गौरव-यात्रा…
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मेरा बचपन मेरी जन्मभूमि (नानी गांव) में बीता। मेरे स्वतंत्रता सेनानी नानाजी श्री रामनारायण सिंह साहेब मुझे हमेशा स्वतंत्रता आंदोलन की कहानियां और रामायण एवं महाभारत के प्रसंग सुनाते रहते थे और मामाजी श्री अग्निदेव सिंह साहेब मुझे अक्सर पत्रिकाएं एवं किताबें लाकर पढ़ने देते थे। गांव में अखबार नहीं आता था। इसलिए मैं नियमित रूप से अखबार नहीं पढ़ पाता था।
लेकिन जब मामाजी पंद्रह-बीस दिन भागलपुर में रहने के बाद घर आते थे, तो उस बीच के सभी अखबार मेरे लिए लेते आते थे। वे अखबार में मेरे लिए कुछ महत्वपूर्ण चीजों को चिह्नित भी कर देते थे। इसमें ज्यादातर संपादकीय लेख होता था और कभी-कभी स्वामी विवेकानंद एवं महात्मा गाँधी आदि महापुरुषों से संबंधित प्रसंग होते थे और विशेष रूप से होती थीं-आईएएस, आईआईटी आदि की कहानियां (फोटो सहित)। मैं कई दिनों तक उन अखबारों में उलझा रहता था और मामाजी द्वारा चिह्नित सामग्रियों के अलावा भी अन्य महत्वपूर्ण सामग्रियां संग्रहित करते रखता था।
इस बीच मैंने इंटरमीडिएट के बाद इंस्टीट्यूट ऑफ जर्नलिज्म, नई दिल्ली से पत्रकारिता प्रशिक्षण का पत्राचार कोर्स (छः महीने का) किया और फिर अखबारों के लिए लिखना शुरू किया- पत्र एवं लेख भी। मेरा पहला पत्र हिंदुस्तान के ‘लोकवाणी’ कॉलम में प्रकाशित हुआ और मेरा एक छोटा-सा आलेख भी पूरे देश में एक साथ जारी होने वाले रविवारीय फीचर पेज में प्रकाशित हुआ था, जिसके लिए मुझे डेढ़ सौ रूपए प्राप्त हुआ था। बाद में जब मैं स्नातक की पढ़ाई के लिए भागलपुर आया, तो उस दौरान तीन-चार वर्ष मैंने ‘प्रभात खबर’ में संवाददाता के रूप में कार्य किया।
खैर, उपर्युक्त प्रसंग को यहां छोड़ते हुए सीधे दैनिक जागरण पर आते हैं…
दरअसल जब मैंने लेखन की दुनिया में अपने डगमगा कदम बढ़ाए, उसके कुछ वर्ष पहले ही बिहार में दैनिक जागरण का उदय हो चुका था। मैंने ‘जागरण’ के ‘पाठकनामा’ कालम में पत्र लिखने की शुरुआत की। इसमें मेरे दर्जनों पत्र प्रकाशित हुए, जिनमें से कुछ आज भी संग्रहित हैं।
‘दैनिक जागरण’ का भागलपुर से प्रकाशन शुरू होना अंग प्रदेश के लेखकों एवं साहित्यकारों के लिए वरदान साबित हुआ और मेरे लिए भी। इसके साप्ताहिक आयोजन जागरण सीटी (अपना शहर) में मेरे सौ से अधिक फीचर आलेख प्रकाशित हुए हैं। इसमें मुझे फीचर प्रभारी डॉ. प्रणव प्रियंवद एवं श्री प्रसन्न कुमार सिंह का विशेष सहयोग प्राप्त हुआ है।
आने वाले दिनों में सभी फीचरों को संग्रहित कर पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने की योजना है, जिसमें ‘जागरण’ के साथ अपने संस्मरणों को विस्तार से लिखूंगा।
आगे याद रहे, इसलिए यहां कुछ प्वाइंटस नोट कर रहा हूँ-
1. मेरे लॉज में हम सभी विद्यार्थी चंदा करके सिर्फ एक अखबार हिंदुस्तान मंगवाते थे। इसलिए दैनिक जागरण पढ़ने के लिए मुझे एक सैलून में जाना पड़ता था।
2. ‘पाठकनाम’ में प्रकाशित कई पत्र मेरे पास सुरक्षित नहीं हैं। मैं अखबार नहीं खरीद सका…
3. अखबार में अपना आलेख देखने के लिए मैं मंगलवार की सुबह का इंतजार नहीं करता था। सोमवार की बारह बजे रात्रि में भागलपुर स्टेशन पहुंचकर सिलिगुडी संस्करण खरीदता था। अखबार वाले एक बच्चे से पचास पैसे की दर से जागरण सिटी की कुछ अतिरिक्त प्रशन भी लेता था।
4. तत्कालीन संपादक जी अक्सर प्रणय भैया को अपने चैम्बर में बुलाकर डांट लगाते थे, ‘यह साहित्य-वाहित्य क्या छापते हो…?’
5. एक बार मैंने अपने केबी- 10 कैमरे से एक पागल की तस्वीर खींचकर उसके बारे में एक आलेख लिखा, ‘सड़क किनारे, किस्मत के मारे आग के सहारे..’। इस आलेख को देखकर प्रणय भैया थोड़े परेशान हो गए। उन्होंने मुझे कहा कि ‘इसे छपने दो- इस बार संपादक जी सीधे तुमको अपने चैम्बर में बुलाएंगे।’
6. मैंनै प्रणय भैया के आदेश पर ही पद्मश्री प्रोफेसर रामजी सिंह का प्रोफाइल लिखा था। इस दौरान उनसे कई बार मिला, काफी प्रभावित हुआ और उनका शिष्य बन गया।
7. दैनिक जागरण में मेरा इतना अधिक आलेख छपता था कि एक बार एक साथी लेखक ने संपादक जी से शिकायत कर दी कि सुधांशु प्रणय प्रियवद की जाति का है, उनका रिश्तेदार लगता है!
8. ‘विक्रमशिला’ से संबंधित मेरे एक आलेख ‘आहत अतीत’ से तत्कालीन जिलाधिकारी महोदय आहत हो गए थे, लेकिन तत्कालीन प्रभारी प्रसन्न भैया ने मेरा साथ दिया और मैं अपने लिखे पर कायम रहा, जिसे बाद में जिलाधिकारी ने भी सराहा।
9. मैंने एक फीचर आलेख सर्वहारा की आत्मकथा पुस्तक के लेखक बनारसी प्रसाद गुप्ता के ऊपर लिखी थी। इससे खुश होकर उन्होंने मुझे मिठाई खाने के लिए कुछ रुपए देने चाहे, मैंने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया। इसके बाद उन्होंने मेरे शिक्षक डॉ. प्रेम प्रभाकर को फोन करके यह सब बताया था।
10. और भी बहुत कुछ…
बिहार में दैनिक जागरण के पच्चीस वर्ष पूरे होने पर बहुत-बहुत बधाई। मित्र श्री अमितेष कुमार सोनू जी को बहुत-बहुत शुभकामनाएं…