Hindi। एक था प्रेम प्रभाकर/ रविशंकर सिंह

एक था प्रेम प्रभाकर
-रविशंकर सिंह

प्रेम प्रभाकर स्मृति शेष हो गये, लेकिन उसकी स्मृति कहां शेष हुई हैं। उन यादों का मैं क्या करूं, जो मेरे ज़हन में जड़ तक समाई हुई हैं !

वही प्रेम प्रभाकर जो साहित्य को जीता था, उसे ओढ़ता-बिछाता था, जो अपने जीवन काल के तिरेसठ वर्षों तक कभी चैन की नींद नहीं सो सका, वही गहरी नींद में सो गया , फिर से नहीं जागने के लिए।

बहुत झेला उसने अपने जीवन में। निराला की कविता की तर्ज़ पर कहें तो, ” सबकी सुनता था, सहता था, देता था सबको दांव बन्धु ! ”

प्रेम प्रभाकर के चले जाने के बाद मुझे केवल यही बात बार-बार याद आती है कि हम सभी साथी उसे कितना चिढ़ाते रहते थे, लेकिन उसने आज तक किसी का कड़े शब्दों में विरोध नहीं किया। 45 वर्षों की दोस्ती में एक बार भी वह हम लोगों से झगड़ा कर लेता तो हमें इतना मलाल नहीं होता।

कितनी शालीन और मीठी झिड़की देता था वह, ” क्या मैं नहीं समझता हूं कि तुम लोग मेरी ही गोदी में बैठकर मेरी दाढ़ी खुजलाते हो ! ”

साल 1975 की बात है। टीएनबी कॉलेज के कला विभाग में प्रभाकर मेरा सहपाठी था। हम दोनों की पृष्ठभूमि एक थी, वर्ग एक था। हमारे संस्कार और विचार भी एक जैसे थे। यही हमारी दोस्ती का आधार था। 

मैं ग्रामीण पृष्ठभूमि से निकलकर भागलपुर शहर में पढ़ने के लिए गया था। वह अपने को मुफस्सिल कहता था। ‘ मुफस्सिल ‘ शब्द का उच्चारण करते हुए वह अपने होठों को गोल बनाकर जब खास अंदाज में बोलता था तो हम लोग उसका खूब मजाक उड़ाते थे, लेकिन प्रभाकर था कि उस पर कोई असर ही नहीं होता था। वह मंद मंद मुस्कुराता हुआ केवल हम लोगों को घूरता रहता था। शायद वह कहना चाहता था , ” बच्चू , आज नहीं तो कल तुम लोगों को मेरी अहमियत समझ में आएगी !”

शब्दों के उच्चारण के प्रति प्रभाकर सदैव सचेष्ट और सावधान रहता था। स्कूल, स्थिति, स्पष्ट आदि शब्दों के उच्चारण में कैसी सावधानी बरतनी चाहिए इसका गुर वह हम लोगों को सिखाता रहता था। उन दिनों हमारे शिक्षक डॉ शशि भूषण शीतांशु ट्यूटोरियल क्लास में हमें वर्तनी और उच्चारण की शुद्धता के बारे में बताया करते थे। डॉ शीतांशु का प्रभाव हमारे मित्रों में से सबसे अधिक प्रभाकर पर ही पड़ा था।

