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कविता/ दूध के गाछ/ प्रो. (डॉ.) प्रेम प्रभाकर, हिंदी विभाग, तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर (बिहार)

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दूध के गाछ

अलसुबह
कुछ प्रतीक
शब्द बन
दिल के दरवाजे पर
हौले-हौले देने लगे दस्तक
मैंने झट-से खोल दिए पल्ले
वे दाखिल हुए मेरे अंदर
और धंसते ही चले गए …
फिर उग आए
कागज पर बेल-बूटे
ज्यों अपने नवजात को देख मां की छाती में
दूध उतर आए।

वे सिर्फ शब्द नहीं थे
वर्ण-वर्ण मिलकर बने थे
अक्षर,
जो शब्दों की शक्ल में खड़े थे
मानो वे हों मजबूत इरादों वाले
मर्द और औरतें
या कि वे हों
उनकी हाथ मिलाती हथेलियां
या सामने खड़े पहाड़ की ओर
उंगली उठाती उंगलियां।

न जानें क्यों
वर्षों से कागजों में दफन समझ
कूद-कूद कर फैलने लगे
खेतों-खलिहानों, पहाड़ों-नदियों, जंगल-खदानों की ओर
और तनी मुट्ठियां करने लगीं
चोट चट्टानों पर
चोट…चोट…और….चोट…
चट्टानें होने लगीं चकनाचूर
क्या वे हैं दुनियाभर के मजदूर?
वे हैं भी
या शब्द-भ्रम है यह!

यों पूरी कायनात में
मेहनत की चमचमाती धूप
पसरती जरूर जा रही है
मगर, उसे लीलने के लिए
पश्चिम के उमड़ते पीले बादल
छाते ही चले जा रहे हैं
उन पीत राक्षसों का
कौन करेगा अंत?
क्योंकि झूठ के बगूले भी
वहीं से उड़ाये जाते हैं
इसलिए स्यात् जंगलों, पहाड़ों, खदानों की धरती पर
उगने लगे हैं दूध के गाछ
हुमकने लगे हैं माटी के लाल
क्या धरती हरी रहेगी
या हो जाएगी लाल ?
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संपर्क :

प्रेम प्रभाकर
पी-7, प्रोफेसर्स क्वार्टर्स, विश्वविद्यालय आवासीय परिसर,
लालबाग-सराय,
भागलपुर-812002 (बिहार)

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