तय नहीं कर पाते,
दुनिया के इस मेले में
आकर्षणों की भरमार है।
कहीं हंसी की खिलखिलाहट,
कहीं मुस्कुराहट के उजाले।
पसरी है खामोशियों की सांसें,
कहीं आँसुओ की बरसात है।
पर, मेरे अनजान रास्तों पर,
सन्नाटे गूँजते रहते हैं
अपनी तो ख्वाहिश बची नहीं
लेकिन आसपास जरूरते चीखती हैं।
शांति के समंदर में डूब जाऊ,
या कर्तव्य के राह अनथक चलूँ,
असमंजस के बादल कहाँ बरसे,
हवा के झोंके तय नहीं कर पाते।
प्रो. इन्दु पाण्डेय खण्डूड़ी
दर्शन विभाग
हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय
श्रीनगर-गढ़वाल, उत्तराखण्ड