जाहिर सी बात है कि भाषा हम अपने परिवेश से ही सीखते हैं।…. और हमारा परिवेश तो माशा अल्लाह मजदूरों का परिवेश था। तो हम लोगों को भाषा के साथ-साथ उच्चारण की शुद्धता के लिए विशेष रूप से सचेत रहने की जरूरत थी। इस कला में प्रभाकर ने प्रवीणता हासिल कर ली थी। वह शुरू से ही रेडियो में काम करने के लिए इच्छुक था। 1978 में जब वह बी.ए. में पढ़ता था तो उसने आकाशवाणी भागलपुर में कंपियरिंग के लिए ऑडिशन दिया । आकाशवाणी के खेती गृहस्थी कार्यक्रम में उसे कार्यक्रम प्रस्तोता के रूप में काम भी मिल गया था। वह एक पार्ट टाइम जॉब था। इस कार्य में शहर के अनेक लड़के- लड़कियां लगे हुए थे। इन लड़के- लड़कियों में से किसी को सप्ताह में 6 दिन और किसी को 3 दिन काम करने का अवसर मिल जाता था। अब यहीं पर शुरू होती थी रेडियो स्टेशन डायरेक्टर की मक्खन बाजी। प्रभाकर को मक्खन बाजी करना पसंद नहीं था, इसलिए उसे सप्ताह में केवल 3 दिनों का काम मिल पाता था, जिसका मानदेय पढ़ाई लिखाई करने के लिए पर्याप्त होता था। वह अपने काम को बड़ी नफासत और तैयारी के साथ निभाता था। वक्त की पाबंदी के मामले में वह मेरी तरह ढीला- ढाला था। शायद यही ढीलापन हमारी दोस्ती की कड़ी भी थी।

बाद के दिनों में आशुतोष और योगेंद्र हमारे साथ जुड़ते गए। आशुतोष और योगेंद्र के विचार और जीवन शैली एक जैसे थे। प्रभाकर और मैं एक जैसा। हम चारों दोस्तों के बीच सगा और चचेरा मित्र जैसा संबंध था। प्रभाकर मेरा सगा मित्र था और योगेंद्र आशुतोष का। अपनी मित्रता के दौरान मैंने देखा कि वैचारिक भिन्नता के बावजूद हम लोग अभिन्न मित्र थे। आशुतोष और योगेंद्र छात्र जीवन से ही आंदोलन और राजनीति से जुड़े थे। मेरी उसमें विशेष रूचि नहीं थी। मैं स्वयं को केवल साहित्य तक सीमित रखना चाहता था। प्रभाकर बीच का आदमी था।

प्रभाकर ने अपने फेसबुक वॉल पर लिखा था, ” परिवार के लोग बताते हैं, मैंने सामान्य बच्चों की तरह समय पर बोलना नहीं सीखा था। थोड़ी देर हो गयी थी बोलने में। मेरे परिवार और पड़ोस के लोग तो वही नाम कहते जो शास्त्रीय नाम परिवार वालों ने रखा था, किन्तु सरल लोग वैसा नहीं करते। तब मेरे टोले में चाचा के एक यादव दोस्त हुआ करते थे। उनकी पत्नी को हम लोग काकी कहते थे, वे हमलोगों को बहुत प्यार करती थीं। मैं भाई-बहन में सबसे छोटा था, सो वे मुझे कुछ ज्यादा ही लाड़-प्यार करती थीं। वे मुझे दुलार से बोंगी (गूंगा) कहती थीं। मैं बहुत खुश होता था। यूं माताजी हम भाई-बहनोंं को बहुत अनुशासन में रखती थीं। मेरे गांव में, और खासकर मेरे टोले में तब शिक्षा का घोर अभाव था। टोले के बच्चों की संगति में हम भाई-बहन कहीं बिगड़ न जाएं, इसलिए मां हमें नियंत्रण में रखतीं। किन्तु हमलोग यदा-कदा अनुशासन का बांध तोड़ देते और खूब खुश भी होते थे। हालांकि इस कारण डांट-फटकार और पिटाई भी हो जाती। कभी-कभी सोचता हूंं कि यादव काकी द्वारा मुझे बोंगी कहा जाना कितना अर्थपूर्ण था।”

