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चोर ओर फकीर। – ओशो।

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सुना है मैंने, एक रात एक फकीर के घर में एक चोर घुस गया। आधी रात थी। सोचा, सो गया होगा फकीर। भीतर गया, तो हैरान हुआ। मिट्टी का छोटा-सा दीया जलाकर फकीर कुछ चिट्ठी-पत्री लिखता था। घबड़ा गया चोर। छुरा बाहर निकाल लिया। फकीर ने ऊपर देखा और कहा कि छुरा भीतर रखो। शायद ही कोई जरूरत पड़े। फिर कहा कि थोड़ा बैठ जाओ, मैं चिट्ठी पूरी कर लूं, फिर तुम्हारा क्या काम है, उस पर ध्यान दूं। ऐसी बात, कि चोर भी घबड़ाकर बैठ गया!

चिट्ठी पूरी की। फकीर ने पूछा, कैसे आए? सच-सच बता दो। ज्यादा बातचीत में समय खराब मत करना; अब मेरे सोने का वक्त हुआ। उस चोर ने कहा, अजीब हैं आदमी आप! देखते नहीं, छुरा हाथ में लिए हूं। आधी रात आया हूं। काले पकड़े पहने हूं। चोरी करने आया हूं! फकीर ने कहा, ठीक। लेकिन गलत जगह चुनी। और अगर यहां चोरी करने आना था, तो भलेमानस, पहले खबर भी तो कर देते; हम कुछ इंतजाम करते। यहां चुराओगे क्या? मुश्किल में डाल दिया मुझे आधी रात आकर। और इतनी दूर आ गए, खाली हाथ जाओगे, यह भी तो बदनामी होगी। और पहला ही मौका है कि मेरे घर भी किसी चोर ने ध्यान दिया। आज हमको भी लगा कि हम भी कुछ हैं। कभी कोई आता ही नहीं इस तरफ। तो ठहरो, मैं जरा खोजूं। कभी-कभी कोई-कोई कुछ भेंट कर जाता है। कहीं कुछ पड़ा हो, तो मिल जाए।

दस रुपए कहीं मिल गए। उस फकीर ने उसको दिए और कहा कि यह तुम ले जाओ। रात बाहर बहुत सर्द है। अपने शरीर पर जो कंबल था, वह भी उसे दे दिया। वह चोर बहुत घबड़ाया! उसने कहा, आप बिलकुल नग्न हो गए! रात सर्द है। फकीर ने कहा, मैं तो झोपड़े के भीतर हूं। लेकिन तुझे तो दो मील रास्ता भी पार करना पड़ेगा। और रुपयों से तो कपड़े अभी मिल नहीं सकते। रुपयों से तन ढंक नहीं सकता। तो यह कंबल ले जा! फिर मैं तो भीतर हूं। और फिर कब! इस गरीब की झोपड़ी पर कोई कभी चोरी करने आया नहीं। तूने हमें अमीर होने का सौभाग्य दिया। अब हम भी कह सकते हैं किसी से कि हमारे घर भी चोरों का ध्यान है! तू जा। मजे से जा। हम बड़े खुश हैं!

चोर चला गया। फकीर अपनी खिड़की पर बैठा हुआ उसे देखता रहा। ऊपर आकाश में चांद निकला है पूर्णिमा का। आधी रात। चारों तरफ चांदनी बरस रही है। उस रात उस फकीर ने एक गीत लिखा और उस गीत की पंक्तियां बड़ी अदभुत हैं। उस गीत में उसने लिखा कि चांद बहुत प्यारा है! बेचारा गरीब चोर! अगर मैं यह चांद भी उसे भेंट कर सकता! लेकिन अपनी सामर्थ्य के बाहर है। यह चांद भी काश, मैं उस चोर को भेंट कर सकता! बेचारा गरीब चोर! लेकिन अपनी सामर्थ्य के बाहर है।

फिर वह चोर पकड़ा गया–कभी, कुछ महीनों बाद। अदालत ने इस फकीर को भी पूछा बुलाकर कि इसने चोरी की? फकीर ने कहा कि नहीं। क्योंकि जब मैंने इसे दस रुपए भेंट किए, तो इसने धन्यवाद दिया। और जब मैंने इसे कंबल दिया, तो इसने मुझे बहुत मनाया कि आप ही रखिए; रात बहुत सर्द है। यह आदमी बहुत भला है। वह तो मैंने ही इसे मजबूर किया, तब बामुश्किल, बड़े संकोच में यह कंबल ले गया था।

फिर उसको दो साल की सजा हो गई। कुछ और चोरियां भी थीं। फिर सजा के बाद छूटा, तो सीधा भागा हुआ उस फकीर के चरणों में आया। उसके चरणों में गिर पड़ा कि तुम पहले आदमी हो, जिसने मुझसे आदमी की तरह व्यवहार किया। अब मैं तुम्हारे चरणों में हूं। अब तुम मुझे आदमी बनाओ। तुमने व्यवहार मुझसे पहले कर दिया आदमी जैसा, अब मुझे आदमी बनाओ भी। उस फकीर ने कहा, और मैं कर भी क्या सकता था?

जो हमारे भीतर होता है, वही दिखाई पड़ता है।

अगर फकीर के भीतर जरा भी चोर होता, तो वह पुलिस वाले को चिल्लाता। पास-पड़ोस में चिल्लाहट मचा देता कि चोर घुस गया। लेकिन फकीर के भीतर अब कोई चोर नहीं है। तो मकान में चोर भी आ जाए, तो भी चोर नहीं मालूम पड़ता, दुश्मन नहीं मालूम पड़ता; मित्र ही मालूम पड़ता है।

हमारे भीतर जो है, वही हमें बाहर दिखाई पड़ने लगता है। भीतर अगर द्वंद्व है, तो बाहर भी द्वंद्व दिखाई पड़ने लगता है।

-ओशो 💓🙏

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