ठाकुर जैसे नायक में ही जेपी की वह छवि प्रतिबिम्बित होती है। वे समाजवाद के जीवंत प्रतीक हैं।

पद्मश्री से विभूषित माधवराव सप्रे समाचारपत्र संग्रहालय के संस्थापक विजयदत्त श्रीधर ने कहा कि जेपी ने अनेक राजनीतिक विकल्पों में प्रेम के रास्ते को श्रेष्ठ माना। इसी भावना के कारण चंबल के 405 दस्युओं ने उनके कहने पर आत्मसमर्पण किया जिसका विवरण मात्र छियानवे घंटे में लिखी गई ‘ चंबल की बंदूकें गांधी के चरणों में किताब में मिलता है। यह किताब प्रभाष जोशी, अनुपम मिश्र और श्रवण गर्ग ने तैयार की थी। बागियों के आत्मसमर्पण तो विनोबा के समय में भी हुआ था, पर जेपी ने दस्युओं को आश्वस्त किया किया था उन्हें प्राणदंड नहीं होगा। बाकी जो सजा तय होगी वह काटनी पड़ेगी। विनोबा ने डाकू माधौसिंह को किस उद्देश्य से भेजा है यह बिना किसी चिठ्ठी और बातचीत के जेपी ने समझ लिया था। आज की राजनीति से यह बात गायब हो गई है। श्री श्रीधर ने कहा आज रघु ठाकुर में वही चमक दिखाई देती है जो जेपी में थी। वे जिस तरह राजनीति को नैतिक रूप देने की कोशिश में हैं वह एक तरह से दुस्साहस है।
विजयदत्त श्रीधर ने बताया कि साल 1942 में सत्यदेव विद्यालंकार ही वह सम्पादक थे जिन्होंने एक प्रेस नोट को ध्यान से पढ़ा और अपने अखबार के माध्यम से देश को बताया कि हजारीबाग जेल की दीवार फांदकर जयप्रकाश नारायण निकल गये हैं।

अध्यक्षीय उद्बोधन में गांधी भवन के सचिव दयाराम नामदेव ने कहा जेपी के करुणामूलक पक्ष को समझना जरूरी है। चंबल के बागियों के आत्मसमर्पण के लिए दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में जेपी ने जो पहली बैठक बुलाई उसमें वे स्वयं मौजूद थे। बिहार में अकाल पड़ने पर भी उन्होंने राहत कोष बनाया था जिसमें रामचंद्र भार्गव, हरिश्चंद्र आदि थे। आज जरूरत है कि जेपी जिस समाजवाद को लाना चाहते थे वह हम सामान्य जन को समझाएं।

-श्री जयंत तोमर जी के फेसबुक वॉल से साभार।

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