यदि आत्मा नाम की कोई चीज होती है और यदि प्रभाकर की आत्मा सुन रही हो तो मैं उसे कहना चाहता हूं, ” तुम्हारा नाम बहुत अर्थ पूर्ण था दोस्त। तुम सचमुच के गूंगे बने रहे। हम सबकी सुनते रहे , सहते रहे , कभी किसी को पलट कर जवाब नहीं दिया। हम बहुत खुश थे कि प्रभाकर किसी की बात को दिल पर नहीं लेता है, लेकिन यह हम लोगों की कितनी बड़ी भूल थी। तुमने तो दुनिया भर की बातों को इस कदर दिल पर लिया कि हमसब को तन्हा कर दिया। इससे तो बेहतर होता कि तुम खुलकर हमसब के खिलाफ बोल लेते !!! ”

प्रभाकर हम लोगों के बीच हीरो था। कर्मठ और धुन का पक्का। वह कहता था, ” यार, मैं कभी बेरोजगार तो रहा नहीं । लोग जब मुझे बेरोजगार कहते हैं तो मुझे उन पर बहुत गुस्सा आता है। ”

वह स्वयं अपने संघर्ष की कथा सुनाता था। कॉलेज से लौटते वक्त वह दुकान से बीड़ी का पत्ता और खैनी घर ले आता। वह रात में पढ़ने के अलावा कुछ बीडियां बांध लेता । सुबह उन बीड़ियों को दुकान में देकर वह दुकानदार से कॉलेज जाने – आने के पैसे ले लेता था। उसके गांव मखना के आसपास दुर्गा पूजा के अवसर पर एक मेला लगता था। वह मेले में पान, बीड़ी , सिगरेट की दुकान खोल देता था। मेले की कमाई से वह किताब ,कपड़े और साइकिल आदि खरीदने के लिए थोड़ी सी पूंजी जमा कर लेता था। वह कहता था, ” यार ! पान , बीड़ी , सिगरेट बेचने में मुझे कोई दिक्कत नहीं होती है, लेकिन कम उम्र के बच्चों के हाथों में सिगरेट थमाते हुए मैं आत्मग्लानि से भर उठता हूं। ”

चुनाव के समय वह पोलिंग पार्टी के साथ होमगार्ड की तरह ड्यूटी करने के लिए चला जाता था। यह दिगर बात है कि पोलिंग पार्टी के लोग उसके स्वभाव और शिक्षा -दीक्षा को देखकर उसे अन्य काम में लगा देते थे। प्रभाकर ने कम से कम मुझे आत्मनिर्भर बनाना सिखाया। हालांकि यह बताना कठिन है कि हम मित्रों में से किसने किसको और कितना संवलित किया।

प्रभाकर को रिश्वत देना कतई गंवारा नहीं था। इसके कारण उसने अपने जीवन में कई मौके खोए। उनमें से आकाशवाणी की नौकरी का भी एक मौका शामिल है। वह मानता था कि बिना पैसा और पैरवी के योग्यता के आधार पर भी नौकरी हासिल की जा सकती है और वह मैं करूंगा। योगेंद्र और आशुतोष ने भी अपने जीवन में इस जिद को पूरा करने की ठान रखी थी। उन तीनों के संकल्प से मुझे बहुत संबल मिला। इसका परिणाम यह हुआ कि नौकरी के लिए मुझे भी रिश्वत नहीं देनी पड़ी। सच तो यह भी है कि उन दिनों हम मित्रों के पास रिश्वत देने के लिए पैसे भी नहीं होते थे। कम से कम मेरा आदर्शवाद तो मेरी गरीबी पर भी बहुत कुछ आधारित था।

45 वर्षों का संग- साथ । 1975 से 2020 तक यानी 45 वर्षों की हमारी मित्रता किसी भी रिश्ते से ज्यादा मधुर और प्रगाढ़ बनी रही। हमारी मैत्री के बीच जाति- वर्ण की संकीर्णता का कोई स्थान नहीं था।

