अकेला आदमी
अक्सर विसंगतियों से,
लड़ता हुआ इंसान खुद से,
थककर मायूस हो जाता है।
परत-दर-परत व्याप्त भ्रष्टाचार,
दर्द से तड़पता हुआ त्रस्त,
अपनी क्षमताओं पर निराशा के
घनघोर बादलों से ढक जाता है।
पर वही अकेला आदमी,
समय की गति के साथ चल,
करोड़ों विनाश के बाद भी,
सृष्टि की गाथा लिखता है।
वही अकेला आदमी बाढ़-भूकंप,
सबके बाद भी आते हुए हरी कोंपलों और पराग की खुशबू से
भरी वसंत के गीत गाता है ।
जिंदगी कभी रुकती नहीं है,
संकरी गलियों से सही ईर्ष्या द्वेष के अपने कौशल और अनवरत प्रयास के बीच कृष्ण-सा युद्ध बीच शांति रचता है।
इन्दु पाण्डेय खण्डूड़ी, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष दर्शनशास्त्र विभाग हेमवती नंदन बहुगुणा केंद्रीय विश्वविद्यालय, श्रीनगर-गढ़वाल, उत्तराखंड