रांची यात्रा : तीर्थ-यात्रा
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मैं स्नातक से लेकर पीएचडी तक की शिक्षा तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर से प्राप्त की है। इस विश्वविद्यालय ने मेरी वैचारिकी के निर्माण में बड़ी भूमिका निभाई और मुझे इस योग्य बनाया कि मैं शिक्षण के पेशे में आ सका। इसलिए स्वाभाविक रूप से मेरे लिए तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर का एक खास महत्व है।
शिक्षा-दीक्षा के बाद मेरे सामने रोजगार-चयन की समस्या थी। मेरे लिए शिक्षण एवं पत्रकारिता यही दो स्वाभाविक विकल्प था और मुझे इसके अतिरिक्त अन्य कोई रोजगार-पेशा स्वीकार्य भी नहीं था। ऐसे में मैंने कुछ दिनों तक प्रभात खबर में पत्रकारिता की, जो रांची से ही शुरू होने वाला एक प्रमुख अखबार है। इसलिए प्रभात खबर के प्रायः सभी पत्रकारों के अंदर रांची के लिए एक खास आकर्षण रहता है, जो मुझमें भी कहीं-न-कहीं रहा है।
लेकिन पत्रकारिता से आवांतर एक प्रसंग-वस रांची के प्रति मेरा आकर्षण मेरे अस्तित्वात्मक भावों से जुड़ गया। हुआ यह कि तीर्थ नगरी हरिद्वार में आयोजित अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के अधिवेशन में मेरी मुलाकात रांची विश्वविद्यालय, रांची की एक प्रोफेसर से हुई और मेरे किसी शुभ प्रारब्ध के कारण उन्होंने मुझे अपना ‘बेटा’ कहना शुरू कर दिया। अगले वर्ष यही अधिवेशन पुण्यभूमि जम्मू में हुआ और वहां भी संयोगवश मुझे कुछ मंदिरों में उनके साथ पूजा-अर्चना का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जहां उन्होंने देवी-देवताओं से मेरे अच्छे कैरियर के लिए मन्नतें मांगी।
फिर कुछ वर्षों बाद संयोग से वे मेरे पीएचडी शोध-प्रबंथ की एक बाह्य परीक्षक बन गईं और उन्होंने अपने रिपोर्ट में एक न्यायप्रिय मूल्यांकनकर्ता से अधिक एक ममतामयी मां की भूमिका निभाई। कुछ दिनों बाद मुझे पता चला कि वो मेरे एक करीबी मित्र (साकेत विनायक) की बुआ भी हैं, तो स्वाभाविक रूप से वो मेरी बुआ हो गईंं। आज तक हमेशा मेरे सभी सुख-दुख में वो मेरे साथ खड़ी रहती हैं- मेरा नाम सुनते ही उनके अंदर से उसी तरह दुआओं का प्रवाह होने लगता है, जैसे नवजात बछड़े को सामने पाकर कामधेनु का दुग्धामृत…
ऐसी ममतामयी प्रोफेसर का नाम है डॉ. राजकुमारी सिन्हा, जिन्होंने अपने शैक्षणिक जीवन का पचासाधिक वर्ष रांची के शैक्षणिक-सांस्कृतिक जीवन में रच-बस गई है और भारतीय महिला दार्शनिक परिषद की अध्यक्ष एवं वेदांत रिसर्च सेंटर के निदेशक के रूप में कार्य करते हुए इन्होंने इस ऐतिहासिक शहर को दार्शनिक जगत में एक नई पहचान दी है।
अंत में मुझे यह बताते हुए हार्दिक प्रसन्नता हो रही है कि मैंने अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के अधिवेशन में भाग लेने की जो शुरुआत हरिद्वार से की है, वह 17 वर्षों से अनवरत जारी है। लेकिन इन सत्रह वर्षों में पहली बार अखिल भारतीय दर्शन परिषद् का अधिवेशन रांची में हो रहा है।
इस बीच हरिद्वार-भागलपुर की गंगा, मधेपुरा की कोसी तथा रांची की स्वर्णरेखा में भी काफी पानी बह गया है। माताजी प्रोफेसर की सक्रिय सेवा से औपचारिक रूप से सेवानिवृत्त हो चुकी हैं और उनके आशीर्वाद से उनका बेटा शोधार्थी से असिस्टेंट प्रोफेसर बन गया है। लेकिन मेरी रांची-यात्रा किसी नवनियुक्त असिस्टेंट प्रोफेसर की प्रोन्नति आदि लाभों के निमित्त की गई शैक्षणिक यात्रा नहीं है, यह तो माता के दर्शनाभिलाषी कृतज्ञ पुत्र की तीर्थ-यात्रा है। जय माता दी!
-सुधांशु शेखर,
ठाकुर प्रसाद महाविद्यालय, मधेपुरा (बिहार)