वर्षों की मैत्री के बाद एक दिन प्रभाकर ने बिना पूछे ही मुझे अपनी जाति के बारे में बताना चाहा, ” कुर्मी एक जाति होती है , जानते हो ना ! उसी तरह की एक जाति है कोयरी, उसी से मिलती-जुलती मेरी जाति है। ”

वह आधे घंटे तक मुझे समझाता रहा , मगर बात इतनी सी मेरी समझ में आई कि प्रभाकर सवर्ण मानी वाली जातियों में से नहीं है, लेकिन जलचर जाति का है। जलचर जाति का तात्पर्य है जिन जातियों का छूआ हुआ जल सवर्ण जातियों में स्वीकृत था।

राजेंद्र यादव के बारे में नामवर सिंह ने कहा है , ” किसी बात को समझने के लिए सिर के पीछे हाथ को घुमाकर नाक पकड़ने की कला सीखनी हो तो राजेंद्र यादव से सीखनी चाहिए। ”

नामवर सिंह की उक्ति प्रभाकर पर भी सटीक बैठती है। प्रभाकर जब आधे घंटे तक बोले तो उनके कथन का सारांश या निहितार्थ समझना पड़ता था। मैं अक्सर आशुतोष से मजाक किया करता था, ” यार, प्रभाकर ने आधे घंटे तक मुझसे बात की लेकिन बात मेरी समझ में नहीं आई।”

आशुतोष हंसते हुए जवाब देते थे, ” भाई साहब ! प्रभाकर विद्वान आदमी है। घर गृहस्ती अथवा स्वास्थ्य संबंधी छोटी-छोटी बातों पर आप उससे सवाल ही क्यों पूछते हैं ? ”

गैर साहित्यिक अथवा गैर एकेडमिक बातों का प्रभाकर के जीवन में कोई महत्व ही नहीं था। 6 नवंबर 2020 के पहले उससे बात हुई थी। 4 या 5 नवंबर को डॉक्टर योगेंद्र से सूचना मिली थी कि प्रभाकर बीमार है। मैंने जब उससे बीमारी के बारे में बात करना चाहा तो उसने बड़े फक्कड़ाना अंदाज में जवाब दिया , ” यार, स्वास्थ्य का क्या है ? तुम देश दुनिया और साहित्य की बात करो ना ! ”

डॉ. योगेंद्र ने ही बताया कि एक दिन डॉ. बहादुर मिश्र ने भी उस से डिपार्टमेंट में कहा , ” प्रभाकर जी आप जब इतने बीमार रहते हैं तो आप चीनी वाली चाय क्यों लेते हैं , जर्दा वाला पान क्यों खाते हैं ? ”

प्रभाकर ने उन्हें भी उसी अंदाज में एक दार्शनिक की तरह जवाब दिया था, ” भाई, मृत्यु पर किसका वश चलता है ? जब तक जीवन है उसे मैं छक कर जी लेना चाहता हूं।”

हमारे मित्र मंडल में कई असिस्टेंट प्रोफेसर और प्रोफेसर हैं, लेकिन हम लोग केवल प्रभाकर को ही प्रोफेसर साहब कहते थे। यह बात केवल हास परिहास तक ही सीमित नहीं थी। वह स्वयं को समृद्ध करने के लिए सदैव सचेष्ट रहता था। रोज रात को बारह-एक बजे तक जाग कर पढ़ना- लिखना उसकी आदतों में शुमार हो चुका था। पढ़ने के लिए जो एकांत होना चाहिए, वह उसे रात में ही वह माहौल उपलब्ध हो पाता था। वह बेपरवाह था तो अपनी दैनिक चर्या में और अपने खानपान के प्रति। इसका मूल्य भी उसने चुकाया।

