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Hindi खगेंद्र ठाकुर की आज पुण्यतिथि पर विशेष….

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एक प्रखर मार्क्सवादी चिन्तक , हिन्दी साहित्य के प्रगतिशील आंदोलन के पुरोधा और चर्चित आलोचक डॉ खगेंद्र ठाकुर की आज पुण्यतिथि है। अपनी बेहद सजग आलोचनात्मक दृष्टि के कारण खगेन्द्र जी आजीवन बिहार के लेखकों के लिए एक प्रकाश-स्तंभ की तरह रहे। मेरा उनसे आत्मीय परिचय 1995 में तब हुआ जब मैं अपनी कुछ कच्ची-पकी कविताओं की एक पांडुलिपि लेकर उनके पास गया था। मन में एक डर और संकोच था कि पता नहीं मुझ पुलिसवाले के साथ उनका सलूक कैसा हो। यह देखकर एक सुखद आश्चर्य हुआ कि उन्होंने मेरी कविताओं को न केवल एकाग्र होकर पढ़ा और सुझाव दिए, बल्कि कविता संग्रह को ‘जंगल जहां खत्म होता है’ का नाम भी दिया और उसकी भूमिका भी लिखी। उनकी ‘समय, समाज व मनुष्य’ और ‘कविता का वर्तमान’ जैसी किताबों ने मुझे कविता की थोड़ी-बहुत समझ दी। कम लोगों को पता है कि खगेन्द्र जी एक संवेदनशील कवि भी थे। उन्हें मेरा स्मृति नमन,उनकी एक कविता के साथ : हां, हम काले हैं/काला होता है जैसे कोयला/जब जलता है तो हो जाता है आग/गल जाता है लोहा भी/हां, हम काले हैं/काला होता है जैसे बादल/जब गरजता है तो/कौंध जाती है दुनिया की नजर/हां, हम काले हैं/काली होती है जैसे चट्टान/फूटती है जिसके भीतर से/निर्झर की बेचैन धारा/हां, हम काले हैं/काली होती है जैसे मिट्टी/जब खुलता है उसका दिल/तो दुनिया हरी-भरी हो उठती है।            (चित्र में कविवर केदारनाथ सिंह और डॉ खगेन्द्र ठाकुर के साथ मैं)

ध्रुव गुप्त जी के फेसबुक वॉल से।

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