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कविता संग्रह “थोड़ी सी नमी”…

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इंदु पाण्डेय खंडूरी का यह पहला कविता संग्रह “थोड़ी सी नमी” अभी कुछ दिनों पहले ही रश्मि प्रकाशन लखनऊ से आया है। वैसे इंदु जी मूलतः दर्शन की अध्येता हैं और गढ़वाल केन्द्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफेसर। लेकिन उनके इस संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए लगता है कि कविता के जरिये वे अपनी अंतस की वह अभिव्यक्ति करना चाहती हैं जिसे किसी विचार के जरिये नहीं व्यक्त कर सकतीं। जैसा कि अपने आत्मकथ्य में वे खुद कहती हैं… “मेरी हर कविता में “मैं” मौजूद है। कहीं अंधेरे से अपनी निजी लड़ाई में, तो कहीं मनुष्य बने रहने की जिद जीते हुए, तो कहीं कुछ सार्थक तार पकड़ने की कोशिश करते हुए।” इसीलिए उनकी कविताओं में आत्मन से उपजी एक किस्म की छायावादी गंध है जो उन्हें निजता बोध में बांधे तो रहती है पर कहीं-कहीं इस निजता से बाहर निकलने का द्वंद्व और जद्दोजहद भी है। इसे उनकी कुछ कविताओं को रखकर समझा जा सकता है।

एक कविता है “जिंदगी के कोरे कैनवास..” जिंदगी के कोरे कैनवास/ अक्स बनते कैसे/हर रंग की चपलता में/फिरता रहता है तू/ खुशी तेरे बिना कभी आ नहीं सकती/आती भी कैसे/ खुशबू सा समाया है जो तू/ ऐसा नहीं कि कोशिश नहीं की, पर/ दर्द और आँसू के/हर कतरे में बहा है तू। स्मृतियों के आत्मन से उपजी संग्रह की कई कविताएं इस नितांत एकांतिक अनुभव संसार से उपजी हैं पर “विकल्प” और “एक आम आदमी” जैसी कविताओं में इंदु पांडेय एकांतिक और अन्तर्मुखी दुनिया से कविता को निकालने की जद्दोजहद करती हुई उसे बहिर्मुखी भी बनाती हैं। विकल्प की कुछ पंक्तियां… कोई भी आसानी से कह देता है/ मैं ही व्यवस्था के विरुद्ध/ बोलने का विकल्प क्यों अपनाऊँ?/ जब पक्ष में बोलना/मेरे सपने और स्वार्थ का/ सहज, सरल रास्ता दिखता हो/आखिर क्यों मैं/पक्ष में बोल पाने की सुविधा छोड़/आलोचना के बोल अपनाऊं? आज का यथार्थ इसमें व्यंग्य के जरिए ध्वनित और व्यक्त होता है..!” एक आम आदमी” कविता की कुछ लाइनें हैं… हां मैं एक आम आदमी हूं/ मैंने भी सपने देखने का गुनाह किया/ तुमने अच्छे दिनों के सपने दिखाए/मेरा मन इंतजार में डूब गया..!

जहां भी इंदु पांडेय अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति का समाजीकरण करती हैं उनकी कविता आत्यंतिक निजता बोध की सीमाएं तोड़ यथार्थ से टकराती है और अभिव्यक्ति में संभावनाओं के द्वंद्व भरे नए द्वार खुलते हैं। और महादेवी वर्मा को याद करते हुए कहा जाय तो इंदु जी को ‘नीर भरी दुःख की बदली’ को आधुनिकता बोध के साथ कविता को नया फलक देते हुए उसे विविध रंगों में विस्तार देना है। यानी आत्मन का समाजीकरण..! इंदु पांडेय की इस सृजनात्मक सक्रियता के लिए उन्हें बधाई के साथ यह सुझाव कि प्रकाशन में कविता के रचनाकाल का जिक्र रहे तो रचना के विकास क्रम को समझना ज्यादा सहज होता है। और हाँ, कुछ कविताओं में थोड़े चुस्त संपादन की भी जरूरत है।

-दयाशंकर राय जी के फेसबुक वॉल से साभार।

03 जून, 2023

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