…. मैं प्रभाकर की जाति के बारे में बात कर रहा था। जाति विभाजन के अनुसार प्रभाकर सवर्ण नहीं था, लेकिन उसके नाम परशुराम के साथ जुड़ा सरनेम राय बहुत भ्रम पैदा करता था। अपने सरनेम के कारण उसे काफी परेशानी भी झेलनी पड़ी। लेक्चरर पद के लिए चयनित होने के उपरांत यूनिवर्सिटी के लोगों ने भूमिहार समझकर उसका अपॉइंटमेंट बरबीघा कॉलेज कर दिया था। भूमिहार बहुल उस कॉलेज में भी वह जब तक रहा चौड़े से रहा। कालांतर में उसने अपना तबादला तिलकामांझी यूनिवर्सिटी भागलपुर में अंगिका विभाग में करवा लिया था। इसकी वजह थी कि बच्चों की पढ़ाई – लिखाई एवं खेती- गिरस्थी की देखभाल के लिए उसे भागलपुर सूट करता था।

अपने सरनेम से परेशान होकर उसने अपना एक उपनाम चुन लिया था – प्रेम प्रभाकर। उसने बकायदा कोर्ट में एफिडेविट भी करवा लिया था।

जगदीशपुर से थोड़ी दूर बैजानी फुलवरिया के पास एक छोटा सा गांव है मखना। यही जन्म स्थान है उसका। शिक्षा – जगदीशपुर हाई स्कूल से मैट्रिक , आई ए एवं बी ए टीएनबी कॉलेज से ,भागलपुर यूनिवर्सिटी से हिंदी में एम ए। उसका घर क्या था, ईंट- माटी और खपरैल से बना एक घरौंदा।

प्रभाकर बहुत दिनों तक अभाव और गरीबी में रहा , लेकिन उसके चेहरे पर कभी दैन्य नहीं दिखता था। बीड़ी बनाने से लेकर आकाशवाणी भागलपुर में कंपियरिंग , नई बात अखबार मैं संपादन , मधुपुर में कुछ दिनों तक एन जी ओ की जुड़ाव संस्था के लिए काम , धनबाद में किसी अखबार के लिए काम , आसनसोल बीबी कॉलेज में पार्ट टाइम लेक्चरर के रूप में कार्य , चुनाव में प्रत्यासी के रूप खड़ा होना, गुवाहाटी में अखबार के संपादक के रूप में कार्य और अंत में तिलकामांझी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर के पद पर कार्य करते हुए प्रभाकर ने अपनी यात्रा पूरी की। कहानी, कविता, समीक्षा लेखन में उसकी रुचि थी। उसने शिवकुमार शिव के साथ किस्सा पत्रिका के कयी अंकों का संपादन किया। कालांतर में उसे छोड़कर प्रभाकर ने अंगचंपा पत्रिका का संपादन किया।

प्रभाकर खाने पीने का शौकीन था। बाजार में जो भी नई सब्जी आती, उसकी कीमत भले ही ज्यादा हो , लेकिन प्रभाकर के यहां वह सब्जी जरूर बनती थी। प्रभाकर का निवास हम जैसे भुक्खड़ मित्रों का आश्रय हुआ करता था। अक्सर हम लोग उसके यहां जाते और अधिकार पूर्वक उसके यहां कई दिनों तक जमे रहते।

मित्रों में सबसे पहले प्रभाकर की ही शादी हुई थी। शादी के वक्त उसकी पत्नी उर्वशी की उम्र बहुत ज्यादा नहीं थी। हम लोगों के उपद्रव से उम्र में छोटी उर्वशी अक्सर तंग आ जाया करती थी। उसके बने बनाए भोजन पर हम लोग टूट पड़ते थे। प्रभाकर देर से चबा -चबा कर रस ले- ले कर भोजन ग्रहण करता था। इस मामले में योगेंद्र और आशुतोष काफी फास्ट थे। जब एक ही थाली में सब लोग खा रहे हो तो जाहिर सी बात है कि प्रभाकर पीछे रह जाता था। योगेंद्र और आशुतोष को जल्दी-जल्दी खाते हुए देखकर उर्वशी कहती, ” अब छोड़ न दीजिए जी, ये भुखले रह जाएंगे। ”

