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Kabir कबीर के लिए। दिनेश कुशवाहा

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कबीर कवि होने की पराकाष्ठा हैं। मनुष्य होने की मिसाल हैं। फिर भी उन्हें पांच सौ साल तक कवि नहीं माना इस देश के बुद्धिजीवियों ने। पूछने का मन होता है- पार्टनर तुमरी पालिटिक्स क्या है?जिस देश में शास्त्र -पुराण, आगम- निगम, ज्ञानी- अज्ञानी हर घड़ी पालिटिक्स करते हों!! वहां यह प्रश्न बहुत जरूरी है। गहन शोध की आवश्यकता है इसके लिए!!
“हेरत हेरत हे सखी/गया कबीर हेराय।”
कविता सिर्फ करुणा से ही नहीं उपजती।सिर्फ वियोगी ही कवि नहीं होता। जैसे अन्न और फल हमारे कृषिकर्म से उपजते हैं उसी प्रकार कविता हमारे जीवन का फल है।रैदास कबीर से उम्र में बड़े हैं। ये दोनों कवि ,कर्म की कविता के वाल्मीकि हैं। कविता के लिए इन्होंने अपनी जान पर बहुत जोखिम लिया।
इधर कुछ बरसों से मुझे इलहाम जैसा होता है। ऐसा लगता है कि मैं इनके पास बैठ कर इनसे बात कर रहा हूं।इन्हें निहार रहा हूं, इनका मुंह ताक रहा हूं। अपने कविकर्म की असमर्थता पर दादा-दादा कह कर रिरिया रहा हूं। रविदास तो बहुत वत्सल और विनीत हैं, वे सिर्फ मुस्कुरा कर रह जाते हैं। अभी इसी साल उनकी जयंती पर एक कविता रविदास को “चंदन को पानी” लिखकर उन्हें सुनाई तो भी मुस्करा कर रह गये। हां उनकी आंखों में नमी जरूर उतर आयी और वे रापी नीचे रखकर मेरा सिर सहलाने लगे।
कबीर को मैं कवि दा कहता हूं। हमेशा गहन गंभीर रहते हैं। जब बात करते हैं, तो खूब बतियाते हैं। नहीं तो अक्सर चुप रहते हैं। अगर मेरी कोई बात उन्हें अच्छी लगती है, तो आंख उठाकर एक नजर देख भर लेते हैं। कभी-कभी खूब लंबी ‘हूं’ करना उनकी आदत है। कभी हंसकर कहते हैं, “मैंने जो कुछ तब कह दिया, उसे भी तुम लोग आज कहने में डरते हो। कविता के लिए- साहस-हिम्मत भी जरूरी है दिनेश बाबू और ‘साधो’ लोगों का साथ भी। काशी में रहना बहुत कठिन है।” और मैं दा दा करने लगता हूं। आज अपने इसी कवि दा के लिए अपनी एक कविता। आप सब मित्रों के हूजूर में।

“फिर वही कबीर फिर वही काशी”
एक ही चादर में बिता दिया जीवन
चादर से बढ़ कर पांव कभी नहीं फैलाये
कई बार ठिठुर रहेऔरों को भी
समेट लिया अपनी चादर में।

कोई न कोई चीज
घटी ही रहती थी घर में
पर कभी घर से कोई साधु
भूखा नहीं गया।

पर उसी काशी में बहुत सारे लोग थे/ जिन्हें न अन्न बदा था न वस्त्र।

कहते थे सबका पालनहार एक है/ पर उनका तारनहार कोई नहीं था।

कपट की अखण्ड ज्योति से छाती जलती रहती थी/
सोचता था तो रात भर नींद नहीं आती थी।

साहब से सब होत है, बंदे से कछु नाहिं/
तो फिर बंदे क्या करें, कहु कबीर कंह जाहिं ।
पर साहब की साहबी, कहे धरो तुम धीर।                       तूं क्यों रोता रात भर, सोता नहीं कबीर।”

-दिनेश कुशवाह, 24.06.2021

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बिहार के लाल कमलेश कमल आईटीबीपी में पदोन्नत, हिंदी के क्षेत्र में भी राष्ट्रीय पहचान अर्धसैनिक बल भारत -तिब्बत सीमा पुलिस (ITBP) में कार्यरत बिहार के कमलेश कमल को सेकंड-इन-कमांड पद पर पदोन्नति मिली है। अभी वे आईटीबीपी के राष्ट्रीय जनसंपर्क अधिकारी हैं। साथ ही ITBP प्रकाशन विभाग की भी जिम्मेदारी है। पूर्णिया के सरसी गांव निवासी कमलेश कमल हिंदी भाषा-विज्ञान और व्याकरण के प्रतिष्ठित विद्वान हैं। उनके पिता श्री लंबोदर झा, राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित शिक्षक हैं और उनकी धर्मपत्नी दीप्ति झा केंद्रीय विद्यालय में हिंदी की शिक्षिका हैं। कमलेश कमल को मुख्यतः हिंदी भाषा -विज्ञान, व्याकरण और साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए देश भर में जाना जाता है। वे भारतीय शिक्षा बोर्ड के भी भाषा सलाहकार हैं। हिंदी के विभिन्न शब्दकोशों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके हैं। उनकी पुस्तकों ‘भाषा संशय-शोधन’, ‘शब्द-संधान’ और ‘ऑपरेशन बस्तर: प्रेम और जंग’ ने राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की है। गृह मंत्रालय ने ‘भाषा संशय-शोधन’ को अपने अधीनस्थ कार्यालयों में उपयोग के लिए अनुशंसित किया है। उनकी अद्यतन कृति शब्द-संधान को भी देशभर के हिंदी प्रेमियों का भरपूर प्यार मिल रहा है। यूपीएससी 2007 बैच के अधिकारी कमलेश कमल की साहित्यिक एवं भाषाई विशेषज्ञता को देखते हुए टायकून इंटरनेशनल ने उन्हें देश के 25 चर्चित ब्यूरोक्रेट्स में शामिल किया था। वे दैनिक जागरण में ‘भाषा की पाठशाला’ लोकप्रिय स्तंभ लिखते हैं। बीते 15 वर्षों से शब्दों की व्युत्पत्ति एवं शुद्ध-प्रयोग पर शोधपूर्ण लेखन कर रहे हैं। सम्मान एवं योगदान : गोस्वामी तुलसीदास सम्मान (2023) विष्णु प्रभाकर राष्ट्रीय साहित्य सम्मान (2023) 2000 से अधिक आलेख, कविताएँ, कहानियाँ, संपादकीय, समीक्षाएँ प्रकाशित देशभर के विश्वविद्यालयों में ‘भाषा संवाद: कमलेश कमल के साथ’ कार्यक्रम का संचालन यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए हिंदी एवं निबंध की निःशुल्क कक्षाओं का संचालन उनका फेसबुक पेज ‘कमल की कलम’ हर महीने 6-7 लाख पाठकों द्वारा पढ़ा जाता है, जिससे वे भाषा और साहित्य के प्रति जागरूकता बढ़ाने का कार्य कर रहे हैं। बिहार के लिए गर्व का विषय : आईटीबीपी में उनकी इस उपलब्धि और हिंदी के प्रति उनके योगदान पर पूर्णिया सहित बिहारवासियों में हर्ष का माहौल है। उनकी इस सफलता ने यह साबित कर दिया है कि बिहार की प्रतिभाएँ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छाप छोड़ रही हैं। वरिष्ठ पत्रकार स्वयं प्रकाश के फेसबुक वॉल से साभार।

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