” चुप रहिए, सब तोरे दुलहा खाएगा ? “, योगेंद्र कहते।

” खाने दो – खाने दो ना उर्वशी। “, प्रभाकर बीच-बचाव करता।

एक दिन की घटना है। मैं घूमता हुआ मुंदीचक गुमटी नंबर 2 के पास प्रभाकर के निवास पर गया था। मुझसे मिलते ही उर्वशी ने कहा, ” हम्मे आबे यहां नय रहभौं हो रवि ! ”

” कन्हें , …कि होल्हौं ? ”

” …कि बतैयहौं हो रवि ! हम्मे खाना बनाय क तनी टा बगलवाली कन गेलिहौं, तुरन्त आबि क देखै छिहौं कि हमरो भात, दाल, सब्जी सब साफ छौं। ”

” धत् , आशुतोष आरो जोगिंदर आबी क खैले होतौं। ”

” …नय हो रवि, वें सिनि खैतौं त थरिया थोड़े न धोतौं। हमरो सब बरतन-बासन धोलो- पखारलो रखलो छै भाय ! ”

” महाराज , भात चोरावैल’अ काहीं चोर आबैय छै ? ओकरा दोन्हू क छोडिक कोय नै खैल’अ होथौं। ”

प्रेम प्रभाकर के बारे में डॉ आशुतोष ने अपने वॉल पर लिखा था, ” प्रेम प्रभाकर के पास असीम धैर्य था। उसे बहुत चिंतित और मायूस मैंने नहीं के बराबर देखा है। उसने कहानीकार रविशंकर सिंह की तरह एक्जाम ड्राॅप किया था। एम ए का इम्तहान चल रहा था। वह थोड़ा नहीं बहुत लेट-लतीफ था। हम जानते थे कि वह समय पर नहीं जाएगा। उसे साथ लेकर जाते, लेट हो रहा होता।हमें दिखाने के लिए जल्दबाजी करता दिखता। एकबार इम्तिहान शुरु हो गया था। हम चाहते थे कि जल्दी हाॅल में जाए। लेकिन हुजूर बिना पान खाए कैसे जाते। वह गेट पर पान की दूकान पर गया और पान लगवाया। पान मुंह में दबाया और चल पड़ा। निश्चिंत हुआ कि चलो दस मिनट ही देर हुई है। लेकिन वह फिर रास्ते से मुड़ा चूना लेने। इस दरम्यान हमें दिखाने के लिए हड़बड़ करता दिखता रहा। पर वह अंदर से महानिश्चिंत था। होंठों पर वही मंद भेदती मुस्कान। ”

डॉ आशुतोष ने जिन घटनाओं का उल्लेख किया है उसका मैं भी साक्षी रहा हूं। हमें जब पता चला कि एम ए का रिजल्ट तैयार हो गया है तो हमलोग यूनिवर्सिटी गए। मैं, आशुतोष और प्रभाकर । उसे अपना रिजल्ट देखने का साहस नहीं हो रहा था। उसके बदले मैं ऑफिस गया। मैंने संबंधित अधिकारी को अपना नाम ( परशुराम राय ) और रोल नंबर बताया। अधिकारी ने कहा, ” कल तो रिजल्ट आ ही जाएगा। इतने उतावले क्यों हो रहे हो ? ” – आशुतोष

मैंने चिरौरी की , ” सर ! आप तो छात्र की अधीरता समझ ही सकते हैं। ”

उन्होंने रिजल्ट शीट देखते हुए कहा , ” जाओ , तुम्हारा फर्स्ट क्लास है। ”

मैंने आकर प्रभाकर को बताया। उसने मायूसी से हंसते हुए कहा , ” यार ! क्यों मजाक करते हो । किसी से इस तरह का मजाक नहीं करना चाहिए । ”

मैंने कहा , ” तुम्हें यकीन नहीं आ रहा है तो चलो खुद चल कर देख लो। ”

मैंने फिर संबंधित अधिकारी से जाकर कहा , ” सर , यह मेरा मित्र है । इसे यकीन ही नहीं हो रहा है कि मैं फर्स्ट क्लास हूं । ”

अधिकारी ने कहा , ” हां भाई ! यह लड़का फर्स्ट क्लास है । देख लो इसका नंबर । ”

इसके बाद तो प्रभाकर की खुशी का ठिकाना नहीं रहा । आशुतोष , प्रभाकर और मैंने उन कड़की के दिनों में भी होटल में खाना खाया और सिनेमा देखा।

…. बात उन दिनों की है जब छात्रों द्वारा परीक्षा का खूब बहिष्कार ( वाक आउट ) हो रहा था। ऐसे दौर में अगली परीक्षा कब होगी , यह जानने के लिए छात्रों को सचेत रहना पड़ता था। कई बार तो हम लोग प्रभाकर को आगाह करने के लिए गए , ” भाई ! कल तुम्हारी परीक्षा है। ”

वह आश्चर्य से हड़बड़ा कर कहता , ” भाई ! मुझे तो पता ही नहीं था। चलो अच्छा हुआ , कल परीक्षा में बैठ जाएंगे। ”

एक बार तो उसने मजेदार वाकया बताया , ” यार ! मैं तो दूसरे पेपर की तैयारी करके गया था, लेकिन परीक्षा वहां दूसरे पेपर की थी । ”

“…… तब क्या हुआ ? ”

” होना क्या था, मैंने जैसे तैसे परीक्षा दे दी।”उसका रिजल्ट हरबार की तरह तो अच्छा ही आया था। परीक्षा हो या जीवन उसने उसे कभी गंभीरता से नहीं लिया। हां ! नौकरी के लिए इंटरव्यू देने के मामले में वह हम लोगों से भिन्न था। हर इंटरव्यू देने के पहले वह नए कपड़े सिलवाता था। वह मुस्कुराते हुए बताता , ” इससे अपनी पर्सनालिटी और दिमाग पर पॉजिटिव प्रभाव पड़ता है।”

आज जब मैं प्रभाकर को याद करने बैठा हूं तो उसके जीवन से जुड़े हुए ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जो तितलियों की मानिंद मेरी कल्पना में मंड़रा रहे हैं। उन जीवन प्रसंगों में से कितना कुछ है जो लेखन में नहीं समाहित हो सकता है।

सवाल यह उठता है कि हम लोग प्रभाकर को इतनी शिद्दत से क्यों याद कर रहे हैं। वह इसलिए कि प्रभाकर का जीवन उसका संघर्ष आने वाली पीढ़ी के लिए एक माइल स्टोन है। मेरे पिताजी का देहांत हो गया इसलिए आगे नहीं बढ़ सका। मेरे भाई ने सहायता नहीं दी इसलिए पढ़ाई छूट गई। गरीबी के कारण मैं आगे नहीं बढ़ सका आदि आदि बहाने प्रभाकर के जीवन में नहीं थे। मैं यह नहीं कहता हूं ये सारे गुण केवल प्रभाकर में ही थे। कमोबेश मेरे तमाम मित्रों के दिल में ऐसा ही हौसला था। खोने के लिए हमारे पास कुछ नहीं था और पाने के लिए हमारे पास सारी दुनिया थी।

प्रभाकर के बारे में निराला के शब्दों में कहूं,

” वह एक और मन रहा राम का जो न थका,
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय। ”
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रवि शंकर सिंह, सालडांगा, बरदही रोड , पोस्ट रानीगंज, जिला पश्चिम बर्दवान , पश्चिम बंगाल, 71 3347, मोबाइल नंबर- 9434 390 419 / 790 85 69 540